Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 459
________________ सिहेन्द्र सिद्धसाधन पुनः अधिष्ठित कर दिया था। इसके पुत्र का नाम सौदास था । पपु० २२.११४-१३१ सिंहेन्दु – व्याघ्रपुर नगर के राजा सुकान्त का पुत्र, शीला का भाई । पिता के मरने पर द्युति शत्रु ने इस पर आक्रमण किया था, जिससे भयभीत होकर यह पत्नी सहित सुरंग से निकल भागा था । वन में सर्प के द्वारा इस लिए जाने पर इसकी स्त्री इसे महावृद्धि के धारक मय नामक मुनि के पास ले गई तथा उसने मुनि के चरणों का स्पर्श कर जैसे ही इसके शरीर का स्पर्श किया कि उसका विष दूर हो गया । पूर्वभव में यह पोदनपुर में गोवाणिज गृहस्थ था । इसकी भुजपत्रा स्त्री थी। इन दोनों ने पूर्वभव में पशुओं पर अधिक भार लादकर पीड़ा पहुँचाई थी इसीलिए इन्हें वन में तंबोलियों का भार उठाना पड़ा था। पपु० ८०.१७३ १८२, २०० - २०१ सिंहोदर - उज्जयिनी का राजा दशांगपुर का राजा वज्रकर्ण जिनेन्द्र और निर्ग्रन्थ मुनि को ही नमस्कार करने की प्रतिज्ञा लेने के कारण इसे नमन नहीं करना चाहता था। अतः उसने तीर्थंकर मुनिसुव्रत की चित्र जडित अंगूठी अपने अंगूठे में पहिन रखी थी। इसे नमस्कार करते समय वह अंगूठी सामने रखता और तोर्थंकर मुनिसुव्रत को नमन करके अपने नियम की रक्षा कर लेता था। किसी वैरी ने इसका यह रहस्य इसे बता दिया। इससे यह वज्रकर्ण से कुपित हो गया। इसने वज्रकर्ण पर आक्रमण किया । वज्रकर्ण ने अपनी प्रतिज्ञा के निर्वाह हेतु इसे सब कुछ देने के लिए कहा किन्तु इसने कोमान्थ होकर नगर में आग लगा दी । अन्त में यह युद्ध में लक्ष्मण द्वारा बांध लिया गया था। लक्ष्मण ने इसकी और वज्रकर्ण की अन्त में मित्रता करा दी थी तथा वज्रकर्ण के कहने पर इसे मुक्त भी कर दिया था। इसने भी उज्जयिनी का आधा भाग तथा ऊजड़ किया गया वह देश वज्रकर्ण को दे दिया था। राम ने इसे अपना सामन्त बनाया था। पपु० ३३.७४-७५, ११७-११८, १३१-१३४, १७४१७७, २६२-२६३, ३०३ ३०८, १२०.१४६-१४७ सिकतिनी-- भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी । चक्रवर्ती भरतेश का सेनापति ससैन्य यहाँ आया था। मपु० २९.६१ सित- ( १ ) भार्गवाचार्य की वंश परम्परा में हुए आचार्य अमरावर्त का शिष्य और वामदेव का गुरु । हपु० ४५.४५-४६ (२) एक तापस। इसकी मृगशृंगिणी स्त्री तथा मधु पुत्र था । हपु० ४६.५४ सितगिरि - भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का एक पर्वत । दिग्विजय के समय चक्रवर्ती भरतेश की सेना पुष्पगिरि को लांघकर इस पर्वत पर आयी थो । मपु० २९.६८ सितध्यान - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घाति कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान उत्पन्न करनेवाला शुक्लध्यान । पपु० ४.२२ 1 सितयश सूर्यवंशी राजा अर्कक्रांति का पुत्र यह राजा बलांक का पिता था । पपु० ५.४ ५६ Jain Education International जैन पुराणकोश : ४४१ सिता - राजा समुद्रविजय के छोटे भाई विजय की महादेवी । हपु० १९.४ सिद्ध - ( १ ) शुद्ध चेतना रूप लक्षण से युक्त, संसार से मुक्त, अष्टकर्मों से रहित, अनन्त सम्यक्त्व अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, अत्यन्त सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अव्याबाधत्व और अगुरुलघुत्व इन आठ गुणों से सहित, असंख्यात प्रदेशी, अमूर्तिक, अन्तिम शरीर से किंचित् न्यून आकार के धारक, जन्म-जरा-मरण और अनिष्ट संयोग तथा इष्टवियोग, क्षुधा तृषा, बीमारी आदि से उत्पन्न दुःखों से रहित, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से पंच परावर्तनों से रहित, लोक के अग्रभाग में स्थित मुक्त जीव । ये पंच परमेष्ठियों में दूसरे परमेष्ठी होते हैं । मपु० २०.२२२-२२५, २१.११२ ११९, पपु० १४.९८-९९, ४८.२००-२०९, ८९.२७, १०५, १७३ १७४, १८१, १९१, पु० १.२८, २.६६-६७, पापु १.१, बीच० १.३८-३९, ११.१०९-११०, १२.१०६-१०८, १६.१७०-१७८ , (२) मानुषोत्तर पर्वत की पश्चिम दिशा में विद्यमान अंजनमूलकूट का निवासी एक देव । हपु० ५.६०४ (३) भरतेस और सोचमेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २४.३८, २५.१०८ सिद्ध (१) मायवान् पर्वत के भी कूदों में प्रथम कूट ०५. 1 २१९ (२) सौमनस्य पर्वत के सात कूटों में प्रथम कूट । हपु० ५२२१ (३) विद्युत्प्रभ पर्वत के नौ कूटों में प्रथम कूट । हपु० ५.२२२ (४) महाबल के समय का एक पर्वत शिखरस्थ जिनचैत्यालय । यहाँ तीर्थङ्कर आदिनाथ के पूर्वभव के जीव महाबल ने संन्यास धारण किया था । मपु० ५.२२९, हपु० ६०.८३ सिद्धत्व - अष्ट कर्मों से रहित और सम्यक्त्व आदि अष्ट गुणों से सहित आत्मा का शुद्ध स्वरूप । वीवच० १९.२३४ सिद्धविद्या - एक स्वयंवर का नाम । विजयार्धं पर्वत की दक्षिणश्रेणी के चन्द्रपुर नगर के राजा महेन्द्र की पुत्री कनकमाला ने इसी स्वयंवर में माला पहनाकर हरिवाहन का वरण किया था। मपु० ७१.४०५४०६ सिद्धशासन- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १०८ सिद्धशिला नेमिनाथ के समय में राजगृहनगर की इस नाम की एक शिला । तीर्थङ्कर गिरिनार पर्वत पर भी इन्द्र द्वारा वज्र से उकेरकर ऐसी शिला निर्मित की गयी थी। ऐसी ही एक सम्मेदशिखर पर भी थी जिस पर तपस्या करके बीस तीर्थंकर मोक्ष गये । मपु० ५४.२६९२०२, हुपु० ६०,३६-२७, ६५.१४ सिद्धसंकल्प — सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १४५ सिद्धसाधन - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १४५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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