Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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जरा - जलबि
था । कृष्ण को प्यास से व्याकुलित देखकर बलदेव पानी लेने के लिए गया हुआ था। इधर कृष्ण बायें घुटने पर दायां पैर रखकर वृक्ष की छाया में सोये थे । कृष्ण के हिलते हुए वस्त्र को मृग का कान समझकर इसने तीक्ष्ण वाण से कृष्ण का पैर वेध दिया। निकट आने पर जब इसे पता चला कि वे तो कृष्ण हैं वह उनके चरणों में आ गिरा और बहुत 'विलाप किया। कृष्ण ने बड़े भाई बलराम के क्रोध का संकेत देकर कौस्तुभमणि देते हुए इसे शीघ्र वहाँ से पाण्डवों के पास जाने के लिए कह दिया। यह भी उनके पैर से बाण निकालकर चला आया था । कृष्ण का मरण उसी वाण के घाव से हुआ । हपु० ६२. १४-६१ इसके पश्चात् कृष्ण की आज्ञानुसार इसने भील के वेष में कृष्ण के दूत के रूप में पाण्डवों से भेंट की तथा कृष्ण-मरण का समाचार सुनाते हुए प्रतोति के लिए कौस्तुभमणि दिखाया । पाण्डवों ने द्वारिका को पुनः बसाया और इसे वहाँ का राजा बनाया तथा अनेक राजकन्याओं के साथ इसका विवाह किया। कृष्ण के दाहसंस्कार के बाद बलदेव तथा पाण्डव दीक्षित हुए। हपु० ६३.४५-७६ कलिंग राजा की पुत्री इसकी पटरानी थी। इससे उत्पन्न वसुध्वज नामक पुत्र को राज्य सौंप कर यह दीक्षित हो गया । हपु० ६६.२-३ इस प्रकार द्वारावती नगरी में तीर्थंकर नेमिनाथ ने जैसा कहा था कि- "द्वारावती जलेगी, कौशाम्बी वन में इसके द्वारा श्रीकृष्ण की मृत्यु होगी, बलदेव संयम धारण करेंगे" सब बैसा ही हुआ । संयोग की बात है कि भाई ही अपने स्नेही भाई का हप्ता हुआ । हपु० १.१२०, ५२.१६ इसका अपरनाम जारसेय - जरा का पुत्र था । पापु० २३.२-३
जरा-लेच्छराज की कन्या । यह वसुदेव की रानी और जरात्कुमार की जननी थी । हपु० ३१.६-७, ४८, ६३
जरासन्ध --- राजगृह नगर के राजा बृहद्रथ और श्रीमती का पुत्र, नवाँ प्रतिनारायण । इसकी एक पुत्री को नाम केतुमती था जो जितशत्रु को विवाही गयी थी । केतुमती को किसी मन्त्रवादी परिव्राजक ने अपने वश में कर लिया था किन्तु वसुदेव ने महामन्त्रों के प्रभाव से उसके पिशाच का निग्रह किया था। इसके घातक के सम्बन्ध में भविष्यवाणी थी कि जो इस राजपुत्री के पिशाच को दूर करेगा उसका पुत्र इसका घातक होगा । इस भविष्यवाणी से इसके सैनिकों ने वसुदेव को पकड़ लिया था किन्तु उसी समय कोई विद्याधर उसे वहाँ से उठाकर ले गया था । पपु० २०.२४२-२४४, वीवच० १८.११४-११५ समुद्रविजय आदि राजाओं के साथ रोहिणी स्वयंवर में न केवल यह आया था अपितु इसके पुत्र भी आये थे । समुद्रविजय को वसुदेव से युद्ध करने के लिए इसी ने कहा था और युद्ध के परिणाम स्वरूप सौ वर्ष से बिछुड़े हुए भाई वसुदेव से समुद्रविजय की भेंट हुई थी । हपु० ३१. १८, २१-२३, ५०.४५-५१, ९९-१२८ सुरम्य देश के मध्य में स्थित * पोदनपुर का राजा सिंहरथ इसका शत्रु था । इसने इस शत्रु को बाँध - -कर लानेवाले को आवा देश तथा अपनी रानी कलिन्दसेना से उत्पन्न जीवद्याशा पुत्री देने की घोषणा की थी । वसुदेव ने सिंहरथ को जीतकर • तथा कंस से बंधवाकर इसे सौंप दिया था। घोषणा के अनुसार इसने
