Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 365
________________ वनदेवता-वनस्पतिकायिक जैन पुराणकोश : ३४७ आगामी तीसरे भव में नारायण होना जानकर उसे संयम धारण करा जैसे ही कंठ के पास ले गया था कि छिपकर इस कृत्य को देखनेवाले दिया था। मपु० ६७.९०-१२१ सुमित्र ने अपने मित्र प्रभव का हाथ पकड़ लिया था। सुमित्र ने (२) भीलराज हरिविक्रम द्वारा कपित्थ बन के दिशागिरि पर्वत उसे आत्मघात के दुःख समझाये और उसकी ग्लानि दूर की । पपु० पर बसाया गया एक नगर । मपु० ७५.४७८-४७९ १२.२६-४९ वनदेवता-वन के रक्षक देव । इन्हीं देवों ने वृषभदेव के साथ दीक्षित ___ वनराज-वनगिरि-नगर के भिल्लराज हरिविक्रम तथा भीलनी सुन्दरी हुए साधुओं को तप से भ्रष्ट होने पर अपने हाथ से वन्य फल खाते का पुत्र । लोहजंघ और श्रीषेण इसके दो मित्र थे। ये दोनों मित्र और जल पीते देखकर उन्हें रोका था। मपु० १८.५१-५४ इसके लिए हेमाभनगर के राजा की पुत्री श्रीचन्द्रा को हरकर सुरंग से वनमाल-सानत्कुमार और माहेन्द्र युगल स्वर्गों का दूसरा इन्द्रक ले आये थे। श्रीचन्द्रा के भाई किन्नरमित्र और यक्षमित्र ने इसके विमान । हपु० ६.४८ दोनों मित्रों के साथ युद्ध भी किया था किन्तु दोनों पराजित हो गये बनमाला-(१) कलिंग देश में दन्तपुर नगर के वणिक वीरदत्त अपर- थे । श्रीचन्द्रा इस घटना से इससे विरक्त हो गयी थी । समझाने पर नाम वीरक वैश्य की पत्नी । जम्बूद्वीप के वत्स देश की कौशाम्बो भी सफलता प्राप्त न होने पर दोनों ओर से युद्ध होना निश्चित हो नगरी का राजा सुमुख इसे देखकर आकृष्ट हो गया था। यह भी गया । हेमाभनगर के जीवन्धरकुमार ने युद्ध को जीव-घातक जानकर सुमुख को पाने के लिए लालायित हो गयी थी। अन्त में यह सुमुख उसे टालना चाहा। उन्होंने सुदर्शन यक्ष का स्मरण किया। यक्ष ने द्वारा हर ली गयी। इसने और राजा सुमुख ने वरधर्म मुनिराज को तुरन्त आकर श्रीचन्द्रा जीवन्धरकुमार को सौंप दी। इसे छोड़ शेष आहार देकर उत्तम पुण्यबन्ध किया। इन दोनों का विद्यु त्पात से सभी नगर लौट गये । यह युद्ध की इच्छा से खड़ा रहा । फलतः यह मरण हुआ। दोनों साथ-साथ मरे और मरकर उक्त आहार-दान के यक्ष द्वारा पकड़ा गया तथा जीवन्धरकुमार द्वारा कैद किया गया । प्रभाव से विजयार्घ पर्वत पर विद्याधर-विद्याधरी हुए। महापुराण के हरिविक्रम ने इसके पकड़े जाने से क्षुब्ध होकर युद्ध करना चाहा किन्तु अनुसार यह हरिवर्ष देश में वस्वालय नगर के राजा वज्रचाप और यक्ष ने उसे भी पकड़कर जीवन्धरकुमार को सौंप दिया । इसे अन्त में रानी सुप्रभा को विद्युन्माला पुत्री और सिंहकेतु की स्त्री थी। इसी अपने पूर्वभव का स्मरण हो आया था। इसका श्रीचन्द्रा के साथ के पुत्र हरि के नाम पर हरिवंश की स्थापना हुई । मपु० ७०.६५- पूर्वभव का स्नेह जानकर सभी शान्त हो गये और पिता-पुत्र दोनों को ७७, हपु० १४.९-१३, ४१-४२, ६१, ९५, १५.