Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 389
________________ विद्य न्मतो-विनयवत्त विद्युन्मती-(१) पुष्करवर द्वीप में पश्चिम मेरु के पश्चिम की ओर सरिद् देश में बीतशोक नगर के राजा चक्रध्वज की दूसरी रानी । इसकी पुत्री पद्मावती वेश्या होने के निदानपूर्वक मरकर स्वर्ग में अप्सरा हुई थी। मपु० ६२.३६४-३६८ (२) कृष्ण की पटरानी गांधारी की पूर्वभव की जननी। यह गगनवल्लभ नगर के राजा विद्याधर विद्युद्वेग की रानी थी। गांधारी का जीव विनयश्री इसकी पुत्री थी जो नित्यालोक नगर के राजा महेन्द्र विक्रम को विवाही गयी थी। हपु० ६०.८९-९१ । विद्य न्माला-(१) भरतक्षेत्र के हरिवर्ष देश में स्थित वस्वालय नगर के राजा वज्रचाप और रानी सुभा को पुत्री। यह सिहकेतु को पली थी। मपु० ७०.७६-७७ (२) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र के पुष्कलावती देश के विजया पर स्थित त्रिलोकोत्तम नगर के राजा विद्याधर विद्युद्गति की रानी। पाश्र्वनाथ के पूर्वभव के जीव रश्मिवेग की यह जननी थी। मपु० ७३.२५-२७ विद्युन्माली-(१) राजा जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३५ (२) ब्रह्महृदय विमान में उत्पन्न ब्रह्म स्वर्ग का इन्द्र । इसकी चार रानियाँ थीं-प्रियदर्शना, सुदर्शना, विद्यु दवेगा और प्रभावेगा। यह केवली जम्बूस्वामी का जीव था। मपु० ७६.३२-३८ विचन्मुख-विद्याधर नमि का वंशज । यह राजा वज़वान् का पुत्र और सुवक्त्र का पिता था । पपु० ५.१९-२०, हपु० १३.२३-२४ विद्य ल्लता-(१) पर नगर सेठ कुमारदत्त की पुत्री गुणमाला की दासी । मपु. ७५. ५ (२) विदेहक्षेत्र के विजया पर्वत पर स्थित शशिपुर नगर के राजा रत्नमाली की रानी। सूर्यजय क यह जननी थी। पपु० ३१.३४-३५ विद्युल्लेखा-वंग देश के कान्तपुर नगर के राजा सुवर्णवर्मा की रानी । यह महाबल की जननी थी। मपु० ७५.८१ विद्रावण-भार्गवाचार्य की वंश परम्परा में हुए रावण का पुत्र । द्रोणाचार्य का यह पिता था । हपु० ४५.४७ विद्रुम-(१) यह बलभद्र के पूर्वभव के दीक्षागुरु । पपु० २०.२३५ (२) बलभद्र बलदेव का पुत्र । हपु० ४८.६७ विद्वान्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२५ विधाता-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । ___मपु० २४.३१, २५.१२५, हपु० ८.२०८ विधि-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०२ (२) राम का सामन्त । इसने वितापि योद्धा को गदा के प्रहार से मारा था । पपु० ५८.९-११, ६०.२० विधिदान-गर्भान्वय की त्रेपन क्रियाओं में पैतीसवीं क्रिया । इसमें इन्द्र नम्रीभूत उत्तम देवों को अपने-अपने पद पर नियुक्त करता है और स्वयं चिरकाल तक उनके सुखों का अनुभव करता है । मपु० ३८.