Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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विचित्रभानु - विजय
था कि संज्ञा, बुद्धि आदि चिह्नों के भेद से दोनों में भिन्नता है । दोनों में कार्य कारण भाव है। स्कन्धों में क्षणिकता है परन्तु सन्तान की अपेक्षा किये हुए कर्म का सद्भाव रहता है और सद्भाव रहने से उसका फल भी भोगना सिद्ध होता है । स्याद्वाद पूर्वक कहे गये वज्रायुध के तर्कों के आगे इसका मान भंग हो गया । इसे सम्यक्त्व की उपलब्धि हुई । इसने संतुष्ट होकर अपने मनोगत विचार राजा मे प्रकट किये तथा यह स्वर्ग लौट गया । मपु० ६३.४८-७०, पापु० ५.१७-२९
विचित्रभानु- अंजना के मामा प्रतिसूर्य का पिता पपु० १७.३४५३४६
विचित्रमति - भरतक्षेत्र में भिषकारपुर नगर के राजा प्रीति के मंत्री चित्रबुद्धि का पुत्र । कमला इसकी माँ थी । श्रुतसागर मुनि से तप का फल सुनकर यह तप करने लगा था । साकेतनगर में यह बुद्धिसेना को देखकर पथभ्रष्ट हो गया था। यह उसे पाने के लिए गन्धमित्र राजा का रसोइया बना। अपनी पाक कला से राजा को प्रसन्न करके इसने इस वेश्या को प्राप्त कर लिया था। अन्त में भोग भोगते हुए सातवें नरक गया। महापुराण में नगर का नाम छत्रपुर, मंत्री का नाम चित्रमति और मुनि का नाम घर्मंरुचि तथा मरकर इसका हाथी की पर्याय में जन्म लेना बताया गया है । मपु० ५९.२५४-२५७, २६५२६७, हपु० २७.९७-१०३
विचित्रमाला – (१) नलकूबर की पत्नी उपरम्भा की सखी । उपरम्भा के द्वारा नलकूबर में अनासक्ति और रावण में आसक्ति प्रकट किये जाने पर इसने रावण के पास जाकर उपरम्भा के भाव प्रकट किये थे और यह रावण के कहने पर उपरम्भा को उसके निकट ले गयी थी । पपु० १२.९७-१३३
(२) राजा सुकौवाल की रानी
पपु० २२.४२-४७,
ने इसके गर्भस्थ शिशु को राज्य देकर तप धारण कर लिया था। गर्भ का समय पूर्ण होने पर इसके हिरण्यगर्भ नाम का पुत्र हुआ। १०१-१०२ विचित्ररथ - भरतक्षेत्र के अरिष्टपुर नगर के राजा प्रियव्रत तथा रानी पद्मावती का कनिष्ठ पुत्र । यह रत्नरथ का अनुज था । ये दोनों भाई चिरकाल तक राज्य भोगकर दीक्षित हो गये थे तथा तप करते हुए शरीर त्याग करके स्वर्ग में देव हुए थे । पपु० ३९.१४८-१५०, १५७, दे० रत्नरथ-३
विचित्रवाहन आगामी दसवें चक्रवर्ती मपु० ७६.४८४ विचित्रवीर्य - कुरुवंश में हुआ एक नृप।
शासन किया था। हपु० ४५.२८ विचित्रांगद - सौधर्म स्वर्ग का एक देव। इसने स्वर्ग से आकर उत्तर की ओर पूर्वदिशाभिमुख एक सर्वतोभद्र नामक प्रासाद की रचना करके इस भवन के चारों ओर सुलोचना का स्वयंवर मण्डप रचा था। मपु० ४३.२०४ -२०७, पापु० ३.४२-४५
विचित्रा - नन्दनवन में स्थित रजक कूट की स्वामिनी एक दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.३२९, ३३३
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इसने राजा चित्ररथ के पहले
मैनपुराणकोश: ३६१
विचेतस् - संसारी जीवों का एक भेद । ये असैनी होते हैं। इनके मन नहीं होता । पपु० १०५.१४८
विच्छेदिनी एक विद्या इससे बैताली विद्या का विच्छेद किया जाता था । पापु० ४.१४९ - १५०
विजय- (१) विजयार्थ पर्वत की उत्तरवेणी का पाँचवाँ नगर। पु०
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२२.८६
(२) राजा अन्यकवृष्णि और रानी सुभद्रा के दस पुत्रों में पाँचव
पुत्र । मपु० ७०.९६, हपु० १८.१२-१३
(३) विद्याधर नमि का पुत्र । हपु० २२.१०८
(४) अनेक द्वीपों के
जम्बद्वीप का रक्षक देव
।
हपु० ५.३९७
(५) समवसरण के
तीसरे फोट में निर्मित पूर्व दिशा के गोपुर के आठ नामों में एक नाम । हपु० ५७.५७
(६) वसुदेव के अनेक पुत्रों में एक पुत्र पु० ५०.११५
।
(७) प्रथम अनुत्तर विमान । मपु० ४८.१३, ५०.१३, पपु० १०५.१७१, हपु० ६. ६५
(८) कुरुवंशी एक राजा । इसे राज्य शासन राजा इभवाहन से प्राप्त हुआ था । हपु० ४५.१५
अनन्तर स्थित जम्बूद्वीप के समान एक अन्य
(९) दश पूर्व और ग्यारह अंगों के धारी ग्यारह मुनियों में आठवें मुनि। म २.१४१-१४५, ७६.५२१-५२४, पु० १.६२, वीवच० १.४५-४७
(१०) जम्बूद्वीप को जगती (कोट) का पूर्व द्वार पु० ५. '३९०
(११) घातकीखण्ड के विजयद्वार का निवासी एक व्यन्तर देव । इसकी देवी ज्वलन वेगा थी । हपु० ६०.६०
(१२) जयकुमार का छोटा भाई । मपु० ४७. २५६, हपु० १२.३२
(१३) अवसर्पिणी काल के प्रथम बलभद्र । ये जम्बूद्वीप में सुरम्य देश के पोदनपुर नगर के राजा प्रजापति और रानी जयावती अपर नाम भद्रा के पुत्र थे । नारायण त्रिपृष्ठ इनका छोटा भाई था । इनके देह की कान्ति चन्द्र वर्ण की थी। गदा, रत्नमाला, मूसल और हल इनके ये चार रत्न थे । इनकी आठ हजार रानियाँ थीं । त्रिपृष्ठ के मरने पर भाई के वियोग से दुःखी होकर इन्होंने अपने पुत्र विजय को राज्य और विजयभद्र को युवराज पद देकर सुवर्णकुम्भ मुनि से दीक्षा ली थी तथा तप करके कर्मों की निर्जरा की ओर निर्वाण पाया था । मपु० ५७.९३-९४, ६२.९२, १६५-१६७, हपु० ६०.२९०, बोवच० २.६१००० १४६-१४८
(१४) तीर्थंकर वृषभदेव के तीसवें गणधर । हपु० १२.६०
(१५) हस्तवप्र - नगर का समीपवर्ती एक वन । बलदेव और कृष्ण दोनों भाई यहाँ आये थे और यहाँ से वे कौशाम्बी वन गये थे । हपु० ६२.१३-१५
(१६) रावण द्वारा अपहृता सीता को उसके पास रहने के कारण
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