Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 417
________________ शशरोम - शातकुम्भविधि मति का जीव स्वर्ग से चयकर माया- शल्य के कारण इसी अटवी में त्रिलोककंटक नाम का हाथी हुआ था । पपु० ८५.१४७-१६३ शशरोम - दुर्योधन का मित्र । इसने मध्यस्थ बनकर कौरव और पाण्डवों का बटवारा कराया था। हपु० ४५-४०-४१ शशांक- (१) आगामी ग्यारहवें तीर्थंकर का जीव । मपु० ७६.४७३ (२) भरतक्षेत्र का एक नगर । यहाँ का राजा नन्दिवर्धन था । पपु० ८५.१३३ (३) राजा अभिचन्द्र का पुत्र । हपु० ४८.५२ शशांकपाद - भरतक्षेत्र का एक राजा । शरीर से निस्पृह रहते हुए इसने भरत के साथ महाव्रत धारण कर लिए थे। आयु के अन्त में यह परमपद को प्राप्त हुआ । पपु० ८८.१-९ शशांक मुख - एक मुनि। मृदुमति चोर इन्हीं मुनि के पास दीक्षित हुआ हुआ था । पपु० ८५.१३३-१३७ शशांकांक - कुरुवंशी एक राजा । यह शान्तिचन्द्र का पुत्र और राजा कुरु का पिता था। हपु० ४५.१९ शशांका - वैश्रवण का एक अर्धचन्द्र बाण । वैश्रवण ने इस बाण से दशानन का धनुष तोड़ा था और उसे रथ से च्युत कर दिया था । पपु० ८.२३६ शशांकास्य - विद्याधर वंश का राजा । यह विद्याधर सिंहकेतु का पुत्र तथा चन्द्र का पिता था। पपु० ५.५० शशिकान्ता - एक आर्यिका । मन्दोदरी और चन्द्रनखा इन्हीं से दीक्षा लेकर आर्यिकाएं हुई । १५०७८.९४-९५ शशिचूला - पौण्डरीकपुर के राजा वज्रजंघ और उनकी रानी लक्ष्मी की पुत्री । राजा वज्रजंघ ने इसे अन्य बत्तीस कन्याओं के साथ कुमार लवणांकुश को देने का निश्चय किया था। पपु० १०१.२, २४ शशिच्छाय - एक नगर । लक्ष्मण ने इस नगर को अपने अधीन किया था । पपु० ९४.७ शशिपुर - विदेहक्षेत्र के विजयार्ध पर्वत पर स्थित एक नगर । रत्नमाली यहाँ का राजा था । पपु० ३१.३४-३५ शशिप्रभ (१) भरतक्षेत्र के विजयार्थ पर्वत की उत्तरभंगी का सातवाँ नगर । हरिवंशपुराण के अनुसार यह चौवनवाँ नगर है । मपु० १९. ७८, हपु० २२.९१ (२) राजा जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३९ (३) राजा वसुदेव और सोमदत्त की पुत्री का कनिष्ठ पुत्र । यह चन्द्रकान्त का छोटा भाई था । ह्पु० ४८.६० (४) पुण्डरीकिणी नगरी का राजा । यह मघवा चक्रवर्ती के पूर्व - भव का जीव था । मपु० २०.१३१-९३३ शशिप्रभा - विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का सातवाँ नगर । मपु० १९.७८ शशिमण्डल- राम के पक्ष का एक योद्धा । इसके दुःसह युद्ध करने पर भानुकर्ण ने इसे निद्रा-विद्या के द्वारा सुला दिया था । पपु० ६०.५७६० शशिस्थानपुर - विद्याधरों का एक नगर यहाँ का राजा अपने मन्त्र Jain Education International ३९९ सहित रावण की सहायतार्थ उसके पास आया था । पपु० ९५.८७-८८ शशी (१) सूर्यवंशी राजा। यह रवितेज का पुत्र और प्रभूततेज का पिता था। पपु० ५.४- १०, हपु० १३.९ (२) राजा अभिचन्द्र का पुत्र । हपु० ४८.५२ शष्प - भरतक्षेत्र का एक सरोवर । राजा वज्रजंघ की सेना ने यहाँ विश्राम किया था। मपु० ८.१५०-१५४ शांडिल्य - (१) गुरु प्रोव्य का शिष्य सरकदम्बक, सैन्य, उर्दन और प्रावृत इसके गुरु भाई थे। महाकाल देव ने इसका रूप धारण करके पर्वत के नेतृत्व में रोग फैलाकर उनकी उसने पर्वत के द्वारा शान्ति करायी थी। राजा सगर भी पर्वत के पास निरोग हो गया था । इसने अश्यमेव अजमेध, गोमेव और राजसूय यज्ञों को चालू किया था। अपने चातुर्य से इसने सगर और सुलसा को भी यज्ञ में होम दिया था । पु० २३.१३४-१४६ (२) एक तापस । अयोध्या के राजा सहस्रबाहु इसके बहनोई तथा चित्रमती इसकी बहिन थी । परशुराम को सहस्रबाहु की समस्त सन्तान नष्ट करने में उद्यत देखकर इसने गर्भवती चित्रमती को अज्ञात रूप से ले जाकर सुबन्धु मुनि के पास रखा था। सुभौम चक्रवर्ती यहीं जन्मा था । अपने भानेज का सुभौम नाम इसी ने रखा था । मपु० ६५.५६-५७. ११५-१२५ (३) मगध देश के राजगृह नगर का एक वेदों का जानने वाला ब्राह्मण । पारशरी इसकी स्त्री थी। इसके पुत्र का नाम स्थावर था। म०७४.८२-८३, बीवच० ३.२०३ शाक - नेमिकुमार का शंख । जरासन्ध से युद्ध करने के पूर्व उन्होंने इसी शंख को फूंककर सेना का उत्साह बढ़ाया था। हपु० ५१.२०-२१ शाखामृग - एक वानरद्वीप । यह लवणसमुद्र के मध्य पश्चिमोत्तर भाग में तीन सौ योजन विस्तृत है । पपु० ६.७०-७१ शाखावली -- ऋक्षरज और सूर्यरज विद्याधरों का वंश-परम्परागत सेवक । यह रणदक्ष और उसकी स्त्री सुश्रोणी का पुत्र था । पपु० ८.४५६४५७ शातंकर - आनत स्वर्ग का विमान । नन्दयशा निदानपूर्वक मरकर इसी विमान में उत्पन्न हुई थी । मपु० ७०.१९४-१९६ शातकुम्भनिभप्रभ - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९९ शातकुम्भविधि - एक व्रत। इस व्रत के तीन भेद हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य । जिसमें पाँच से एक तक संख्या लिखने के पश्चात् पाँच को छोड़कर चार से एक तक तीन बार संख्या लिखकर संख्याओं के योग के अनुसार उपवास और जितनी बार उपवास सूचक अंकों में परिवर्तन हो उतनी पारणाएं करना ववन्य घातकुम्भतविधि है। इसमें पैंतालीस उपवास और सत्रह पारणाएँ की जाती हैं। मध्यम शातकुम्भविधि में नौ से एक तक तथा आठ से एक तक तीन बार अंक लिखे जाते हैं । इसी प्रकार उत्तम शातकुम्भविधि में सोलह अंकों को सोलह से घटते क्रम में एक तक और पश्चात् तीन बार पन्द्रह से एक अंक तक का प्रस्तार बनाया जाता है। मध्यमव्रत में एक सौ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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