Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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४८ : जैन पुराणकोला
आनन्दपुर-आप्त
(८) धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व मेरु से पश्चिम की ओर स्थित विदेह क्षेत्र के अशोकपुर नगर का एक वैश्य । आनन्दयशा इसी की पुत्री थी। मपु० ७१.४३२-४३३
(९) लंकाधिपति कीतिधवल का मंत्री। यह तीर्थकर पार्श्वनाथ के पूर्वभव का जीव था । पपु० ६.५८, २०.२३-२४
(१०) रावण का धनुर्धारी योद्धा। इसने भरतेश के साथ दीक्षा धारण कर परम पद पाया था । पपु० ७३.१७१, ८८.१-४
(११) उत्पलखेटपुर के राजा वज्रजंध का पुरोहित । वनजंघ के वियोग से शोक-संतप्त होकर इसने मुनि दृढ़धर्म से दीक्षा धारण की और तप करते हुए मरकर यह अधोवेयक में अहमिन्द्र हुआ । मपु०८.११६, ९.९१-९३
(१२) अयोध्या के राजा वज्रबाहु और उसकी रानी प्रभंकरी का पुत्र । बड़ा होने पर वह महावैभव का धारक मण्डलेश्वर राजा हुआ। मुनिराज विपुलमति से उसने धर्मश्रवण किया। जिन भक्ति में लीन उसने एक दिन अपने सिर पर सफेद बाल देखे । वह संसार से विरक्त हो गया और उसने मुनि समुद्रदत्त से दीक्षा ली । तपस्या करते हुए उसको पूर्व जन्म के वैरी कमठ ने अपनी सिंह पर्याय में मार डाला । वह मरकर अज्युत स्वर्ग के प्राणत विमान में इन्द्र हुआ। वहाँ उसको बीस सागर की आयु थो, साढ़े तीन हाथ ऊँचा शरीर था और शुक्ल लेश्या थी। वह दस मास में एक बार श्वास लेता था और बीस हजार वर्ष बाद मानसिक अमृताहार करता था। इसके मानसिक प्रवीचार था। पांचवीं पृथिवी तक उसके अवधिज्ञान का विषय था और सामानिक देव उसकी पूजा करते थे। मपु० ७३.४३-७२
(१३) पुष्करवर द्वीप के पूर्वार्ध भाग में मेरु पर्वत की पूर्व दिशा के विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर स्थित वत्स देश के सुसीमा नगर के राजा पद्मगुल्म के दीक्षागुरु मुनि । चिरकाल तक तपश्चरण के बाद आयु के अन्त में समाधिमरण से ये आरण स्वर्ग में इन्द्र हुए। मपु०५६.२-३, १५-१८
(१४) गन्धमादन पर्वत का एक कूट । हपु० ५.२१८ (१५) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.
देना चाहता था किन्तु इन्द्र की भार्या सर्वश्री ने उसका क्रोध शान्त करके उसे बचा लिया था । पपु० १३.७३-८९ आनन्दपटह-एक वाद्य (नगाड़ा)। यह आनन्द के समय बजाया जाता
है। मपु० २४.१२ आनन्दमती-नन्दपुर नगर के राजा अमितविक्रम की रानी । मपु० ६३.
