Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 425
________________ श्यामा-श्रीकंठ जैन पुराणकोश : ४०७ (२) विजयाध पर्वत के निवासी विद्याधर पवनवेग की स्त्री । यह विद्याधर नमि की जननी थी। मपु० ७१.३६८-३६९ . श्यामा-(१) विजया पर्वत के कुंजरावर्त नगर के राजा विद्याधर अशनिवेग की पुत्री । यह वसुदेव से विवाही गयी थी। इसकी माँ सुप्रभा थी । अंगारक के द्वारा वसुदेव का हरण किये जाने पर इसने अंगारक से युद्ध किया था। इसमें अंगारक की पराजय हुई । फलस्वरूप अंगारक ने वसुदेव को मुक्त कर दिया था। हपु० १९.६८, ७५, ८३, १०१-१११ (२) एक लता । यह तपस्या काल में बाहबली के शरीर से लिपट गयी थी । पपु० ४.७६ श्यामाक-एक प्रकार का धान्य-समा । यह वृषभदेव के समय में उत्पन्न होने लगा था। मपु० ३.१८६ श्येनक-अयोध्या नगरी के राजा अनन्तवीर्य का कोतवाल । इसने रुद्र- दत्त ब्राह्मण की चोरी करते हुए पकड़ा था । मपु० ७०.१५४ भखा-आहारदाता के सात गुणों में एक गुण-पात्र के प्रति आदर-भाव । मपु० २०.८२-८३ दे० आहारविधि 'श्रद्धावान्-(१) हैमवत क्षेत्र के मध्य में स्थित वतुलाकार विजया पर्वत । यह मूल में एक हजार योजन, मध्य में सात सौ पचास और मस्तक पर पांच सौ योजन चौड़ा है तथा एक हजार योजन ऊँचा है। इसका दूसरा नाम नाभिगिरि है। हपु० ५.१६१-१६२ (२) पश्चिम विदेहक्षेत्र का एक वक्षारगिरि । मपु० ६३.२०३, हपु० ५.२३०-२३१ अमण-निर्ग्रन्थ-मुनि । ये प्राणियों के सतत हितैषी होते हैं । संसार के कारणों की संगति से दूर रहते हैं। ये स्वभाव से समुद्र के समान गम्भीर और निर्दोष-श्रम अथवा समता में प्रवर्त्तमान होते है । पपु० ६.२७२-२७४, १०९.९० अमणधर्म-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों, ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और व्युत्सर्ग इन पाँच समितियों, तीन गुप्तियों, चित्त और पाँच इन्द्रियों का निरोध, षडावश्यकों-समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग, तथा केशलोंच, अस्नान, एकभक्त, स्थिति भुक्ति (खड़े होकर आहार करना) अचेलता, भूशयन, दन्तमलमार्जन-वर्जन, तप, संयम, चारित्र, परीषहजय, अनुप्रेक्षा, धर्म और पंचाचार का पालन करना श्रमणधर्म है। इसका दूसरा नाम मुनि-धर्म या अनगार-धर्म कहा है। पपु० ६.२७२, २९३, हपु० २.११८-१३१ अमणसंघ-मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका इन चार का संध । मपु० २५.६ भवण-नक्षत्र । तीर्थङ्कर श्रेयांसनाथ तथा मुनिसुव्रतनाथ इसी नक्षत्र में __ जन्मे थे । पपु० २०.४७, ५६ प्रायसोक्ति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. २०१ श्रावक-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रतों का धारी गृहस्थ । उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से भी श्रावक तीन प्रकार के कहे हैं । इनमें पहली से छठी प्रतिमा के धारी जघन्य श्रावक, सातवीं से नौवीं प्रतिमा के धारी मध्यम और दसवीं एवं ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्तम श्रावक कहे गये हैं। समवसरण में श्रावकों का निश्चित स्थान होता है। श्रावक के व्रतों को मोक्षमहल की दूसरी सीढ़ी कहा है। दान, पूजा, तप और शील श्रावकों का बाह्य धर्म है । मपु० ३९.१४३-१५०, ६७.६९, हपु० ३.६३, १०.७-८, १२.७८ वीवच० १७.८२, १८.३६-३७, ६०-७० श्रावकाध्ययनांग-द्वादशांग श्रुत का सातवाँ अंग । इसका अपर नाम उपासकाध्ययनांग है । इसमें श्रावक के आचार का वर्णन है । इसकी पद-संख्या ग्यारह लाख सत्तर हजार है । हपु० २.९३, १०.३७ श्रावस्ती-जम्बद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र के काशी देश में स्थित नगरी। तीर्थङ्कर संभवनाथ का जन्म इसी नगरी में हुआ था। मपु० ४९. १४, १९-२०, पपु० ६.३१७, २०.३९, हपु० २८.५ श्रीअभिषेक--तीर्थङ्करों के गर्भावतरण के समय तीर्थङ्कर माता के द्वारा देखे गये सोलह स्वप्नों में चौथा स्वप्न-लक्ष्मी का अभिषेक । पपु० २१.१२-१४ श्री-(१) रुचकगिरि के रुचककूट की रहनेवाली दिक्कुमारी देवी । यह हाथ में चॅमर लेकर जिनमाता की सेवा करती है। मपु० ३. ११२-११३, १२.१६३-१६४, ३८.२२२, हपु० ५.७१६-७१७, ४४. ११, वीवच०७.१०५-१०८ (२) विजयाध पर्वत की उत्तरश्रेणी में स्थित गुजानगर के राजा सिंहविक्रम की रानी । यह केवली सकलभूषण की जननी थी। पपु० १०४.१०३-११७ (३) पद्मसरोवर के कमल पर बने भवन में रहनेवाली व्यन्तरेन्द्र को देवी । मपु० ३२.१२१, ६३.२००, हपु० ५.१२८-१३० (४) छः जिनमातृकाओं में एक मातृका देवी । यह प्रथम कुलाचल पर स्थित पद्म सरोवर के कमल पर रहती है । मपु० ३८.२२६ (५) त्रिशृंग नगर के राजा प्रचण्डवाहन और रानी विमलप्रभा की दस पुत्रियों में चौथी पुत्री। ये सभी बहिनें पहले युधिष्ठिर के लिए प्रदान की गई थी, किन्तु बाद में युधिष्ठिर के अन्यथा (मरण) समाचार सुनने पर ये अणुव्रत धारिणी श्राविकाएँ बन गयी थीं । हपु० ४५.९५-९९ (६) भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का एक पर्वत । दिग्विजय के समय भरतेश के सेनापति ने यहाँ के राजा को पराजित किया था। मपु० २९.९० श्रीकंठ-(१) विजयाध पर्वत को दक्षिणश्रेणी के मेघपुर नगर के वानर वंशी राजा विद्याधर अतीन्द्र तथा रानी श्रीमती का पुत्र । इसकी एक छोटी बहिन थी, जिसका नाम देवी था। बहनोई कीर्तिधवल ने इसे रहने के लिए वानरद्वीप दिया था। इसने किष्कु पर्वत पर चौदह योजन लम्बाई-चौड़ाई का किष्कुपुर नाम का नगर बसाया था। नन्दीश्वर द्वीप की यात्रा के लिए जाते हुए मानुषोत्तर पर्वत पर विमान की गति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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