Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
View full book text
________________
नोवेगा-मेनि
नोलवेगा - विजयार्ध की उत्तरश्रेणी में कांचनतिलक नगर के राजा महेन्द्रविक्रम की रानी, अजितसेन की जननी । मपु० ६३.१०५१०६
नीलांजना - ( १ ) शकटानुख नगर के स्वामी विद्याधर नीलवान् की पुत्री । यह नील विद्याघर की बहिन थी। इसका विवाह राजा सिंहद्रष्ट्र से हुआ था । इसकी पुत्री नीलयशा थी । हपु० २२.११३ - ११४ २३.१-६,
(२) विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्र ेणी में स्थित अलका नगरी के राजा मयूरबीन की रानी अदवसीय नीमरथ, नीलकंठ, सुकंठ और ब कंठ इसके पुत्र थे । मपु० ६२.५८-५९, वीवच० ३.६८-७० (३) इन्द्र की अप्सरा । इन्द्र तीर्थंकर वृषभदेव को वैराग्य उत्पन्न करने के लिए इसे स्वर्ग से धरा पर लाया था। इसने हाव-भावपूर्वक वृषभदेव के समक्ष नृत्य किया । नृत्य करते-करते इसकी आयु क्षीण हो गयी। इसके अदृश्य होनेपर वृषभदेव देह को क्षणभंगुर जानकर संसार से विरक्त हो गये थे । इसका अपरनाम नीलांजना था । मपु० १७.६-८, १४९, पपु० ३.२६३, हपु० ९.४७, पापु० २.२१५-२२१
नीवार — एक अन्न । इसका व्यवहार प्राचीन भारत में विशेष रूप से होता था । मपु० ३.१८६
नूपुर - स्त्रियों के पैरों का आभूषण आदिपुराण में अनेक प्रकार के नूपुरों का उल्लेख है । उनमें मुख्य हैं - शिजित नूपुर और मणिनूपुर । मपु० ६.६३, १६.२३७
1
नृगति मनुष्यगति। यह गति उन जीवों को मिलती है जो सरक स्वभावी सन्तोषी, सदाचारी, मन्दकषायी शुद्ध अभिप्रायी, विनीत और जिनेन्द्र, गुरू तथा धर्म के भक्त होते हैं । सम्यग्दर्शन और ज्ञान सेभूषित स्त्रियाँ भी अगले जन्म में पुरुष होती हैं । वीवच० १७. ९२-११८
नृत्य — भावों का अनुकरण । आदिपुराण में अनेक प्रकार के नृत्यों का उल्लेख है । ये मुख्य नृत्य हैं - ताण्डव, लास्य, अलातचक्र, इन्द्रजाल, चक्र, निष्क्रमण, सूची, कटाक्ष, बहुरूपी आदि मधु० १२.१९०१९७, १४.१२१-१५०
नृत्यगोष्ठी - प्राचीन भारत का मनोरंजन का एक प्रमुख साधन । उत्सवों के अवसरों पर नृत्य-गोष्ठियों की योजना होती थी। नृत्य देव देवियाँ और पुरुष स्त्रियाँ करते थे । मपु० १२.१८८.१४.१९२ नृपदत्त - राजा वसुदेव तथा देवकी का ज्येष्ठ पुत्र । देवपाल, अनीकदत्त, नोकपाल, शत्रुघ्न और जिस इसके छोटे भाई थे। इसका पालन सुभद्रि नगर के सेठ सुदृष्टि की स्त्री अलका के द्वारा हुआ था । इनमें प्रत्येक की बत्तीस-बत्तीस : स्त्रियाँ थीं यं तीर्थंकर नेमि के समवसरण में गये थे तथा वहाँ धर्मोपदेश सुनकर संसार से विरक्त हुए और इन्होंने निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण कर ली थी। धीर तप करके इन्होंने अनेक ऋद्धियां प्राप्त की थीं । अन्त में गिरनार पर्वत पर
Jain Education International
जैन पुराणकोश २०५
तपस्या करके ये सभी मोक्ष गये । हपु० ३३.१७०-१७१, ३५. ३-५, ५९.११५-१२४, ६५.१६-१७ तीसरे पूर्वभव में यह मथुरा के भानुसेठ का भानुकीति दूसरा पुत्र था। दूसरे पूर्वभव में यह जा पर्वत की दक्षिणश्रेणी के नित्यालोक नगर के राजा चित्रचूल का rosera पुत्र और प्रथम पूर्वभव में हस्तिनापुर में राजा गंगदेव और रानी नन्दयशा का गंग पुत्र हुआ । हपु० ३३.९७-९८, १९३२१३३, १४२-१४३
नृलोक - मनुष्यों की आवासभूमि अढ़ाई द्वीप जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, तीखण्ड द्वीप, कालोदधि समुद्र और पुष्करावं द्वीप मपु० ६१.१२
नेता सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम म० २५.११५ नेत्रवितान - एक वस्त्र । यह कलापूर्वक रेशम से बनाया जाता था ।
मपु० ४३.२११
नेवीपान् गोधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत नृषभदेव का एक नाम। ०२५.१७६ नेपाल - विन्ध्याचल के ऊपर स्थित एक देश । पपु० १०१.८१, हपु०
११.७४
नेमि - अवसर्पिणी काल के दुःखमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं बाईसवें तीर्थंकर । ये अरिष्टनेमि के नाम से विख्यात है मपु० २.१३२, ५० १.१३ ० १.२४, ० १८.१०१-१०७ । ये काश्यपगोत्री हरिवंश के शिखामणि द्वारावती नगरी के राजा समुद्र विजय के पुत्र थे । रानी शित्रदेवी इनकी माँ थीं। जयन्त विमान से चयकर कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन उतराबाढ़ नक्षत्र में रात्रि के पिछले प्रहर में सोलह स्वप्नपूर्वक माँ के गर्भ में आये तथा श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन ब्रह्मयोग के समय चित्रा नक्षत्र में इनका जन्म हुआ। जन्म से हो ये तोन ज्ञान के धारी थे। सौधर्म और ईशानेन्द्र ने चमर ढोरते हुए पाण्डुक पाण्डुक शिला पर विराजमान कर क्षीरसागर के जल से इनका अभिषेक किया था। ये नमिनाथ की तीर्थ परम्परा के पांच लाख वर्ष बीत जाने पर उत्पन्न हुए थे । इनकी आयु एक हजार वर्ष तथा शारीरिक अवगाहना दस धनुष थी । संस्थान और संहनन उत्तम थे । ये अपूर्व शौर्य के धारक थे । एक समय इन्होंने कृष्ण की पटरानी सत्यभामा से अपना स्नानवस्त्र धोने को कहा था जिसके उतर में सत्यभामा ने कहा था कि मैं ऐसे साहस के ही वस्त्र धोती हूँ जिसने नागशय्या पर अनायास ही शाङ्ग नामक दिव्य धनुष चढ़ाया है तथा शंख फूंका है। यह सुनकर इन्होंने भी दोनों काम कर दिखाये थे । इस कार्य से कृष्ण ने समझ लिया कि ये विवाह के योग्य हो गये हैं । इन्होंने भोजवंशी राजा उग्रसेन और रानी जयावती की पुत्री राजमति के साथ इनका सम्बन्ध तय कर दिया। विवाह की तैयारियाँ हुई । मांसहारीलेच्छ राजाओं के लिए मुगसमूह को एकत्र करके एक बाड़े में बाँधा गया । जब बरात उग्रसेन के नगर के पास पहुँची तो इन्होंने पशुओं के बन्धन का कारण पूछा। कारण बता दिया गया ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org