Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 406
________________ ३८८:जैन पुराणकोश बंडूर्य-यावृत्व (५) राम का एक सभा-भवन । पपु० ८३.५ (६) भरतक्षेत्र में चक्रपुर-नगर के राजा वरसेन की रानी । यह सातवें बलभद्र-नन्दिषेण की जननी थी। मपु० ६५.१७३-१७७, पपु० २०.२३८-२३९ (७) नन्दीश्वर-द्वीप की दक्षिण-दिशा के अन्जनगिरि की दक्षिण- दिशा में स्थित वापी । हपु० ५.६६० (८) रूचकगिरि के कांचनकूट पर रहनेवाली दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.७०५ (९) रूचकगिरि के रत्नप्रभकूट पर रहनेवाली एक देवी । हपु० ५.७२५ बंड्य-(१) भरतक्षेत्र का एक पर्वत । चक्रवर्ती भरतेश के सैनिक दिग्विजय के समय यहाँ आये थे । मपु० २९.६७ (२) महाशुक्र स्वर्ग का एक विमान । मपु० २९.२२६ (३) महाशुक्र स्वर्ग का देव । मपु० ५९.२२६ (४) नोल-मणि । हपु० २.१० (५) रत्नप्रभा-प्रथम नरक के खरभाग का तीसरा पटल। हपु० ४.५२ दे० खरभाग (६) महाहिमवत् कुलाचल का आठवाँ कूट । हपु० ५.७२ (७) रूचकगिरि की पूर्वदिशा का एक कूट । यहाँ विजयादिक्कुमारी देवी निवास करती है । हपु० ५.७०५ (८) रूचकगिरि की ऐशान दिशा का एक कूट । यहाँ रूचका महत्तरिका देवी रहती है । हपु० ५.७२२ (९) सौधर्म युगल का चौदहवां इन्द्रक । हपु० ६.४५ दे० सौधर्म (१०) मानुषोत्तर पर्वत का पूर्व दिशा का एक कूट । यहाँ यशस्वान् देव रहता है । हपु० ५.६०२ वैडूर्यप्रभ-सहस्रार स्वर्ग का एक विमान । रामदत्ता का पुत्र पूर्णचन्द्र इसी विमान में देव हुआ था । हपु० २७.७४ वैडूर्यमय-मेरु पर्वत की पृथिवीकाय रूप एक परिधि । इसका विस्तार सोलह हजार पाँच सौ योजन है। हपु० ५.३०५-३०६ बंडूर्यवर-मध्यलोक के अन्तिम सोलह द्वीपों में दसवा द्वीप और सागर । हपु० ५.६२४ . वेणस्वर–चीणा सम्बन्धी स्वर । श्रुति, वृत्ति, स्वर, प्राम, वर्ण, अलंकार, मूच्छंना, धातु और साधारण ये स्वर वैण स्वर कहलाते हैं । हपु० १९.१४६-१४७ बैतरणी-(१) भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी । दिग्विजय के समय भरतेश के सेनापति ने यह नदी ससैन्य पार की थी और यहीं से वह शुष्क नदी की ओर गया था। मपु० २९.८४ (२) नरक की नदी। नारकी अग्नि के भय से इस नदी के जल में पहुंचते ही खारी तरंगों के द्वारा और अधिक जलने लगते है । इसमें विक्रियाकृत मकर आदि जल-जन्तु रहते हैं। मपु० ७४.१८२१८३, पपु० २६.८५, १०५, १२१-१२२, १२३.१४, वीवच० ३.१३४-१३६ बैताड्य-एक पर्वत । शौर्यपुर के तापस सुमित्र के पुत्र नारद को जृम्भक देव पूर्वभव के स्नेहवश इसी पर्वत पर लाया था। नारद का यहाँ दिव्य-आहार से पालन-पोषण हुआ था। देवों ने यहीं उसे आकाश गामिनी विद्या दी थी। हपु० ४२.१४-१९ वैदर्भ-(१) भरतेश के छोटे भाइयों द्वारा त्यक्त देशों में भरतक्षेत्र के बार्यखण्ड की दक्षिण दिशा में स्थित एक देश । हपु० ११.६९ (२) तीर्थकर पुष्पदन्त के प्रथम गणघर । हपु० ६०.३४७ बंबी-रुक्मिणी के भाई रुक्मी की पुत्री। रुक्मिणी द्वारा प्रद्युम्न के लिए यह कन्या मांगे जाने पर भी पूर्व विरोध-वश रुक्मी ने उसे यह कन्या नहीं दी थी। फलस्वरूप शम्ब और प्रद्युम्न ने भील के वेष में रुक्मी को पराजित करके बलपूर्वक इस कन्या का हरण किया तथा प्रद्युम्न ने इसे विवाहा था । हपु० ४८.११-१३ वैविश-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में विन्ध्याचल के ऊपर स्थित एक देश विदिशा । हपु० ११.७४ वैविशपुर-भरतक्षेत्र आर्यखण्ड का एक नगर । यहाँ का राजा वृषध्वज था। इसका अपर नाम वैदेशिकपुर था। हपु० ४५.१०७, पापु० १४.१७३ वैच-भरतक्षेत्र का एक देश । लवणांकुश और मदनांकुश द्वारा यहाँ का राजा पराजित किया गया था। पपु०१०१.८२ वैद्युत-विद्याधरों के स्वामी नमि का वंशज एक विद्याधर राजा । यह विद्युद्वेग विद्याधर का पुत्र था । पपु० ५.२०, हपु० १३.२४ ।। बनयिक-(१) अंगबाह्यश्रुत का पांचवां भेद । इसमें दर्शन-विनय, ज्ञानविनय, चारित्र-विनय, तपो-विनय और उपचार विनय के भेद से पाँच प्रकार के विनयों का कथन किया गया है। हपु० २.१०३, १०.१३२ (२) एकान्त, विपरीत, विनय, अज्ञान और संशय के भेद से पाँच प्रकार के मिथ्यात्वों में इस नाम का एक मिथ्यात्व । माता, पिता, देव, राजा, ज्ञानी, बालक, वृद्ध और तपस्वी इन आठों को मन, वचन, काय और दान द्वारा विनय की जाने से इसके बत्तीस भेद होते हैं। हपु० १०.५९-६०, ५८.१९४-१९५ वैश्य-ध्रौव्य गुरु का शिष्य । शाण्डिल्य, क्षीरकदम्बक, उदंच और प्रावृत इसके गुरु-भाई थे। हपु० २३.१३४ ।। भार-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड एक पर्वत । दिग्विजय के समय भरतेश की सेना ने इसे पार किया था। यह राजगृह नगर के पांच पर्वतों में दूसरा पर्वत है। इसका आकार राजगृह-नगर के दक्षिण में त्रिकोण है। तीर्थंकर महावीर का यहाँ समवसरण आया था। मपु० २९.४५, ६३.१४०, हपु० ३.५४, १८१.३२, पापु० १.९८ यावृत्य-(१) आम्यन्तर तप का तीसरा भेद । १. आचार्य २. उपाध्याय ३. तपस्वी ४. शिक्षा ग्रहण करनेवाले शैक्ष्य, ५. रोग आदि से ग्रस्त ग्लान ६. वृद्ध मुनियों का समुदाय ७. दीक्षा देने वाले आचार्य के शिष्यों का समूह रूप कुल ८. गृहस्थ, क्षुल्लक, ऐलक तथा मुनियों का समुदाय रूप संघ ९. चिरकाल के दीक्षित गुणी मुनि, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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