Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 477
________________ जैन पुराणकोश : ४५९ सुरसुदर-सुलक्षणा सरसन्दर-एक राजा । इसकी रानी सर्वश्री तथा पुत्री पद्मावती थी। दशानन ने पद्मावती को गन्धर्व विधि से विवाह लिया था। पपु० ८.१०३, १०८ सुरसुन्दरी-राजा सूर की रानी । यह अन्धकवृष्टि की जननी थी। इसका अपर नाम धारिणी था । पापु० ७.१३०-१३१ दे० धारिणी-८ सरसेन-अयोध्या का सूर्यवंशी राजा। यह द्रौपदी के स्वयंवर में गया __ था । पापु० १५.८२ सुरा-रुचकगिरि की पश्चिम दिशा में जगत्कुसुमकूट पर रहनेवाली दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.७१२ सुरादेवीकूट-हिमवत् कुलाचल का नौवां कूट । हपु० ५.५४ सुरामरगुरु-एक मुनि । ये जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी के गगनवल्लभ नगर के राजा मेघनाद के दीक्षागुरु थे। मपु० ६३.२९-३२ सुरारि-भानुप्रभ राजा के पश्चात् हुआ लंका का एक राजा । पपु० ५.३९५ सुरालय-सुमेरु पर्वन का अपर नाम । दे० सुमेरु सुराष्ट-भरतक्षेत्र के पश्चिम आर्यखण्ड का तीर्थकर वृषभदेव के समय में इन्द्र द्वारा निर्मित एक देश । राष्ट्रवर्धन इमो देश का एक प्रमुख नगर था । मपु० १६.१५४, हपु० ११.७२, ४४.२६, ५९.११० सुराष्टवर्धन-एक राजा । इसकी रानी सुज्येष्ठा थी। इसको पुत्री सुमीमा कृष्ण के साथ विवाहो गयी थी। मपु० ७१.३९६-३९७ सुरूप-(१) व्यन्तर देवों का तेरहवाँ इन्द्र । वीवच० १४.६१ (२) एक व्यन्तर देव । यह इस योनि से निकलकर पुष्पभूति हुआ था । मपु० ६३.२७८-२७९, पपु० ५.१२३-१२४ (३) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०२५.१८४ सरूपा-(१) जम्बद्वीप के विजया पर्वत को दक्षिणश्रेणी के गगनवल्लभ नगर के राजा विधु द्वेग विद्याधर की पुत्री। यह नित्यालोकपुर के राजा महेन्द्रविक्रम को विवाही गयी थी। ये दोनों पति-पत्नी जिनेन्द्र की पूजा करने सुमेरु पर गये थे। वहाँ चारणऋद्धिधारी मुनि से धर्मोपदेश सुनकर इसका पति दीक्षित हो गया था। इसने भी सुभद्रा आर्यिका से संयम धारण किया। मरकर यह सौधर्म स्वर्ग में देवी हुई । मपु० ७१.४१९-४२४ (२) एक देवी। इसने राजा मेघरथ के सम्यक्त्व की परीक्षा ली थी। मपु० ६३.२८१-२८७ सुरुपाक्षी-कुम्भपुर नगर के राजा महोदर की रानी। इसकी पुत्री तडिन्माला भानुकर्ण से विवाही गयी थी। पपु० ८.१४२ सुरेन्द्रकान्त-जम्बू द्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित विजया पर्वत की उत्तर श्रेणी का इक्कासवां नगर । इसका अपर नाम सुरेन्द्रकान्तार था। मपु० १९.८१, ८७, ६२.७१ सुरेन्द्रजाल-एक विद्या। प्रद्युम्न को यह निद्या उपकार करने के फल स्वरूप एक विद्याधर से प्राप्त हुई थी। मपु० ७२.११२-११५ सरेन्द्रता-लोक में उत्कृष्ट माने गये सप्त परमस्थानों में चतुर्थ स्थान । पारिव्राज्य के फलस्वरूप सुरेन्द्र पद का मिलना सुरेन्द्रता है। मपु० ३८.६७, ३९.