Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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सामयिकलिपि-सावध
जैन पुराणकोश : ४३७
सामयिकलिपि-लिपि का एक भेद । पपु० २४.२५ सामसमृद्ध-जम्बद्वीप के विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश के वीतशोक नगर
का एक श्रेष्ठी । इसने सागरदत्त श्रुतकेवली को आहार देकर पंचाश्चर्य
प्राप्त किये थे। मपु० ७६.१३०,१३४-१३६ सामानिक-देव । इन्द्र भी इन्हें बड़ा मानते हैं । ये माता-पिता और गुरु
के तुल्य होते हैं तथा अपनी मान्यतानुसार इन्द्रों के समान ही सत्कार प्राप्त करते हैं। भोग और उपभोग की सामग्री इन्हें इन्द्रों के समान ही प्राप्त होती है। केवल ये इन्द्र के समान देवों को आज्ञा नहीं दे
पाते । मपु० १०.१८९, २२.२३-२४, वीवच० ६.१२८, १४.२८ सामायिक-(१) अंगबाह्य श्रुत के चौदह प्रकीर्णकों (भेदों) में प्रथम प्रकीर्णक । हपु० २.१०२
(२) षडावश्यक क्रियाओं में प्रथम क्रिया-समस्त सावद्ययोगों का त्याग कर चित्त को एक बिन्दु पर स्थिर करना । मपु० १७.२०२, हपु० ३४.१४२-१४३
(३) एक शिक्षाव्रत-वीतराग देव के स्मरण में स्थित पुरुष का सुखदुःख तथा शत्रु-मित्र में माध्यस्थ भाव रखना। यह दुर्ध्यान और दुर्लेश्या को छोड़कर प्रतिदिन प्रातः मध्याह्न और सायंकाल तीन बार किया जाता है । इनके पाँच अतिचार होते हैं-१. मनोयोग दुष्प्रणिधान २. वचनयोगदुष्प्रणिधान ३. काययोगदुष्प्रणिधान ४. अनादर
और ४. स्मृत्यनुपस्थान । पपु० १४.१९९, हपु० ५८.१५३, १८०, वीवच० १८.५५
(४) श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में तीसरी प्रतिमा। इसका स्वरूप सामायिक शिक्षाव्रत के समान है। वीवच० १८.६० सामायिकचारित्र-चारित्र के पाँच भेदों में प्रथम भेद-सब पदार्थों में
राग-द्वेष निवृत्ति रूप समताभाव रखना और सावद्ययोग का पूर्ण त्याग
करना । हपु० ६४.१४-१५ साम्परायिक आस्रव-आस्रव के दो भेदों में प्रथम भेद । यह कषायपूर्वक होता है । मिथ्यादृष्टि से सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक के जीवों के सकषाय होने से यह आस्रव होता है। इसके पाँच इन्द्रियाँ, चार कषाय, पाँच अवत, और पच्चीस क्रियाएँ ये ३९ द्वार है-पच्चीस क्रियाओं के नाम निम्न प्रकार हैं१. सम्यक्त्व २. मिथ्यात्व ३. प्रयोग ४. समादान ५. कायिकी ८. क्रियाधिकरणी ९. पारितापिकी १०. प्राणातिपातिको ११. दर्शन १२. स्पर्शन १३. प्रत्यायिकी १४. समन्तानुपातिनी १५. अनाभोग १६. स्वहस्त १७. निसर्ग १८. विदारण १९. आज्ञाव्यापादिकी २०. अनाकांक्षी २१. प्रारम्भ २२. पारिग्रहिकी २३. माया २४. मिथ्यादर्शन और २५. अप्रत्याख्यान । हपु० ५८.५८-८२ साम्राज्यक्रिया-(१) गृहस्थ को गर्भ से निर्वाण पर्यन्त पन क्रियाओं में सैंतालीसवीं क्रिया-प्रजापालन को रातियों के विषय में अन्य राजाओं को शिक्षा देना तथा योग और क्षेम का बार-बार चिन्तन और पालन करते हुए साम्राज्य की उपलब्धि करना । मपु० ३८.६२, २६४
