Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 352
________________ ३३४ : जैन पुराणकोश लक्षमण-लक्ष्मणा को सौंपकर अपने हाथ से उसका पट्ट बाँधा था। इनकी पृथिवीसुन्दरी आदि रानियों ने श्रुतवती आयिका से दीक्षा ले ली थी। ये पंकप्रभा से निकलकर क्रम-क्रम से संयम धारण कर मोक्ष प्राप्त करेंगे। पद्मपुराण के अनुसार ये अयोध्या के राजा दशरथ और उनकी रानी कैकेयी के पुत्र थे । इनके बड़े भाई का नाम पद्म था। भरत और शत्रुघ्न इनके छोटे भाई थे । इन्हें सर्वशास्त्र विषयक ज्ञान इनके गुरु हरि से प्राप्त हुआ था । जनक के यज्ञ की सुरक्षा के लिए ये पद्म के साथ मिथिला गये थे। इनके इस कौशल को देखकर विद्याधर चन्द्रवर्धन ने इन्हें बुद्धिमती आदि अठारह कन्याएं दी थीं। पद्म के साथ ये भी बन गये थे । वनवास के समय इन्होंने उज्जयिनी के राजा सिंहोदर को परास्त किया और वनकर्ण की उस सिंहोदर नामक राजा से मित्रता कराई थी। इस पर वज्रकर्ण ने इन्हें अपनी पुत्रियाँ विवाही थीं । सिंहोदर ने भी इन्हें कन्याएँ दी थीं। इन्हें यहाँ कुल तीन सौ कन्याएँ प्राप्त हुई थीं। इन्होंने विध्यचल में म्लेच्छराज रौद्रभूति को परास्त किया था। वेजन्तपुर के राजा पृथिवीधर की पुत्री वनमाला को इन्होंने आत्मघात से बचाया था और उसे अपनाया था । अतिवीर्य के पुत्र विजयरथ ने अपनी बहिन रतिमाला इन्हें दी थी। वंशस्थल-पर्वत पर इन्हें सूर्य हास-खड्ग मिला। इससे इन्होंने शम्बक को और पिता खरदूषण को मारा था। बन में वेलन्धर नगर के राजा समुद्र-विद्याधर ने इन्हें अपनी चार कन्याएँ दी थीं। महालोचन-गरुडेन्द्र ने गरुड़वाहिनी-विद्या दी थी। सुग्रीव ने इनकी और इनके भाई राम की पूजा की थी। इन्होंने कोटिशिला को अपनी भुजाओं से ऊपर उठाया था। पद्म-रावण युद्ध में इन्द्रजित् के महातामस अस्त्र को इन्होंने सूर्यास्त्र से तथा नागास्त्र को गरुडास्त्र से दूर कर दिया था । इन्द्रजित् ने इन्हें रथ रहित भी किया। उसने तामशास्त्र छोड़कर अन्धकार में रावण को छिपा लिया किन्तु इन्होंने सूर्यास्त्र छोड़कर इन्द्रजित् का मनोरथ पूर्ण नहीं होने दिया। इनके नागवाणों से आहत होकर वह पृथिवी पर गिर गया था। रावण द्वारा विभीषण पर चलाये गये शूल को इन्होंने वाणों से ही नष्ट कर दिया था। इस पर कुपित होकर रावण ने इन पर शक्ति-प्रहार किया। उससे आहत होकर ये मूच्छित हो गये । देवगीतपुर के निवासी चन्द्रप्रतिम के यह बताने पर कि द्रोणमेघ की पुत्री विशल्या के आते ही लक्ष्मण की मूर्छा दूर हो जायगी । पदम ने भामण्डल के द्वारा विशल्या को वहाँ बुलाया । वह आई और लक्ष्मण की मूर्छा दूर हुई। युद्ध पुनः आरम्भ हुआ। इन्होंने सिद्धार्थ अस्त्र से रावण के सभी अस्त्र विफल कर दिये । रावण ने बहुरूपिणी विद्या का प्रयोग किया । इन्होंने उसे भी नष्ट किया । अन्त में रावण ने इन्हें मारने के लिए चक्र का प्रहार किया। चक्र इनकी प्रदीक्षणा देकर इनके हाथ में आ गया और स्थिर हो गया । इसी चक्र के प्रहार से इन्होंने रावण को मारा । इसके पश्चात् विभीषण के निवेदन पर ये भी राम के साथ लंका में छः वर्ष रहे । लंका से