Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 462
________________ ४४४ : जैन पुराणकोश पुत्री हुई। रावण ने निमित्तज्ञानियों से इसे अपने वध का कारण जानकर मारीच को इसे बाहर छोड़ आने के लिए आज्ञा दी थी। मारीच भी मन्दोदरी द्वारा सन्दूक में बन्द की गयी इसे ले जाकर मिथिला नगरी के समीप एक उद्यान के किसी ईषत् प्रकट स्थान में छोड़ आया था। सन्दूकची भूमि जोतते हुए किसी कृषक के हल से टकरायी । कृषक ने ले जाकर सन्दूकची राजा जनक को दी। जनक ने सन्दूकची में रखे पत्र से पूर्वापर सम्बन्ध ज्ञात कर इसे अपनी रानी वसुधा को सौंप दी। वसुधा ने भी इसका पुत्रीवत् पालन किया। इसका यह रहस्य रावण को विदित नहीं हो सका था। स्वयंवर में राम ने इसका वरण किया था। राम के वन जाने पर इसने राम का अनुगमन किया था। वन में इसने सुगुप्ति और गुप्ति नामक युगल मुनियों को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। राम के विरोध में युद्ध के लिए रावण को नारद द्वारा उत्तेजित किये जाने पर रावण ने सीता को हर कर ले जाने का निश्चय किया। लक्ष्मण ने वन में सूर्यहास खड्ग प्राप्त की तथा उसकी 'परीक्षा के लिए उसने उसे बाँसों पर चलाया, जिससे बाँसों के बीच इसी खड्ग की साधना में रत शम्बूक मारा गया था। शम्बूक के मरने से उसका पिता खरदूषण लक्ष्मण से युद्ध करने आया। लक्ष्मण उससे युद्ध करने गया । इधर रावण ने सिंहनाद कर बार-बार राम ! राम ! उच्चारण किया । राम ने समझा सिंहनाद लक्ष्मण ने किया है और वे मालाओं से इसे ढंककर लक्ष्मण की ओर चले गये। इसे अकेला देखकर रावण पुष्पक विमान में बलात् बैठाकर हर ले गया। महापुराण के अनुसार इसे हरकर ले जाने के लिए रावण की आज्ञा से मारीच एक सुन्दर हरिण-शिशु का रूप धारण कर सीता के समक्ष आया था। राम इसके कहने से हरिण को पकड़ने के लिए हरिण के पीछे-पीछे गये, इधर रावण बहुरूपिणी विद्या से राम का रूप बनाकर इसके पास आया और पुष्पक विमान पर बैठाकर हर ले गया । रावण ने इसके शीलवती होने के कारण अपनी आकाशगामिनी विद्या के नष्ट हो जाने के भय से इसका स्पर्श भी नहीं किया था। रावण द्वारा हरकर अपने को लंका लाया जानकर इसने राम के समाचार न मिलने तक के लिए आहार न लेने की प्रतिज्ञा की थी। रावण को स्वीकार करने के लिए कहे जाने पर इसने अपने छेदे-भेदे जाने पर भी पर-पुरुष से विरक्त रहने का निश्चय किया था। राम के इसके वियोग में बहुत दुःखी हुए । राजा दशरथ ने स्वप्न में रावण को इसे हरकर ले जाते हुए देखा था । अपने स्वप्न का सन्देश उन्होंने राम के पास भेजा। इसे खोजने के लिए राम ने पहिचान स्वरूप अपनी अंगूठी देकर हनुमान् को लंका भेजा था । लंका में हनुमान् ने अंगूठी जैसे ही इसकी गोद में डाली कि यह अंगूठी देख हर्षित हुई । अंगूठी देख प्रतीति उत्पन्न करने के पश्चात् हनुमान ने इसे साहस बंधाया और लौटकर राम को समाचार दिये । सीता की प्राप्ति के शान्तिपूर्ण उपाय निष्फल होने पर राम-लक्ष्मण ने रावण से युद्ध किया तथा युद्ध में लक्ष्मण ने रावण को मार डाला । रावण पर राम की विजय होने के पश्चात् इसका राम से मिलन हुआ। वेदवती की पर्याय