Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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१८० पुराणकोश
कर मरवा डाला । संजयन्त मुनि तो केवलज्ञानी होकर निर्वाण को प्राप्त हुए किन्तु विद्य द्वंष्ट्र के इस व्यवहार से रुष्ट होकर इसने उसकी समस्त विद्याएँ हर ली । इसने उसे मारना चाहा किन्तु लान्तवेन्द्र आदित्याभ ने आकर उसे रोक लिया था। हपु० २७. १०-१८
(५) एक यदुवंशी राजा। यह वासुकि, धनंजय, कर्कोटक, शतमुख और विश्वरूप का जनक था । अपरनाम धारण । हपु० १८.१२१३, ४८.५०
(६) भवनवासी देवों का इन्द्र । हपु० ९. १२९ धरणा - तीर्थंकर शीतलनाथ के समवसरण की मुख्य आर्यिका । मपु०
५६.५४
धरणिकम्प - विजयार्ध पर्वत के राजपुर नगर का राजा। इसकी रानी सुप्रभा और पुत्री सुखावती थी। मपु० ४७.७३-७४ धरणानन्द — भवनवासी नागकुमार देवों का एक इन्द्र । वीवच०
१४.५४
धरणी - (१) विजयार्धं की उत्तरश्रेणी की पचासवीं नगरी । मपु० १९. ८५,
८७
(२) रत्नपुर नगर के निवासी गोमुख की भार्या, सहस्रभाग की जननी । पपु० १३.६०
(३) प्रभापुर नगर के राजा श्रीनन्दन की रानी, सप्तर्षियों की जननी । पपु० ९२.१-४ धरणीजट - मगधदेश के अचलग्राम का निवासी एक ब्राह्मण । यह अग्निला का पति तथा इन्द्रभूति और अग्निभूति का पिता था । मपु० ६२.३२५-३२६, पापु० ४.१९४-१९५
धरणीतिलक— विजयार्ध की दक्षिणश्रेणी के पचास नगरों में एक
नगर । हपु० २७.७७
धरणीधर- - इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न अयोध्या का एक नृप। यह श्रीदेवी का पति और त्रिदशंजय का पिता था। पपु० ५.५९-६० परणीमसि दक्षिण समुद्रतटवर्ती पृथ्वीकता-अटवी के मध्य स्थित एक पर्वत । कालान्तर में यहाँ किष्किन्धपुर की रचना हो जाने से 'यह किष्किन्धगिरि नाम से विख्यात हुआ । पपु० ६.५१० ५११, ५२०-५२१
परणेद्र – (१) भवनवासी नागकुमार देवों का इन्द्र यह तीर्थकर ऋषभदेव से भोग - सामग्री की याचना करनेवाले नमि और विनमि को भोग सामग्री देने का आश्वासन देकर उन्हें अपने साथ ले आया था। विजयार्ध पर आकर इसने नमि को विजयार्ध की दक्षिणश्र ेणी का और विनमि को विजयार्धं की उत्तरश्रेणी का स्वामी बनाया । दोनों को गान्धारपदा और पन्नगपदा विद्याएँ दीं। इसने दिति और अदिति देवियों के द्वारा भी विद्याओं के सोलह निकायों में से अनेक विद्याएँ दिलवाकर नमि और विनमि को सन्तुष्ट किया था । मपु० १८. ९४ ९६, १३९-१४५, १९.१८२-१८६, पपु० ३.३०६-३०८, इपु० २२.५६-६०
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धरणा-धर्म
(२) पश्चिम विदेह की वीतशोका नगरी के राजा वैजयन्ता ने दीक्षित होकर जब केवलज्ञान प्राप्त किया तो धरणेन्द्र उनकी वन्दना के लिए आया था । हपु० २७.५-९
(३) राजा वैजयन्त के पुत्र जयन्त भी अपने पिता के साथ मुनि हो गये थे । वैजयन्त मृनि के केवलज्ञान के समय उनकी वन्दना के लिए आये हुए धरणेन्द्र को देखकर जयन्त ने भी धरणेन्द्र होने का निदान किया था जिससे यह भी धरणेन्द्र हो गया । हपु० २७.५-९
(४) अपनी पूर्व पर्याय में यह एक सर्प था । तीर्थकर पार्श्वनाथ के नाना तापस महीपाल ने पंचाग्नि में डालने के लिए लकड़ी को फाड़ने हेतु जैसे ही कुल्हाड़ी उठायी कि पार्श्वनाथ ने इसमें जीव है कहकर उसे रोका किन्तु तापस ने लकड़ी फाड़ ही डाली थी, जिससे लकड़ी के भीतर रहनेवाले नाग-नागिन आहत हुए। मरते समय दोनों को पार्श्वनाथ ने शान्ति-भाव का उपदेश दिया जिससे मरकर नाग तो भवनवासी धरणदेव हुआ और नागिन पद्मावती देवी हुई । तापस महीपाल मरकर शम्बर नामक ज्योतिष्क देव हुआ | ध्यानस्थ पार्श्वनाथ को देखकर पूर्व वैरवश उसने पार्श्वनाथ पर अनेक उपसर्ग किये किन्तु इसने और इसकी देवी दोनों ने उन उपरागों का निवारण किया । मपु० ७३.१०१-१०३, ११६-११९, १३६-१४१ धरा-मथुरा के राजा चन्द्रप्रभ की रानी । इसके तीन भाई थेसूर्यदेव, सागरदेव और यमुनादेव । यह आठ पुत्रों की जननी थी । पुत्र थे श्रीमुख, सन्मुख, सुमुख, इन्द्रमुख, प्रभामुख, उपमुख अर्क मुख और अपरमुख | पपु० ९१.१९-२०
धरादेवी - चन्द्रपुर नगर के राजा हरि की रानी । व्रतकीर्तन इसका पुत्र था । पपु० ५.१३५-१३६
धराधर - विजयार्ध की दक्षिणश्रेणी के पचास नगरों में छत्तीसवाँ नगर । हपु० २२.९७
परावती अयोध्या नगरी के राजा हेमनाभ की रानी, मधु और कैटभ की जननी । हपु० ४३.१५९
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धर्म - ( १ ) एक चारण ऋद्धिधारी श्रमण । हपु० ६०.१७
(२) तीर्थंकर वासुपूज्य के प्रमुख गणधर । मपु० ५८.४४
(३) तीर्थंकर विमलनाथ के तीर्थ में हुआ तीसरा बलभद्र । यह द्वारावती नगरी के राजा भद्र और रानी सुभद्रा का पुत्र था । नारायण स्वयंभू इसका भाई था । मपु० ५९.८७ स्वयंभू मधु प्रतिनारायण को मारकर अर्ध भरतक्षेत्र का स्वामी हुआ । उसने बहुत काल तक राज्य का उपभोग किया। मरकर वह भी सातवें नरक में गया । अपने भाई के वियोग से उत्पन्न शोक के कारण यह विमलनाथ के समीप संयमी हुआ । उग्र तपस्या की, केवलज्ञान प्राप्त किया और संसार से मुक्त हुआ । अपने दूसरे पूर्वभव में यह भरतक्षेत्र के पश्चिम विदेहक्षेत्र में मिवनन्दी राजा था और प्रथम पूर्वभव में अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुआ। मपु० ५९.६४००१, ८७, ९५-१०६ वीवच०
१८.१०१,१११
(४) एक देव । कृत्याविद्या द्वारा पाण्डवों को भस्म किये जाने
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