Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
View full book text
________________
३३०: जैन पुराणकोश
रुचका-गायत्त
वारुणी
४. कांचन ५. रजत
आशा
रुचका
७. रुचक
८. सुदर्शन इनके अतिरिक्त चारों दिशाओं और विदिशाओं में एक-एक कूट और है । उनके नाम हैविशा
देवी जो वहाँ रहती है १. पूर्व विमल
चित्रा २. पश्चिम स्वयंप्रभ त्रिशिरस् ३. उत्तर नित्योद्योत सूत्रामणि ४. दक्षिण नित्यालोक कनकचित्रा ५. ऐशान वैडूर्य ६. आग्नेय रुचक
रुचकोज्ज्वला ७. नैऋत्य मणिप्रभ रुचकाभा ८. वायव्य रुचकोत्तम रुचकप्रभा विदिशाओं में निम्न चार कूट और हैदिशा-नाम कूट-नाम
देवी-नाम . ऐशान
रत्नकूट
विजयादेवी आग्नेय
रत्नप्रभकूट वैजयन्ती देवी नैऋत्य
सर्वरत्नकूट जयन्ती देवी वायव्य
रत्नोच्चयकूट अपराजिता देवी इस पर्वत के ऊपर चारों ओर एक-एक जिनमन्दिर है। इन मन्दिरों
के प्रवेशद्वार पूर्व की ओर हैं । हपु० ५.६९९-७२८ रुचका-रुचकवर-पर्वत की पूर्वोत्तर-ऐशान-विदिशा में स्थित वैडर्य
कूट की दिक्कुमारी देवियों की प्रधान देवी । हपु० ५.७२२ दे० रुचकवर रुचकाभा-रुचकवर-पर्वत की दक्षिण-पश्चिम नैऋत्य विदिशा में स्थित
मणिप्रभकूट की प्रधान दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.७२३ दे० रुचकवर रुचकालय-दिशाओं और विदिशाओं में रहनेवाली देवियों के निवास
कूटों तथा जिनमन्दिरों से विभूषित रुचकगिरि । हपु० ५.७२९ दे०
रुचकवर-२ रुचकोज्ज्वला-रुचकवर-पर्वत की दक्षिणपूर्व-आग्नेय दिशावर्ती रुचककट
की प्रधान दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.७२२ दे० रुचकवर रुचकोत्तम-रुचकवर पर्वत की पश्चिमोत्तर वायव्य विदिशा में स्थित
एक कट । यहाँ रुचकप्रभा प्रधान दिक्कुमारी-देवी रहती है। हपु०
५.७२३ दे० रुचकबर रुषकोत्तर-रुचकवर-पर्वत के दक्षिण दिशावर्ती आठ कूटों में छठा कट । यहाँ कीर्तिमतो-दिक्कुमारी-देवी रहती हैं। हपु० ५.७०९-७१० दे० रुचकवर
रुचि-सम्यग्दर्शन की चार पर्यायों-श्रद्धा, रुचि, स्पर्श और प्रत्यय में दूसरी
पर्याय का नाम । मपु० ९.१२३ रुचिर-सौधर्म और ऐशान स्वर्गों का सोलहवां पटल एवं इन्द्रक । हपु०
६.४६ दे० सौधर्म रुदिर-जरासन्ध का पक्षधर एक नृप । कृष्ण से युद्ध करने के लिए ___ जरासन्ध इसे भी अपने साथ ले गया था। मपु० ७१.७८-८० रुख-(१) जम्बूद्वीप के सुकौशल देश की अयोध्या नगरी का राजा । इसकी रानी का नाम विनयश्री था । मपु० ७१.४१६
(२) तीसरा नारद । हपु० ६०.५४८
(३) रौद्र कार्य करनेवाले होने से इस नाम से प्रसिद्ध । ये दस पूर्व के पाठी होते हैं । असंयमी होने से ये नरक में जन्म लेते हैं । ये ग्यारह होते हैं। इनमें भीमावली वृषभदेव के तीर्थ में हुआ। इसी प्रकार अजितनाथ के तीर्थ में जितशत्रु, पुष्पदन्त के तीर्थ में रुद्र , शीतलनाथ के तीर्थ में विश्वानल, श्रेयांसनाथ के तीर्थ में सुप्रतिष्ठक, वासुपूज्य के तीर्थ में अचल, विमलनाथ के तीर्थ में पुण्डरीक, अनन्तनाथ के तीर्थ में अजितन्धर, धर्मनाथ के तीर्थ में अजितनाभि, शान्तिनाथ के तीर्थ में पीठ तथा महावीर के तीर्थ में सत्यकि पुत्र । इनकी ऊँचाई क्रमशः पाँच सौ धनुष, साढ़े चार सौ धनुष, सौ धनुष, नब्बे धनुष, अस्सी धनुष, सत्तर धनुष, साठ धनुष, पचास धनुष, अट्ठाईस धनुष, चौबीस धनुष और सात धनुष होती है । इनकी आयु क्रमशः तेरासी लाख पूर्व, इकहत्तर लाख पूर्व, दो लाख पूर्व, एक लाख पूर्व, चौरासी लाख पूर्व, साठ लाख पूर्व, पचास लाख पूर्व और उनहत्तर वर्ष की होती है। मरकर प्रारम्भ के दो रुद्र सातवें नरक में, पाँच छठे नरक में, एक पाँचवें नरक में, दो चौथे नरक में और अन्तिम तीसरे नरक में जन्म लेता है । आगे उत्सर्पिणी काल में भी ग्यारह रुद्र होंगे। वे सब भव्य होंगे और कुछ भवों में मोक्ष प्राप्त करेंगे। उनके नाम निम्न प्रकार होंगे-प्रमद, सम्मद, हर्ष, प्रकाम, कामद, भव, हर, मनोभव, मार, काम और अंगज । हपु० ६०.५३४-५४१, ५४६-५४७, ५७१५७२
(४) तीसरा रुद्र । हपु० ६०.५३४-५३६ दे० रुद्र-३ रुखवत्त-(१) वृषभदेव के तीर्थ में अयोध्या के राजा रत्नवीर्य के राज्य में हुए सेठ सुरेन्द्रदत्त का मित्र एक ब्राह्मण । सेठ इसे पूजा के लिए उपयुक्त धन देकर बाहर चला गया था। इसने जुआ और वेश्यावृत्ति में समस्त धन व्यय कर दिया और चोरो करने लगा। अन्त में यह सेनापति श्रेणिक के द्वारा मारा गया और सातवें नरक में उत्पन्न हुआ । मपु० ७०.१४७, १५१.१६१, हपु० १८.९७-१०१
(२) हेमांगद-देश में राजपुर नगर के राजा सत्यन्धर का पुरोहित । यह मंत्री कष्ठांगारिक को राजा के मार डालने की सलाह देने के फलस्वरूप तीन दिन बाद ही बीमार होकर मर गया था तथा मरकर नरक में उत्पन्न हुआ। मपु० ७५.२०७-२१६
(३) चारुदत्त का वहु व्यसनी चाचा। चारुदत्त को व्यसनी इसी ने बनाया था। हपु० २१.४०
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org