१३ दे० अमितविक्रम आनन्दयशा-विदेहक्षेत्र में स्थित अशोकपुर नगर निवासी आनन्द नामक
वैश्य की पुत्री । मुनि को आहार देने के प्रभाव से मरकर यह उत्तरकुरु में उत्पन्न हुई थी। इसके बाद वह भवनवासियों के इन्द्र की इन्द्राणी हुई और वहाँ से चयकर यशस्वती हुई । मपु० ७१.४३२-४३५ आनन्दवती-(१) सातवें नारायणदत्त की पटरानी । पपु० २०.२२८
(२) समवसरण के अशोक वन की एक वापी । हपु० ५७.३२ आनन्दा-(१) समवसरण के अशोक वन में स्थित छः वापियों में एक वापी । हपु० ५७.३२
(२) रूचकगिरि के अंजनकूट की निवासिनी दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.७०६ -
(३) नन्दीश्वर द्वीप में अंजनगिरि की चारों दिशाओं में वर्तमान चार वापियों में एक वापी। हपु० ५.६६४
(४) रावण की एक रानी । पपु० ७७.९-१४ आनन्दिनो-एक महाभेरो। भरतेश की इस नाम की बारह भेरियाँ
थीं । इनकी ध्वनि बारह योजन दूर तक फैलती थी । मपु० ३७.१८२ इसी नाम की इतनी ही भेरियाँ अरनाथ तीर्थकर के यहां भी थीं। पापु० ७.२३ नगर वासियों को युद्ध की सूचना देने के लिए इनका
प्रयोग होता था । हपु० ४०.१९ आनयन–देवव्रत के पाँच अतिचारों में एक अतिचार-मर्यादा के ___ बाहर से वस्तु को मँगवाना । हपु० ५८.१७८ आनर्त-एक देश । इसकी रचना इन्द्र ने की थी। मपु० १६.१४१-१५३ आनुपूर्वी-उपक्रम के पाँच भेदों में एक भेद । इसके तीन भेद हैं
पूर्वानुपूर्वी, अनन्तानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वी । मपु० २.१०४ आन्तरंगतम-अर्धबर्बर देश के मयूरमाल नगर का राजा । इसके द्वारा
युद्ध में लक्ष्मण को रथरहित कर दिये जाने पर राम ने इसकी सेना को छिन्न-भिन्न करके इसे परास्त कर दिया था। अन्त में इसने राम से सन्धि की और कंदमूल फल आदि खाकर सह्य और विंध्य पर्वतों में जीवन-यापन किया था। पपु० २७.५-११, ७८-८८ आन्ध्र-इन्द्र द्वारा निर्मित दक्षिण का एक देश । मपु० १६.१५४ वृषभ
देव की विहारभूमि । मपु० २५.२८७-२८८ भरतेश की दिग्विजय के समय उसके सेनापति ने यहाँ के राजा को पराजित किया था। मपु०
१६.१५४, २५.२८७-२८८, २९.९२ आन्ध्री-छः स्वरवाली संगीत की एक जाति । पपु० २४.१४-१५, हपु०
१९.१७७ आपाण्डर–भरतक्षेत्र का एक पर्वत । भरतेश यहीं से वैभार पर्वत की
ओर गया था । मपु० २९.४६ आप्त-(१) राग, द्वेष आदि दोषों से रहित अर्हन्त । ये अनन्त ज्ञान
मानन्दपुर-जैन मन्दिरों से व्याप्त एक नगर । इसका यह नाम जरासन्ध
के मारे जाने पर यादवों द्वारा आनन्द नामक नृत्य किये जाने से पड़ा
था । हपु० ५३.३० आनन्दपुरी-तीसरे बलभद्र भद्र के पूर्वजन्म की नगरी । पपु० २०.२३० आनन्दभेरी-मांगलिक अवसरों पर बजाया जानेवाला एक वाद्य । मपु०
आनन्दमाल-चन्द्रावर्तपुर नगर का राजा। अरिंजयपुर के राजा वह्निवेग की पुत्री आहिल्या का प्राप्तकर्ता । इसे प्रतिमायोग में विराजमान देखकर इन्द्र विद्याधर ने पूर्व वैरवश क्रोधित होकर रस्सी से कसकर बांध दिया था। किन्तु इतना होने पर भी यह निर्विकार रहा । इसके समीप ही इसका छोटा भाई भी तप कर रहा था। भाई के ऊपर किये गये उपसर्ग को देखकर वह इस इन्द्र विद्याधर को भस्म ही कर
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