Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 450
________________ ४३२ : जैन पुराणकोश सर्वार्थसिद्धा एक विद्या । परमकल्याणरूप, मंत्रों से परिष्कृत, विद्याबल से युक्त और सभी का हित करनेवाली यह विद्या धरणेन्द्र ने नमि और विनमि विद्याधर को दी थी। हपु० २२.७०-७३ सर्वार्थसिद्धि - ( १ ) पाँच अनुत्तर विमानों में विद्यमान एक इन्द्रक विमान । यह अनुत्तर विमानों के बीच में होता है। इसकी पूर्व आदि चार दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार विमान स्थित हैं। यह नौ ग्रैवेयक विमानों के ऊपर रहता है । यहाँ देवों की ऊँचाई एक हाथ की होती है। वे प्रवीचार रहित होते हैं। यह विमान लोक के अन्त भाग से बारह योजन नीचा है। इसकी लम्बाई, पौड़ाई और गोलाई जम्बूद्वीप के बराबर है। यह स्वर्ग के सठ पटलों के अन्त में स्थित है। इस विमान में उत्पन्न होनेवाले जीवों के सब मनोरथ अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं। मपु० ११.११२-११४, ६१.१२. ९० १०५.१७०-१७१, ०४.६९, ६.५४, ६५ (२) एक पालकी । तीर्थंकर शान्तिनाथ इसी में बैठकर संयम धारने करने सहस्राम्र वन गये थे । मपु० ६३.४७० सर्वार्थसिद्धिस्तूप - समवसरण का एक स्तूप । इसकी चारों दिशाओं में विजय आदि विमानों की रचना होती है। हपु० ५७.१०२ सर्वावधिज्ञान - अवधिज्ञान के तीन भेदों में दूसरा भेद । यह परमावधिज्ञान होने के पूर्व होता है । ये ज्ञान देव प्रत्यक्ष होते हैं तथा पुद्गल द्रव्य को विषय करते हैं । मपु० ३६.१४७, हपु० १०.१५२ सर्वास्त्रच्छादन - एक विद्यास्त्र । विद्याधर चण्डवेग ने यह वसुदेव को दिया था । हपु० २५.४६-४९ सर्वाहा - भानुकर्ण को प्राप्त विद्याओं में एक विद्या । पपु० ७.३३३ सर्वोषधिऋद्धि - एक ऋद्धि । इस ऋद्धि के धारी मुनि के शरीर का स्पर्श कर बहती हुई वायु सब रोगों को हरनेवाली होती है । मपु० २.७१ सलिलात्मक सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२६ सल्लकी - भरतक्षेत्र का एक वन । मृदुमति मुनि मरकर माया कषाय के कारण इसी वन में त्रिलोककंटक हाथी हुआ था । मपु० ५९.१९७ दे० त्रिलोककण्टक सल्लेखना – (१) मृत्यु के कारण (रोगादि) उपस्थित होने पर बहिरंग में शरीर को और अन्तरंग में कषायों को कृश करना। गृहस्थधर्म का पालन करते हुए जो ऐसा मरण करता है वह देव होता है तथा स्वर्ग से च्युत होकर मनुष्य पर्याय पाता है । ऐसा जीव अधिक से अधिक आठ भवों में निर्ग्रन्थ होकर सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है । इसके तीन भेद हैं- भक्तप्रत्याख्यान ( भोजन-पान को घटाना ), इंगिनीमरण ( अपने शरीर की स्वयं सेवा करना ) और प्रायोपगमनस्वकृत और परकृत दोनों प्रकार के उपचारों की इच्छा नहीं करना । मपु० ५.२३३-२३४. पपु० १४.२०३-२०४, हपु० ५८.१६० (२) चार शिक्षाव्रतों में चौथा शिक्षाव्रत आयु का क्षय उपस्थित होने पर सल्लेखना धारण करना । पपु० १४.१९९ Jain Education International सर्वार्थसिद्धा-सहदेव सवर्णकारिणी - मंत्रों से परिष्कृत, परमकल्याणरूप एक विद्या । धरणेन्द्र ने यह विद्या नमि और विनमि को दी थी। हपु० २२.