Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 444
________________ ४२६ : जैन पुराणकोश सप्तभूमि-समाकृष्टि न्नास्ति अवक्तव्य और स्यादस्ति-नास्ति अवक्तव्य । इन भंगों के द्वारा पदार्थों के अनैकान्तिक स्वरूप का समग्रष्टि से विवेचन होता है । मपु० ३३.१३५-१३६ सप्तभूमि-अधोलोक में स्थित सात नरकभूमियाँ। वे हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमः प्रभा। पपु० १०५.११०-११२ सप्तरत्न-नारायण को प्राप्त होनेवाले सात रत्ल । वे हैं--धनुष, शंख, चक्र, दण्ड, असि, शक्ति और गदा । पदमपुराण में इनके निम्न नाम दिए हैं-चक्र, छत्र, धनुष, शक्ति, गदा, मणि और खड्ग । मपु० ५७.९२, ६२.१४८, ७१.१२४, पपु० ९४.१०-११ सप्तर्षि-प्रभासपुर नगर के राजा श्रीनन्दन और रानी धरणी के इस नाम से विख्यात सात पुत्र । वे हैं-सुरमन्यु, श्रीमन्यु, श्रीनिचय, सर्वसुन्दर, जयवान्, विनयलालस और ज्यमित्र । प्रीतिकर महाराजा को केवलज्ञान होने पर देवों के आगमन से ये सातों भाई प्रतिबुद्ध हुए थे तथा पिता सहित सातों भाईयों ने दीक्षा ले लो थी । उत्तम तप के कारण ये ही सातों भाई 'सप्तर्षि' नाम से प्रसिद्ध हुए। मथुरा में चमरेन्द्र द्वारा फैलाई गई महामारी इन्हीं के प्रभाव से शान्त हुई थी। पपु० ९२.१-१४ सप्तसप्तमतप-एक प्रकार का तप । इसमें पहले दिन उपवास और इसके बाद एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए आठवें दिन सात ग्रास आहार लेने के पश्चात् इसके विपरीत एक-एक ग्रास घटाते हुए अन्तिम सोलहवें दिन उपवास किया जाता है । यह क्रिया इस तप में सात बार की जाती है । हपु० ३४.९१ सबल-दुर्योधन की सेना का एक योद्धा । यह चित्रांग द्वारा युद्ध में मारा गया था । पापु० १७.९०-९१ सभा-सत्ताईस सूत्रपदों में इक्कीसवाँ सूत्रपद । जो मुनि अपने इष्ट सेवक तथा भाई की सभा का परित्याग करता है वह अर्हन्त पद की प्राप्ति होने पर तीन लोक की सभा-समवसरण भूमि में विराजमान होता है । मपु० ३९.१६५, १९० समंजस-राजा का एक भेद । मध्यस्थ रहकर निष्पक्ष भाव से मित्र और शत्रु सभी को निरपराधी बनाने की इच्छा से सब पर समान दृष्टि रखनेवाला राजा । मपु० ४२.२००-२०१।। समंजसत्व-राजा का एक गुण । यह गुण जिस राजा में होता है वह दुष्ट पुरुषों का निग्रह और शिष्ट पुरुषों का अनुग्रह करता है। पक्षपात रहित होकर सबको समान मानता है। निग्रह करने योग्य शत्रु और मित्र दोनों का समान रूप से निग्रह करता है और इस प्रकार इष्ट और दुष्ट दोनों को निरपराधी बनाने की इच्छा करता है। मध्यस्थ रहना उसे इष्ट लगता है । मपु० ३८.२८१, ४२.१९८ २०१ समगिरि-राजा वसु के पूर्ववर्ती हरिवंशी चार राजाओं में एक राजा। मप०६७.४२० समाधी-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५० समचतुस्त्र संस्थान-नाम कर्म का एक भेद । इसी से सुन्दर शरीररचना होती है। इससे शरीर की लम्बाई-चौड़ाई और ऊँचाई हीनाधिक नहीं होती, समविभक्त होती है। चारों और से मनोहर, अंगोपांगों का समान विभाजन इसी से होता है । मपु० १५.