Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 440
________________ ४९२ : जैन पुराणकोश 2 अपरनाम सुमंगला थी इनकी आयु सत्तर लाख पूर्व और ऊँचाई चार सौ धनुष थी । अठारह लाख पूर्व काल कुमार अवस्था में व्यतीत होने पर ये महामाण्डलिक हुए। इतना ही समय और बीतने पर इनके यहाँ चक्ररत्न प्रकट हुआ । हरिवंशपुराण के अनुसार इनकी कुल आयु बहत्तर लाख पूर्व थी, जिसमें पचास हज़ार लाख पूर्व का इनका कुमारकाल रहा, पच्चीस हजार वर्षं इनके मण्डलीक अवस्था में बीते दस हजार वर्ष दिग्विजय में तीन लाख नब्बे हजार राज्यकार्य में और पचास हजार वर्ष संयम ( मुनि) अवस्था में बीते थे । इनकी छियानवे हजार रानियाँ तथा साठ हजार पुत्र थे । पूर्वभव का मणिकेतु नामक एक देव इनका मित्र था। परस्पर के पूर्व निर्णयानु सार उसने स्वर्ग से आकर इन्हें बहुत समझाया किन्तु इन्हें वैराग्य नहीं जागा । अन्त में मणिकेतु ने इनके पुत्रों के मरण की इन्हें सूचना दो। इस सूचना से इन्हें वैराग्य का उदय हुआ। उन्होंने भगलि वेश के राजा सिंहविक की पुत्री विदर्भा के पुत्र भागीरथ को राज्य सौंप कर दृढ़धर्मा केवली के समीप दीक्षा ली तथा यथाविधि तपश्चरण कर सम्मेद शैल से परम पद प्राप्त किया । मपु० ४८.५७, ७११३७, पपु० ५.७४-७५, २४७-२८३ हपु० १३.२७-३०, ४९८५००, वीवच० १८.१०१, १०९-११० ( ३ ) भरतक्षेत्र को अयोध्या नगरी का राजा । प्रथम चक्रवर्ती भरतेश के पश्चात् इक्ष्वाकुवंश में असंख्य राजाओं के बाद दसवें चक्रवर्ती हरिषेण के मरणोपरान्त एक हजार वर्ष का समय व्यतीत हो जाने के बाद यह राजा हुआ था। इसने छलपूर्वक मधुपिंगल के असुर बनने के पश्चात् ब्राह्मण का रूप धारण कर हिंसामय यज्ञ करने का उपदेश दिया । इसे यज्ञ में होमे गये पशु स्वर्गं जाते हुए दिखाये गये थे । इस दृश्य से प्रभावित होकर इसने भी हिंसामय यज्ञ किया था में स्वर्ग का लोभ देकर इसकी रानी सुला को यज्ञ में होम दिया था। हिंसा का तीव्र अनुरागी होकर यह अन्त में वज्रपात से मरा और सातवें नरक में उत्पन्न हुआ । मपु० ६७.१५४-१६३, ३६३, ३७५-३७९ सचित्त - (१) हरा (ताजा अथवा सरस) द्रव्य । मपु० २०.१६५ (२) मन युक्त-संज्ञी जीव । पपु० १०५.१४८ सचित्तत्यागप्रतिमा - श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में पाँचवीं प्रतिमा । इस प्रतिमा का धारी जीव दया के लिए फल, अप्रासुक जल, बीज, पत्र आदि सचित्त वस्तुओं का त्याग कर देता है। वीवच० १८.६१ सचित्तनिक्षेप -- अतिथिसंविभाग व्रत के पाँच अतिचारों में प्रथम अतिया लेना सचित्त - निक्षेप - चार | हरे पत्तों पर रखकर आहार देना अतिचार कहलाता है । हपु० ५८. १८३ सचित समिधाहार उपभोगपरिमाणव्रत के पांच अतिचारों में तीसरा अतिचार | सचित्त से मिश्रित अचित्त वस्तुओं का सेवन करना सचित्तसन्मिश्राहार अतिचार कहलाता है । हपु० ५८. १८२ सचित- सम्बन्धाहार उपभोगपरिमाण के पाँच अतिचारों में दूसरा अतिचार | सचित्त वस्तुओं से सम्बन्ध रखने वाले आहारपान का सेवन करना सचित्तसम्बन्धाहार अतिचार कहलाता है । हपु० ५८. १८२ Jain Education International -- सवित सत्य - सचित्ताचित्तवस्तुत्याग-परिग्रहत्याग व्रत की पाँच भावनाएँ - पाँचों इन्द्रियों की विषयभूत सचित्त (चेतन) और अचित्त ( अचेतन ) वस्तुओं में आसक्ति का त्याग करना । मपु० २०. १६५ सचित्तावरण - अतिथि संविभागव्रत के पाँच अतिचारों में दूसरा अति-चार | हरे पत्तों आदि सचित्त वस्तुओं से ढककर आहार देना या लेना सचित्तावरण अतिचार कहलाता है । हपु० ५८.१८३ सचित्ताहार - उपभोगपरिमाणव्रत के पाँच अतिचारों में प्रथम अतिचारहरी वनस्पति आदि मचित्त वस्तुओं का आहार । हपु० ५८.१८२ सज्जातिक्रिया - परम निर्वाण के सात स्थानों में प्रथम स्थान और भव्य प्राणी के ही होने योग्य कर्त्रन्वय क्रियाओं में कल्याणकारिणी प्रथम क्रिया-संस्कार | पिता के वंश की शुद्धि कुल और माता के वंश की शुद्धि जाति है तथा कुल और जाति दोनों की शुद्धि सजाति कहलाती है । यह शुभकृत्य करने से प्राप्त होती है। इष्ट पदार्थों की सिद्धि इसका फल है । मपु० ३८.६७, ३९.८१-८६ सत् - ( १ ) सत् आदि आठ अनुयोगद्वारों में प्रथम अनुयोग द्वार। इसके द्वारा जीवादि द्रव्यों का निरूपण किया जाता है । हपु० २.१०८ (२) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त द्रव्य । हपु० २.१०८ सत्कारपुरस्कारपरीषहजय - एक परीषह। इसमें पूजा, प्रशंसा, आमन्त्रण आदर आदि के न होने पर हृदय में कुविचारों को स्थान नहीं रहता । सत्कार और पुरस्कार के होने अथवा नहीं होने में हर्ष - विषाद नहीं किया जाता है । मपु० ३६.१२६ सत्कीति -- दूसरे बलभद्र विजय के गुरु । पपु० २०.२४६ सत्पुरुष - किन्नर आदि व्यन्तर देवों के सोलह इन्द्रों में तीसरा इन्द्र । वीवच० १४.५९ इसको रानी विजया सत्यंधर - हेमांगद देश के राजपुर नगर का राजा। और मंत्री काष्ठांगारिक था। इसके पुरोहित ने राजपुत्र को मन्त्री का हन्ता बताया था, जिससे मंत्री ने कुपित होकर इसे मार डाला था और स्वयं इसके राज्य का स्वामी हो गया था। इसने रानी को गुप्त रूप से यंत्र में बैठाकर महल से बाहर भेज दिया था । यंत्र उड़कर नगर के बाहर श्मशान में नोचे उतरा। रानी ने यहाँ एक पुत्र को जन्म दिया । पुत्र का नाम जीवंधर रखा गया था। इस राजा की भामारति और अनंगपताका दो छोटी रानियां और थीं। इन रानियों से क्रमश: मधुर और वकुल दो पुत्र हुए थे । अन्त में इसके पुत्र जीवन्धर ने मंत्री काष्ठांगारिक को मारकर अपना राज्य प्राप्त कर लिया था । मपु० ७५.१८८-१९०, २१४-२२९, २४३, २५४-२५५, ६६६-६७१ For Private & Personal Use Only सत्य - ( १ ) विद्यमान या अविद्यमान वस्तु का निरूपण करनेवाला प्राणि हितैषी वचन । ये वचन दस प्रकार के होते हैं - १. नाम सत्य २. रूपसत्य ३ स्थापना सत्य ४ प्रतीत्यसत्य ५. संवृतिसत्य ६.. संयोजनासत्य ७. जनपदसत्य ८ देशसत्य ९. भावसत्य और १०. समयसत्य । हपु० १०.९८ - १०७, १२० (२) उत्तम क्षमा आदि रूप में कहे गये दस धर्मों में एक धर्म www.jainelibrary.org

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