७१-७२ सवस्तुक—- तालगत गान्धर्व का एक प्रकार । हपु० १९.१५० ध्यान (१) पृथक्त्ववित वीचार प्रथमा को वितर्क कहते हैं और अर्थ, व्यंजन तथा योगों का संक्रमण वीचार कहलाता है । जिस ध्यान में वितर्क अर्थात् शास्त्र के पदों का पृथक्पृथक् रूप से वीचार होता रहे अर्थात् अर्थ, व्यंजन और योगों का पृथक्-पृथक् संक्रमण होता रहे अर्थ को छोड़कर व्यंजन का और व्यंजन को छोड़कर अर्थ का तथा इसी प्रकार मन, वचन और काय तीनों योगों का परिवर्तन होता रहे, उस ध्यान को पृथक्त्ववितर्क- वोचार प्रथम शुक्लध्यान कहते हैं । इस ध्यान में पृथक्त्व का अर्थ है - अनेक रूपता । इन्द्रियजयी मुनि एक अर्थ से दूसरे अर्थ को एक शब्द से दूसरे शब्द को और एक योग से दूसरे योग को प्राप्त होते हुए पृथक्त्ववितकवीचार नामक प्रथम कल्यान करता है। चूंकि तीनों योगों को धारण करनेवाले और चौदह पूर्वो के जाननेवाले मुनिराज ही इस ध्यान का चिन्तन करते हैं इसलिए ही पहला शुक्लध्यान सवितर्क और सवीचार कहा गया है। श्रुतस्कन्ध के शब्द और अर्थों का सम्पूर्ण विस्तार इसका ध्येय होता है। मोहनीय कर्म का क्षय अथवा उपशम इसके फल हैं। इसमें ध्याता के ग्रहण किये हुए पदार्थ को छोड़कर दूसरे पदार्थ का ध्यान करने लगने, एक शब्द से दूसरे शब्द को, एक योग से दूसरे योग को प्राप्त हो जाने से प्रथम शुक्लध्यान को सवितर्क और सवीचार भी कहा है । मपु० २१.१७०-१७६ सविपाक निर्जरा - निर्जरा का पहला भेद । संसारी प्राणियों की स्वभावतः होनेवाली कर्मनिर्जरा सविधाक निर्जरा कहलाती है। इस निर्जरा काल में नवीन बन्ध भी होता रहता है। वीवच० ११.८२ सहकारीकारण- कार्य में सहयोगी कारण । हपु० ७.१४ दे० कारण सहदेव - ( १ ) जरासन्ध के कालयवन आदि अनेक पुत्रों में एक पुत्र । यह जरासन्ध का दूसरा पुत्र था। कृष्ण ने इसे मगध का राजा बनाया था । इसको राजधानी राजगृह थी । हपु० ५२.३०, ५३.४४, पापु० २०.३५१-३५२ (२) पाँचवा पाण्डव । यह पाण्डु और उनकी दूसरी रानी माद्री का कनिष्ठ पुत्र था । नकुल इसका बड़ा भाई था । यह महारथी था । इसने धनुर्विद्या सीखी थी। महाभारत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् इसने अपने दूसरे भाइयों के साथ मुनि दीक्षा ली थी। दुर्योधन के भानजे कुर्यधर ने आतापन योग में स्थित इस पर भी उपसर्ग किया था । उसने अग्नि में तपाकर लोहे के आभूषण पहनाये थे । इसने घर के उपसर्ग को बारह भावनाओं का चिन्तन करते हुए शान्तिपूर्वक सहन किया था। अन्त में समतापूर्वक देह त्याग कर वह सर्वार्थसिद्धि के अनुसार विमान में अहमिन्द्र हुआ। दूसरे पूर्वभव में यह मित्र ब्राह्मणी तथा प्रथम पूर्वभव में अच्युत स्वर्ग में देव था । मपु० ७०.११४-११६, २६६-२७१, पु० ४५.२, ३८, ५० ७९-८०, पाए० ८.१७४०१७५, २१०-२१२, २३.८२, ११४, २४,७७, २५.१४, २०, ५६-१२३, १३८-१४० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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