२०१ सुरेन्द्रदत्त-(१) श्रावस्ती नगरी का राजा। इसने तीर्थकर सम्भवनाथ को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । मपु० ४९.३८-३९ (२) जम्बदीप की विनीता नगरी का निवासी एक सेठ । यह अर्हत् पूना को सामग्री के लिए प्रतिदिन दम, अष्टमी को सोलह, अमावस को चालीस और चतुर्दशी को अस्सी दीनारों का व्यय करता था। इसने पूजा करके 'धर्मशील' नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की थी। यह बत्तीस करोड़ दीनारों का बनी था। जैनधर्म पर इसको अपूर्व भक्ति थी। मपु० ७०.१४७-१५०, हपु० १८.९७-९८ (३) प्रियंगुनगर का सेठ । यह चारुदत्त के पिता का मित्र था। चारुदत्त को इसने अपने यहाँ बहुत दिनों तक सुखपूर्वक रखा था। हपु० २१.७८ सुरेन्द्रमंत्र-सुरेन्द्रपद की प्राप्ति के लिए बोले जाने वाले मन्त्र । वे है सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, दिव्यजाताय स्वाहा, दिव्या~जाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, मौधर्माय स्वाहा, कल्पाधिपतये स्वाहा, अनुचराय स्वाहा, परम्परेन्द्राय स्वाहा, अहभिन्द्राय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे-सम्यग्दृष्टे, कल्पपते कल्पपते, दिव्यमूर्ते-दिव्यमूर्ते, वज्रनामन्-वजनामन् स्वाहा, सेवाफलं षटपरमस्थानं भवतु, अपमृत्यु-विनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । मपु० ४०.४७-५६ सुरेन्द्रमन्य-विनीता नगरी के राजा विजय का पुत्र । इसके दो पुत्र थे। इनमें वज्रबाहु बड़ा और पुरन्दर छोटा था। वज्रबाहु के दीक्षित हो जाने पर इसके पिता और इसने भी निर्वाणघोष मुनि के पास दीक्षा ले ली थी । पपु० २१.७३-७७, १२१-१२३, १३८-१३९ सुरेन्द्ररमण-धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र का एक नगर । नारद यहाँ आया था और यहाँ से लौटकर सीधा वह कौशल्या के पास गया था । पपु० ८१.२१-२७ सुरेन्द्रवर्धन-विजयाध पर्वत पर रहनेवाला विद्याधर । किसी निमित्त ज्ञानी ने इसकी पुत्री का और द्रौपदी का पति गाण्डीव-धनुष चढ़ानेवाला बताया था। निमित्तज्ञानी के कथनानुसार इसने और राजा द्रुपद ने गाण्डीव-धनुष के द्वारा राधा की नाक में पहनाये गये मोती को भेदनेवाले वीर पुरुष के लिए अपनी-अपनी कन्या देने की घोषणा की थी । अन्त में अर्जुन ने बाण चढ़ाकर घूमती हुई राधा की नाक का मोती भेदकर शुभ लग्न में इस विद्याधर को कन्या और द्रौपदी दोनों का पाणिग्रहण किया था। हपु० ४५.१२६-१२७, पापु० १५. ५४-५६, ६५-६७, १०९-११०, २१९ सुलक्षण-राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का पंचानवेवां पुत्र । पापु०८.२०४ सुलक्षणा-(१) विजयाध पर्वत को दक्षिणश्रेणी के धरणतिलक नगर के राजा अतिबल की रानी । इसकी पुत्री श्रीधरा अलका नगरी के राजा सुदर्शन को दो गयी थी। मपु० ५९.२२८-२२९, हपु० २७.७७-७९ (२) जम्बूद्वीप के ऐरावतक्षेत्र में विन्ध्यपुर नगर के राजा विन्ध्य Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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