लौटते समय अनेक राजाओं को जीता । विद्याघर भी इनके आधीन हुए । समस्त पृथिवी पर इनका स्वामित्व हुआ। इसी समय ये नारायण पद को प्राप्त हुए। चक्र, छत्र, धनुष, शक्ति, गदा, मणि और खड्ग ये सात रत्न भी इन्हें इसी समय प्राप्त हुए। इनकी सत्रह हजार रानियां थीं । इनके कुल अढ़ाई सौ पुत्र थे । राम के द्वारा किये गये सीता के परित्याग को इन्होंने उचित नहीं समझा । परन्तु राम के आगे ये कुछ नहीं कह सके। परिचय के अभाव में अज्ञात अवस्था में इन्हें लवणांकुश और मदनांकुश से भी युद्ध करना पड़ा पर यह विदित होते ही कि वे राम के ही पुत्र है, इन्होंने युद्ध छोड़कर उन दोनों का स्नेह से आलिंगन किया था। रत्नचूल और मृगचूल देवों के द्वारा राम के प्रति इनके स्नेह की परीक्षा के समय राम का कृत्रिम मरण दिखाये जाने से इनकी मुत्यु हुई। मरकर ये बालुकाप्रभा भूमि में उत्पन्न हुए । सीता के जीव ने स्वर्ग से इस भूमि में जाकर इन्हें सम्बोधा तथा सम्यक्दर्शन प्राप्त कराया। ये तीर्थकर होकर आगे निर्वाण प्राप्त करेंगे । पाँचवें पूर्वभव में ये वसुदत्त और चौथे पूर्वभव में श्रीभूति ब्राह्मण, तीसरे में देव, दूसरे में विद्याधर पुनर्वसु और प्रथम पूर्वभव में सनत्कुमार स्वर्ग में देव थे। मपु० ६७.१४८-१५५, १६४-१६५, ६८.३०-३८, ४७-४८, ७७-८३, ११०-११४, १७८-१८२, २६४-२६८, ४६४-४७२. ५०२, ५२१५२२, ५४५-५४६, ६१८-६३४, ६४३-६९०, ७०१-७०४, ७१२, ७२२, पपु० २२.१७३-१७५, २५.२३-५८, २७.७८-८३, २८.२४७२५०, ३१.१९५-२०१, ३३.७४, १८५-२००, २४१-२४३, ३०७३१३, ३४.७१-७८, ३५.२२-२७, ३६.१०-४९, ७३, ३७.१३९. १४७, ३८.१-३, ६०-१४१, ३९.७१-७३, ४३.४०-१११, ४४.४८१०३, ४५.१-३८, ४७.१२८, ४८.२१४, ५४.६५-६९, ६०.१२८१३५, १४०, ६२.३३-३४, ५७-६५, ७१-८४, ६३.१-३, २५, ६४. २४-४६, ६५.१-६, ३१-३८, ८०, ७४.९१-११४, ७५.२२-६०, ७६.३२-३३, ८०, १२३, ८३.३६, ९४.१-३५, ४०, ९७.७-१२, २६, ५०-५१, १०३.१६-५६, १०५.२६३, ११०.१-९५, ११५.२१५, १०६.५-४४, १७५, २०५-२०६, ११८.२९-३०, १०६, १२३, १२३.१-५३, ११२-१३३, हपु० ५३.३८, ६०.५३१, वीवच० १८.१०१, ११३ लक्ष्मणसेन-एक आचार्य । ये अर्हत् मुनि के शिष्य तथा पद्मपुराणकार रविषेण के गुरु थे । पपु० १२३.१६८ लक्ष्मणा-(१) सिंहलद्वीप के राजा श्लक्ष्णरोम और रानी कुरुमती की पुत्री । कृष्ण और बलदेव सिंहलद्वीप जाकर और वहाँ के सेनापति द्रुमसेन को मारकर इसे हर लाये थे। द्वारिका आकर कृष्ण ने इसे विधिपूर्वक विवाहा था तथा इसे अपनी पांचवीं पटरानी बनाया था । महासेन इसका भाई था । महापुराण में इसे सुप्रकारनगर के राजा शंबर और रानी श्रीमती की पुत्री कहा है तथा पद्म और ध्रुवसेन इसके बड़े भाई बताये हैं । पूर्वभवों में यह अरिष्टपुर नगर के राजा वासव की रानी वसुमती थी। कुचेष्टापूर्वक मरकर यह भीलनी हुई। इल पर्याय में इसका व्रताचरणपूर्वक भरण होने से यह इन्द्र की नर्तकी हुई । पश्चात् चन्द्रपुर नगर के राजा महेन्द्र की पुत्री कनकमाला हई। इस पर्याय में इसने मुक्तावली तप किया । अन्त में मरकर Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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