६०, १९९-२०१ जैन पुराणकोश : ३७१ विनमि-तीर्थकर वृषभदेव के साले महाकच्छ के पुत्र और वृषभदेव के अठहत्तरवें गणधर । ये और इनके ताऊ कच्छ का पुत्र नमि दोनों वृषभदेव के उस समय निकट गये जब वृषभदेव छः माह के प्रतिमायोग में विराजमान थे। ये दोनों वृषभदेव के साथ दीक्षित हो गये थे किन्तु पद से च्युत होकर वृषभदेव से बार-बार भोग-सामग्री की याचना करते थे। इन्हें उचित-अनुचित का कुछ भी ज्ञान न था। दोनों जल, पुष्प तथा अर्घ से वृषभदेव की उपासना करते थे। इससे धरणेन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ। वह अवधिज्ञान से नमि और विनमि के वृत्तान्त को जान गया । अतः वह वृषभदेव के पास आया। धरणेन्द्र ने इसे विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी का राज्य देकर संतुष्ट किया। यह भी वहाँ नभस्तिलक नगर में रहने लगा था । धरणेन्द्र ने इसे गान्धरपदा और पन्नगपदा दो विद्याएँ भी दी थीं। धरणेन्द्र की देवी अदिति ने मनु, मानव, कौशिक, गौरिक, गान्धार, भूमितुण्ड, मूलवीयंक और शंकुक ये आठ तथा दूसरी दिति देवी ने-मातंग, पाण्डुक, काल, स्वपाक, पर्वत, वंशालय, पांशुमूल और वृक्षमूल ये आठ विद्या-निकाय दिये थे । इसने और इसके भाई नमि ने अनेक औषधियाँ ' तथा विद्याएँ विद्याधरों को दी थीं जिन्हें प्राप्त कर विद्याधर विद्यानिकायों के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे। वे गौरी विद्या से गौरिक, मनु से मनु, गान्धारी से गान्धार, मानवी से मानव, कौशिकी से कौशिक, भूमितुण्डक से भूमितुण्डक, मूलवीर्य से मूलवीर्यक, शंकु से शंकुक, पाण्डुकी से पाण्डु केय, कालक से काल, श्वपाक से श्वपाकज, मातंगी से मातंग, पर्वत से पार्वतेय, वंशालय से वंशालयगण, पांशमूल से पांशुमूलिक और वृक्षमूल से वार्तमूल कहे जाने लगे थे। इसके संजय, अरिंजय, शत्रुन्जय, धनंजय, मणिचूल, हरिश्मश्रु, मेघानीक, प्रभंजन, चड़ामणि, शतानीक, सहस्रानीक, सर्वजय, वजबाहु, महाबाहु, अरिंदम आदि अनेक पुत्र और भद्रा और सुभद्रा नाम की दो कन्याएँ थीं। इनमें सुभद्रा चक्रवर्ती भरतेश के चौदह रत्नों में एक स्त्रीरत्न थी। अन्त में यह पुत्र को राज्य सौंपकर संसार से विरक्त हुआ और इसने दीक्षा ले ली थी। इसके मातंग पुत्र से हुए अनेक पुत्र-पौत्र थे। वे भी अपनी-अपनी साधना के अनुसार स्वर्ग और मोक्ष गये । मपु० १८.९१-९७, १९.१८२-१८५, ४३.६५, पपु० ३.३०६-३०९, हपु० ९.१३२-१३३, १२.६८, २२.५७-६०, ७६-८३, १०३-११० विनयतप-आभ्यन्तर तप के छ: भेदों में एक भेद । मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य तथा इनके धारी योगियों के प्रति विनय करना विनय तप कहलाता है । हरिवंशपुराण में इसके चार भेद कहे है-१. ज्ञानविनय २. दर्शनविनय ३. चारित्रविनय ४. उपचारविनय । मपु० १८.६९, २०.१९३, ५४. १३५ हपु० ६४.२९, ३८-४१, वीवच० ६.४३ विनयचरी-विजया पर्वत पर स्थित दक्षिणश्रेणी की अट्ठाईसवी नगरो। मपु० १९.४९, ५३ विनयवत्त-(१) एक मुनि । कीचक ने पूर्वभव में इन्हों मुनि को दिये गये आहारदान का माहात्म्य देखकर दीक्षा ली थो तथा मरकर स्वर्ग • गया था। हपु० ४६.५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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