में मुनि सीता-सीतोदा सुदर्शन और आर्यिका सुदर्शना का अपवाद करने से इसका लंका से अयोध्या आने पर लंका में रहने से इसके सतीत्व के भंग होने का अपवाद फैला था । राम ने इस लोकापवाद को दूर करने लिए गर्भवती होते हुए भी अपने सेनापति कृतान्तवक्त्र को इसे सिंहनाद अटवी में छोड़ आने के लिए आज्ञा दी थी। निर्जन वन में छोड़ जाने पर इसने राम को दोष नहीं दिया था, अपितु इसने इसे अपना पूर्ववत् कम-फल माना था। इसने सेनापति के द्वारा राम को सन्देश भेजा था कि वे प्रजा का न्यायपूर्वक पालन करें और सम्यग्दर्शन को किसी भी तरह न छोड़ें । वन में हाथी पकड़ने के लिए आये पुण्डरीकपुर के राजा वजजंघ ने इसे दुःखी देखा तथा इसका समस्त वृतान्त ज्ञातकर इसे अपनी बड़ी बहिन माना और इसे अपने घर ले गया । इसके दोनों पुत्रों अनंगलवण और मदनांकुश का जन्म इसी वज्रजंघ के घर हुआ था। नारद से इन बालकों ने राम-लक्ष्मण का वृतान्त सुना। राम के द्वारा सीता के परित्याग की बात सुनकर दोनों ने अपनी माता से पूछा । पूछने पर इसने भी नारद के अनुसार ही अपना जीवन-वृत्त पुत्रों को सुना दिया। यह सुनकर माता के अपमान का परिशोध करने के लिए वे दोनों ससैन्य अयोध्या गये और उन्होंने अयोध्या घेर ली । राम और लक्ष्मण के साथ उनका घोर युद्ध हुआ । राम और लक्ष्मण उन्हें जीत नहीं पाये । तब सिद्धार्थ नामक क्षुल्लक ने राम को बताया कि वे दोनों बालक सीता से उत्पन्न आपके ही ये पुत्र है । यह जानकर राम और लक्ष्मण ने शस्त्र त्याग दिये और पिता पुत्रों का प्रेमपूर्वक मिलन हो गया। हनुमान सुग्रीव और विभीषण आदि के निवेदन पर सीता अयोध्या लायी गयी । जनपवाद दूर करने के लिए राम ने सीता से अग्नि परीक्षा देने के लिए कहा जिसे इसने सहर्ष स्वीकार किया और पंच परमेष्ठो का स्मरण कर अग्नि में प्रवेश किया। अग्नि शीतल जल में परिवर्तित हो गयी थी। इसके पश्चात् राम ने इसे महारानी के रूप में राजप्रासाद में प्रवेश करने की प्रार्थना की किन्तु इसने समस्त घटना चक्र से विरक्त होकर पृथ्वीमती आर्या के पास दीक्षा ले ली थी। बासठ वर्ष तक घोर तप करने के पश्चात् तैंतीस दिन की सल्लेखनापूर्वक देह त्याग कर यह अच्युत स्वर्ग में देवेन्द्र हुई । इसने स्वर्ग से नरक जाकर लक्ष्मण और रावण के जीवों को सम्यक्त्व का महत्त्व बताया था, जिसे सुनकर वे दोनों सम्यग्दृष्टि हो गये थे। मपु० ६७.१६६-१६७, ६८.१८-३४,१०६-११४, १९७२९३, ३७६-३८२, ४१०-४१८, ६२७-६२९, पपु० २६.१२१, १६४-१६६, २८.२४५, ३१.१९१, ४१.२१-३१, ४३.४१-६१, ७३, ४४.७८-९०, ४६.२५-२६, ७०-८५,५३.२६, १७०, २६२, ५४.८२५, ६६.३३-४५, ७६.२८-३५, ७९.४५-४८, ८३.३६-३८, ९५.१८, ९७.५८-६३, ११३-१५६, ९८.१-९७, १००.१७-२१, १०२.२८०, १२९-१३५, १०३.१६-१८, २९-४७, १०४.१९-२०, ३३, ३९-४०, ७७, १०५.२१-२९, ७८, १०६.२२५-२३१, १०९.७ १८, १२३.४६-४७, ५३ सीतोदा-(१) चौदह महानदियों में आठवीं नदी। यह जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से पश्चिम की ओर विदेहक्षेत्र में गंधिल देश की दक्षिण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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