१७-१८, ५८, पापु० मुक्त कर दिया गया तथा श्रीचन्द्रा नंदाढ्य के साथ विवाह दी गयी ७.१२१-१२२ थी। मपु० ७५.४७८-५२१ (२) पूर्व विदेहक्षेत्र में स्थित पुष्कलावती देश के वीतशोक नगर बनवती-एणीपुत्र के पूर्वभव की मां-एक देवी । वसुदेव के शौर्यपुर जाने के राजा महापद्म की रानी। यह शिवकुमार की जननी थी । मपु० की इच्छा प्रकट करने पर इसने रत्नों से दैदीप्यमान एक विमान की ७६.१३०-१३१ रचना कर वसुदेव को दिया था और वसुदेव के शौर्यपुर-आगमन की (३) भरतक्षेत्र में अचलग्राम के एक सेठ की पुत्री । इसे वसुदेव ने सूचना इसी ने समुद्रविजय को दी थी। हपु० ३२.१९, ३८, ५३. विवाहा था। हपु० २४.२५ १०, २४ (४) भरतक्षेत्र के वैजयन्तपुर के राजा पृथिवीधर और रानी वनवास-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का एक देश । यह वृषभदेव के समय में इन्द्राणी को पुत्री । यह लक्ष्मण में आसक्त थी । लक्ष्मण के चले जाने ___इन्द्र द्वारा निर्मित किया गया था । मपु० १६.१५४ पर इसके पिता इसे इन्द्रनगर के राजा बालमित्र को देना चाहते थे । वनवास्य-भरतक्षेत्र का एक नगर । यह राजा चरम के द्वारा बसाया पिता के इस निर्णय से दुःखी होकर यह आत्मघात करने के लिए वन गया था। हपु० १७.२७ में गयी। वहाँ इसने ज्यों ही आत्मघात का प्रयत्न किया त्यों ही वनवीथी-समवसरण के मार्ग । धूपघटों के कुछ ही आगे मुख्य गलियों लक्ष्मण ने वहाँ पहुँचकर इसे बचा लिया था। इस प्रकार इसकी के समीप ये चार-चार होती हैं । इनमें अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और लक्ष्मण से अकस्मात् भेंट हो गयी थी और दोनों का सम्बन्ध हो गया आम्रवृक्षों के वन होते हैं । इन वनों के वृक्ष इतने अधिक प्रकाशमान था। यह लक्ष्मण की तीसरो पटरानी थी। इसके पुत्र का नाम होते हैं कि वहाँ रात और दिन में कोई भेद दिखाई नहीं देता। अर्जुनवृक्ष था । पपु० ३६.१६-६२, ९४.१८-२३, ३३ इनमें बावड़ी, सरोवर, चित्रशालाएँ भी होती है। मपु० २२.१६२(५) म्लेच्छराज द्विरदंष्ट्र की पुत्री । धातकीखण्ड द्वीप के ऐरावत- १६३, १७३-१८५ क्षेत्र में शतद्वार के निवासी सुमित्र ने इसे विवाहा था। सुमित्र का वनवेदिका-समवसरण के चारों वनों के अन्त में चारों और ऊंचे-ऊंचे मित्र प्रभव इसे देखकर कामासक्त हो गया था। सुमित्र ने मित्र प्रभव गोपुरों से युक्त, रत्नजड़ित, स्वर्णमय वनवेदी । इसके चांदी से निर्मित के दुःख का कारण अपनी स्त्री को समझकर इसे मित्र के पास भेज चारों गोपुर अष्ट मंगलद्रव्यों से अलंकृत रहते है। मपु० २२.२०५, दिया था परन्तु प्रभव इसका परिचय ज्ञातकर निर्वेद को प्राप्त हुआ। २१० इस कलंक को धोने के अर्थ प्रभव अपना सिर काटने के लिए तलवार वनस्पतिकायिक-वनस्पति-शरीरधारी एकेन्द्रिय जोव । ये छेदन-भेदन For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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