३३, ३७.२८, हपु० ८.१७५ समतोया-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी । दिग्विजय के समय भरतेश की सेना यहाँ आयो थी। मपु० २९.६२ । समन्तभद्र-(१) आचार्य सिद्धसेन का उत्तरवर्ती एक आचार्य । ये जीवसिद्धि और युक्त्यनुशासन ग्रन्थों के रचयिता थे। देवागम स्तोत्र भी इन्हीं ने बनाया था। ये महान् कवि भी थे। मपु० १.४३-४४, हपु० १.२९, पापु० १.१५ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१६ समन्तानुपातिनी-साम्परायिक आस्रव की पच्चीस क्रियाओं में चौदहवीं दुष्क्रिया-स्त्री-पुरुषों और पशुओं के मिलने जुलने आदि के योग्य स्थान पर मल-मूत्रादि का छोड़ना । हपु० ५८.७१ समभिरूढ़नय-एक व्यक्ति अथवा वस्तु के लिए प्रयुक्त पर्यायवाची शब्दों के अर्थ भेद को स्वीकार करना । हपु० ५८.४८ सममूर्धाग्निनाद-सातवें नारायण दत्त के पिता । पपु० २०.२२४ समय-(१) यह कारणभूत कालाणुओं से उत्पन्न होता है। सर्व जघन्य गति से गमन करता हुआ परमाणु जितने समय में अपने पूर्व प्रदेश से उत्तरवर्ती प्रदेश पर पहुँचता है उतने काल को समय कहा है । यह अविभाज्य होता है । मपु० ३.१२, हपु० ७.११, १७-१८ (२) श्रावक की दीक्षा । यह शास्त्र के अनुसार गौत्र, जाति आदि __ के दूसरे नाम धारण करने के लिए दी जाती है । मपु० ३९५६ समसंज्ञ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तत वषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८४ समयसत्य-सत्य वचन के दस भेदों में एक भेद-द्रव्य तथा पर्याय के भेदों को यथार्थता को प्रकट करनेवाला तथा आगम के अर्थ का पोषण करनेवाला वचन । हपु० १०.१०७ समरय-समान शक्ति के धारक राजाओं की एक संज्ञा । हपु० ५०.८२ समवसरण-तीर्थंकरों की सभाभूमि । यहाँ सुर और असुर आदि आकर तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि का श्रवण करते हैं । यहाँ अन्य केवली आदि के उपदेश देने का स्थान भी होता है । महोदयमण्डप में श्रुतकेवली श्रुत का व्याख्यान करते हैं । इस मण्डप के आधे विस्तारवाले चार परिवार मण्डप यहाँ और होते हैं जिनमें कथा कहनेवाले आक्षेपिणी आदि कथाएँ कहते हैं । इन मण्डपों के समीप में अन्य ऐसे स्थान यहाँ बने होते हैं जहाँ केवलज्ञान आदि महाऋद्धियों के धारक ऋषि इच्छुक जनों के लिए उनकी इष्ट वस्तुओं का निरूपण करते है। यहाँ भव्यकूट नाम के ऐसे स्तूप भो होते है जिन्हें अभव्य नहीं देख पाते । मपु० ३३.७३, हपु० ७.१-१६१, ५७.८६-८९, १०४, पापु० २२.६०-६६, दे० आस्थानमण्डल समवायांग-द्वादशांग-श्रुत का चौथा अंग। इसमें एक लाख चौंसठ हजार पद है । मपु० ३४.१३८, हपु० २.९२, १०.३० समाकृष्टि-रावण का प्राप्त एक विद्या । पपु० ७.३२८ Jain Education Intemational Jain Education Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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