(२) सात कर्बन्धय क्रियाओं में पांचवीं किया। इसमें चक्ररत्न के
साथ-साथ निधियों और रत्नों से उत्पन्न हुए भोगोपभोगों की प्राप्ति
होती है । मपु० ३९.२०२ सार-(१) राम का पक्षधर अश्वरथी एक योद्धा । पपु० ५८.१४
(२) समवसरण के तीसरे कोट में पश्चिमी द्वार का तीसरा नाम । हपु०५७.५९ सारण-(१) राजा वसुदेव और रानी रोहिणी का द्वितीय पुत्र । बलदेव
इसका बड़ा भाई तथा विदूरथ छोटा भाई था । यह कृष्ण का पक्षधर योद्धा था। मपु०७१.७३, हपु० ४८.६४, ५२.२०
(२) रावण का एक सामन्त । इसने सिंहवाही रथ पर बैठकर राम की सेना से युद्ध किया था । पपु० ५७.४५ सार निवह-भरतक्षेत्र के विजयाध पर्वत की उत्तरश्रेणी का चौदहवां
नगर । हपु० २२.८७ सारसमुच्चय-धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व भरतक्षेत्र में स्थित एक देश ।
नागपुर इस देश का मुख्य नगर था। मपु० ६४.३-४ सारसोख्य-एक नगर । कौए का मांस त्याग करनेवाले खदिरसार भोल
का साला । शूरवीर इसी नगर में रहता था । मपु० ७४.३८९-४०१ सारस्वत-(१) भरतक्षेत्र के पश्चिम आर्यखण्ड का एक देश । हपु० ११.७२
(२) ब्रह्मलोक में रहनेवाले लौकान्तिक देवों का प्रथम भेद । ये देव तीर्थंकरों के वैराग्य को प्रवृद्ध कराने तथा उनके तप-कल्याणकी की पूजा करने के लिए स्वर्ग से नीचे आते हैं। ये देव जन्मजात ब्रह्मचारी, एक भवावतारी, पूर्वभव में सम्पूर्णश्रुत और वैराग्यभावना के अभ्यासी होते हैं। इन्द्र और देव इनको वन्दना करते है। ये देवर्षि कहलाते हैं। मपु० १७.४७-४८, हपु० ९.६३-६४, वीवच.
१२.२-५ सार्व-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११९ सार्वभौमतीर्थकर मल्लिनाथ का मुख्य प्रश्नकर्ता । पपु० ७६.५३२ सालंकायन-भारतवर्ष के पुरातन-मन्दिर नगर का एक ब्राह्मण । इसकी
स्त्री मन्दिरा तथा पुत्र भारद्वाज था । वीवच० २.१२५-१२६ साल-एक चैत्यवृक्ष । तीर्थंकर सुविधिनाथ और महावीर ने इसो वृक्ष के नीचे दीक्षा ली थी । मपु० ७४.३५०, पपु० २०.४५, ६०, हपु० २.५८
(२) राम का पक्षधर एक योद्धा। यह सैनिकों के मध्य स्थित रथ पर बैठकर रणांगण में पहुँचा था। पपु०५८.१२, १७ सालम्बप्रत्याख्यान-सावधिक सन्यास-उपसर्ग के आने पर उसके दूर न
होने तक आहार-विहार न करने को प्रतिज्ञा । हपु० २०.२४ साल्व-भरतक्षेत्र के मध्य आर्यखण्ड का एक देश । चक्रवर्ती भरतेश के
छोटे भाइयों द्वारा त्यागे गये अनेक देशों में एक देश यह भी था। भरतेश का यहाँ शासन हो गया था। तीर्थंकर महावीर यहाँ विहार करते हुए आये थे। इसका अपर नाम सौल्व था। हपु० ३.३,
११.६५ सावध-हिंसा आदि पापों का जनक मन, वचन और काय का व्यापार।
मपु० १७.२०२
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