Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 422
________________ ४०४ : जेन पुराणकोश शीतयोग-शीला हुआ था। जन्म के पूर्व पल्य के चौथाई भाग तक धर्म-कर्म का विच्छेद रहा । इनके शरीर की कान्ति स्वर्ण के समान थी। आयु एक लाख पूर्व और शरीर नब्बे धनुष ऊँचा थी। आयु का चतुर्थ भाग प्रमाण कुमारकाल व्यतीत होने पर इन्हें पिता का पद प्राप्त हुआ था। भोगभोगते हुए आयु का चतुर्थ भाग शेष रह जाने पर आच्छादित हिमपटल को क्षण में विलीन होते देखकर ये विरक्त हुए। राज्य पुत्र को देकर इनके दीक्षित होने के भाव हुए। लौकान्तिक देवों ने उनके दीक्षा लेने के भावों की संस्तुति की। इसके पश्चात् ये शुक्रप्रभाशिविका में बैठकर सहेतुक वन गये । वहाँ माघ कृष्ण द्वादशी के दिन सायं वेला और पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में दो उपवास का नियम लेकर ये एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए। अरिष्टपुर के पुनर्वसु राजा ने नवधाभक्ति पूर्वक इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । तीन वर्ष तक ये छद्मस्थ अवस्था में रहे। इन्हें पौष कृष्ण चतुर्दशी के दिन पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में केवलज्ञान हुआ। इनकी समवसरण सभा में इक्यासी गणधर, चौदह सौ पूर्वधारी, उनसठ हजार दो सौ शिक्षक, सात हजार दो सौ अवधिज्ञानी, सात हजार केवलज्ञानी, बारह हजार विक्रिया धारी, सात हजार पाँच सौ मनः पर्ययज्ञानी कुल एक लाख मुनि, धारण आदि तीन लाख अस्सी हजार आयिकाएं, दो लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियां और संख्यात तिर्यञ्च थे । बिहार करते हुए सम्मेद-शिखर आकर इन्होंने एक मास का योग निरोध करके प्रतिमायोग धारण किया। इन्होंने एक हजार मुनियों के साथ आश्विन शुक्ल अष्टमी के दिन सायं वेला और पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में मुक्ति प्राप्त की । दूसर पूर्वभव में ये विदेहक्षेत्र में वत्स देश की सुसीमा नगरी के पद्मगुल्म नाम के पुत्र और पहले पूर्वभव में आरणेन्द्र थे। मपु० २.१३०-१३४, ५६.२-३, १८.२३-५९, पपु० ५.२१४, २०.३१-३५, ४६, ६१-६८, ८४, ११३, ११९, हपु० १.१२, १३.३२, ६०.१५६-१९१, ३४१-३४९, वीवच० १८. १०१-१०६ शीतयोग-एक प्रकार का पेय (शर्बत ) । पपु० २४.५४ शीतवैताली-रूप परिवर्तन करनेवाली विद्या। एक विद्याधर ने इसी विद्या से श्रीपाल को वृद्ध बनाकर उसे विजयार्घ पर्वत की उत्तरश्रेणी के मनोहर नगर के श्मसान में छोड़ा था । मपु० ४७.५२-५४ शीता-(१) रुचकगिरि के पश्चिम दिशावर्ती सातवें यशः कूट की रहनेवाली देवी । हपु० ५.७१४ (२) राजा अन्धकवृष्टि और रानी सुभद्रा के पांचवें पुत्र अचल की रानी । मपु० ७०.९५-९८ शोरवती-विजया, पर्वत की दक्षिणश्रेणी के गांधार देश की एक नगरी । रतिवर कबूतर इसी नगरी के राजा आदित्यगति विद्याधर का हिरण्यवर्म नामक पुत्र हुआ था । पापु० ३.२१०-२११ शीरायुध-बलभद्र का अपर नाम । हपु० ३५.३९ शीरी-बलदेव का अपर नाम । हपु०४२.९७ शीर्षकयष्टि-एक प्रकार का हार । इस हार के बीच में एक स्थूल मोती होता है। मपु० १६.५२ शील-(१) राम का एक योद्धा । पपु० ५८.१२ (२) गृहस्थ धर्म । गृहस्थों में चार धर्म बताये गये हैं-दान, पूजा, शील और पर्व के दिनों में उपवास करना । पाण्डवपुराणकार ने इनमें शील और दान के साथ दो नये नाम बताये हैं-तप और शुभ भावना। इनमें दया, व्रतों की रक्षा, ब्रह्मचर्य का पालन और सद्गुणों का पालन करना शील कहलाता है। इसके पालने से स्वर्ग के सुख प्राप्त होते हैं। मपु० ५.२२, ४१.१०४, ६८.४८५-४८६, पापु० १.१२३-१२४ शीलकल्याणक-एक व्रत । मनुष्यणी, देवांगना, अचित्ता (चित्रस्था) और तिर्यञ्चणी इन चार प्रकार की स्त्रियों का पाँचों इन्द्रियों और मन, वचन, काय तथा कृत, कारित-अनुमोदना रूप नौ कोटियों से किया गया एक सौ अस्सी (४४५-२०४९-१८० ) प्रकार का त्याग ब्रह्मचर्य-महाव्रत है। इस व्रत में इस प्रकार एक सौ अस्सी उपवास और इतनी ही पारणाएं की जाती है। इसमें क्रमशः एक उपवास और एक पारणा करनी चाहिए । हपु० ३४.१०३, ११२ शीलगुप्त-(१) जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र के एक मुनि । राजा जयकुमार तथा एक नागयुगल ने इन्हीं मुनि से धर्मश्रवण किया था । मपु० ४३. ८८-९०, पापु० ३.५-६ (२) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा प्रजापाल के दीक्षागुरु । मपु० ४६.१९-२०, ४८ (३) राजपुर नगर के मनोहर उद्यान में स्थित अवधिज्ञानी मुनि । इन्होंने ही राजपुर नगर के गन्धोत्कट सेठ को उसके एक पुण्यात्मा पुत्र होना बताया था। मपु० ७५.१९८-२०४ शीलवत्त-एक मुनि । भरतक्षेत्र के अवन्ति देश में उज्जयिनी नगरी के धनदेव सेठ ने इनसे श्रावक के ब्रत ग्रहण किये थे। मपु० ७५.१००, १३८ शोलनगर-भरतक्षेत्र के हरिवर्ष देश का एक नगर । राजा वज्रघोष इस नगर का स्वामी और विद्युन्माला राजकुमारी थी। पापु० ७.११८, १२३-१२४ शीलवती-कौशल देश में स्थित साकेतनगर के राजा वज्रसेन की रानो । यह हरिषेण की जननी थी। मपु० ७४.२३१-२३२, वीवच० ४.१२१-१२३ शोलवत-तीन गुण व्रत और चार शिक्षाव्रत । हपु० ४५.८६, ५८.१६३ शीलवतेष्वनतिचार-तीर्थङ्कर प्रकृति में कारणभूत सोलह कारण-भावनाओं में तीसरी भावना । शीलव्रतों को निरतिचार धारण करना शोलवतेष्वनतिचार-भावना कहलाती है। मपु० ६३.३२२, हपु. ३४.१३४ शीलसागर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०५ शोला-(१) रावण की रानी । पपु० ७७.१३ (२) व्याघ्रपुर नगर के राजा सुकान्त की पुत्री और सिंहेन्दु की बहिन । श्रीवधित ब्राह्मण ने इसका अपहरण किया था। पूर्वभव में इसे कोढ़ हो गया था। इसने भद्राचार्य के समीप अणुव्रत धारण किये Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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