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जैन पुराणको १४१
जीवा को वसुदेव को देना चाहा किन्तु उसे सुलक्षणा न जानकर वसुदेव ने यह कहकर टाल दिया था कि "निहरण को उसने नहीं बांधा। कंस ने बांधा है। इसने कंस को राजा उग्रसेन और पद्मावती का पुत्र जानकर उसे पुत्री और आधा राज्य दे दिया। कंस को अपना भानजा जानकर यह प्रसन्न हुआ था । हृपु० ३३.२४ यही कंस कृष्ण के द्वारा मारा गया । कंस के मरने से व्याकुलित पुत्री जीवद्यशा ने इसे क्षुभित किया। परिणामस्वरूप इसके कालयवन नामक पुत्र ने यादवों के साथ सत्रह बार भयंकर युद्ध किया और अन्त में युद्ध में मारे जाने पर इसके भाई अपराजित ने युद्ध किया। तीन सौ छियालीस बार युद्ध करने पर भी अन्त में यह भी कृष्ण के बाणों से निष्प्राण हुआ । पु० ३६.४५, ६५-७३ इसने यादवों से सन्धि कर ली थी । किन्तु कृष्ण का नाम सुनकर यह सन्धि से विमुख हो गया था। समुद्रविजय ने इसे समझाने और सन्धि न तोड़ने के लिए अपने दूत लोहजघ को भेजा । लोहजंघ ने कुशलता से इसे समझा दिया। इसने छः मास तक सन्धि को बनाये रखा। पर एक वर्ष पूर्ण होते ही यह कुरुक्षेत्र के मैदान में ससैन्य आ पहुँचा। हपु० ५०.९, ७१-६५ कालयवन आदि सन्यासी पुत्र भी युद्ध में सम्मिलित हुए । कृष्ण के अर्धचन्द्र वाणों से ये सब मारे गये थे । कालयवन को सारन नामक योद्धा ने मार गिराया था। इसने कृष्ण को मारने के लिए चक्र चलाया था। यही चक्र कृष्ण ने फेंककर इसे प्राण रहित कर दिया था। इसी युद्ध में कौरव पाण्डवों से मारे गये थे । मपु० ७०.३५२-३६६, ७१.७६-७७, ११५, ७२.२१८२२२, पु०, ५२.३०-८३, पापु० ७.१४७-१४९, १९ व पर्व, २०. २६६, २९६, ३४८-३५०
जरासन्धारि - कृष्ण । मपु० ७१.३४६
जलकान्ति - भवनवासी देवों के बीस इन्द्रों में दसवां इन्द्र । वीवच० १४.५४-५८
जलकेतु - जरासन्ध का पुत्र । यह जरासन्ध कृष्ण युद्ध में कृष्ण द्वारा मारा गया था । हपु० ५२.३० दे० जरासन्ध
जलगता - दृष्टिवाद अंग के पाँच भेदों में आगत चूलिका का प्रथम भेद ।
हपु० १०.६१, १२३
जलगति - एक विद्या । यह विद्या धरणेन्द्र ने नमि और विनमि को दी थी । पु० २२.६८
जलचारण - एक ऋद्धि । ( इसके प्रभाव से जल में स्थल तुल्य गमनागमन शक्य होता है तथा जलकायिक एवं जलचर जीव बाधा उत्पन्न नहीं करते ) । मपु० २.७३ जलवकुमार मेघकुमार जाति के देव मे सीर्थकरों के जन्माभिषेक के समय अमृत से मिले हुए जल-कणों की अखण्ड धारा छोड़ते हैंमन्द मन्द, जलवृष्टि करते हैं । मपु० १३.२०९ जलधि- (१) हस्तिनापुर के राजा दुर्योधन की रानी, उदधिकुमारी की जननी । मपु० ७२.१३४
(२) समुद्रविजय के भाई राजा अक्षोभ्य के प्रसिद्ध पाँच पुत्रों में तीसरा पुत्र । हपु० ४८.४५
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