Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 290
________________ २०२ जैन पुराणकोश मधवान् — जरासन्ध के अनेक पुत्रों में एक पुत्र । हपु० ५२.३६ मद्यांग - भोगभूमि के दस प्रकार के कल्पवृक्षों में एक प्रकार का कल्पवृक्ष । ये स्त्री-पुरुषों को उनकी इच्छानुसार मादक पेय देते थे । मपु० ९. ३६-३८, हपु० ७.८०, ९०, वीवच० १८.९१-९२ चक्र मन — भरतक्षेत्र के दक्षिण आर्यखण्ड का एक देश । यहाँ तीर्थंकर वृषभदेव ने विहार किया था। भरत चक्रवर्ती के सेनापति ने इस देश को भरतेश के आधीन किया था। मपु० २५.२८७, २९.४१ मनक - जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में उत्तर आर्यखण्ड का एक देश । वर्ती भरत के एक छोटे भाई का यहाँ शासन था। भरतेश की आधीनता स्वीकार न कर वह वृषभदेव के पास दीक्षित हो गया था । तब यह भरतेश के साम्राज्य में मिल गया था । हपु० ११.६६-७७ मत्रकार - भरतेश के छोटे भाइयों द्वारा त्यक्त देशों में भरतक्षेत्र संबंधी आर्यंखण्ड के मध्य में स्थित एक देश । यह देश भी भरतेश के साम्राज्य में मिल गया था । हपु० ११.६४-६५ मन्त्री (१) राजा अन्यकदृति और उसकी रानी सुभद्रा की दूसरी पुत्री, कुन्ती की छोटी बहिन समुद्रविजय आदि इसके दस भाई थे। यह पाण्डु की द्वितीय रानी थी। नकुल और सहदेव इसके पुत्र थे । पति के दीक्षित हो जाने पर इसने भी संसार के भोगों से विरक्त होकर पुत्रों को कुन्ती के संरक्षण में छोड़ दिया था और संयम धारण करके गंगा-तट पर घोर तप किया था। अन्त में मरकर सौधर्म स्वर्ग में उपन्न हुई। इसका अपर नाम माद्री था। मपु० ७०.९४-९७, ११४-११६ ० १८.१२-१५, पा० ८.६५०५०, १०४-१७५, ९. १५६-१६१ (२) कौशल नगरी के राजा भेषज की रानी और शिशुपाल की जननी । इसने सो अपराध हुए बिना पुत्र को न मारने का कृष्ण से वचन प्राप्त किया था । मपु० ७१.३४२-३४८ 1 मधु - (१ ) वसन्त ऋतु । पु० ५५. २९ (२) एक लेह्य पदार्थ शहद । इसकी इच्छा, सेवन और अनुमोदना नरक का कारण है । मपु० १०.२१, २५-२६ 1 (३) तापस सित तथा तापसी मुगांगिण का पुत्र एक दिन इसने विनयदत्त द्वारा दत्त आहारदान का माहात्म्य देखकर दीक्षा ले ली थी । अन्त में यह मरकर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ था और वहाँ से चयकर कीचक हुआ । हपु० ४६.५४-५५ (४) भरतक्षेत्र का एक पर्वत । इसका अपर नाम धरणोमौलि था । किष्किन्धपुर की रचना हो जाने के बाद यह किष्किन्ध नाम से विख्यात हुआ । पपु० १.५८, ५.५०८-५११, ५२०-५२१ (५) रत्नपुर नगर का नृप-तीसरा प्रतिनारायण पूर्वभव में वाह राजा बलि था । इसने इस पर्याय में वर्तमान नारायण स्वयंभू के पूर्वभव के जीव सुकेतु का जुए में समस्त धन जीत लिया था । पूर्व जन्म के इस वैर से नारायण स्वयंभू मधु का नाम भी नहीं सुनना चाहता था। वह मधु के लिए प्राप्त किसी भी राजा की भेंट को स्वयं ले लेता था । इससे कुपित होकर मधु ने स्वयंभू को मारने के Jain Education International मद्यवान् - मधुक लिए चक्र चलाया था किन्तु चक्र स्वयंभू की दाहिनी भुजा पर जाकर स्थिर हो गया। इसी से स्वयंभू ने मधु को मारा था। वह मरकर सातवें नरक में उत्पन्न हुआ । मपु० ५९.८८-९९ (६) प्रद्युम्नकुमार के दूसरे पूर्वभव का जोव - जम्बूद्वीप के कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर के राजा अहंददास और उसकी रानी काश्यपा का ज्येष्ठ पुत्र और क्रीडव का बड़ा भाई | अर्हदास ने इसे राज्य और क्रीडव को युवराज पद देकर दीक्षा ले ली थी । अमलकण्ठ नगर का राजा कनकरथ इसका सेवक था । एक दिन यह कनकरथ की स्त्री कनकमाला को देखकर उस पर आसक्त हो गया । इसने कनकमाला को अपनी रानी भी बना लिया। अन्त में विमलवाहन मुनि से धर्म-श्रवण कर इसने दुराचार की निन्दा की और भाई क्रीडव के साथ यह संयमी बन गया। आयु के अन्त में विधिपूर्वक आराधना करके दोनों भाई महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्र हुए। यह वहाँ से च्युत होकर रुक्मिणी का पुत्र हुआ। हरिवंशपुराण में इसे अयोध्या नगरी के राजा हेमनाभ की रानी घरावती का पुत्र कहा है तथा वटपुर नगर के वीरसेन की स्त्री चन्द्राभा पर आसक्त बताया गया है । परस्त्री-सेवी को क्या दण्ड दिया जावे पूछे जाने पर इसने उसके हाथ-पैर और सिर काटकर शारीरिक दण्ड देने के लिए ज्यों ही कहा कि चन्द्राभा ने तुरन्त ही इससे कहा था कि परस्त्रीहरण का अपराध तो इसने भी किया है। यह सुनकर यह विरक्त हुआ और इसने दीक्षा ले ली। इस प्रकार दोनों भाई शरीर त्याग कर क्रमश: आरण और अच्युत स्वर्ग में इन्द्र और सामानिक देव हुए । इसके पुत्र का नाम कुलवर्धन था । मपु० ७२.३८-४६, पु० ४३.१५९-२१५ (७) मथुरा नगरी के हरिवंशी राजा हरिवाहन और उसकी रानी माधवी का पुत्र । असुरेन्द्र ने इसे सहस्रान्तक शूलरत्न दिया था । रावण की पुत्री कृतचित्रा इसकी पत्नी थी। शत्रुघ्न ने मथुरा का राज्य लेने के लिए इससे युद्ध किया था । युद्ध में अपने पुत्र लवणाव के मारे जाने पर इसने अपना अन्त निकट जान लिया था । अतः उसी समय दिगम्बर मुनियों के वचन स्मरण करके इसने दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग किया और मुनि होकर केशलोंच किया था। अन्त में समाधिपूर्वक शरीर त्याग कर यह सनत्कुमार स्वर्ण में देव हुआ । पपु० १२.६-१८, ५३-५४, ८०, १११, ११५, ८९.५-६ (८) एक नृप । जरासन्ध ने कृष्ण के पक्षधरों से युद्ध करने के लिए इसके मस्तक पर चर्मपट्ट बाँध कर इसे सेना के साथ समरभूमि में भेजा था । इसने कृष्ण का मस्तक काटने और पाण्डवों का विनाश करने की घोषणा की थी पर यह सफल नहीं हुआ। पापु० २०.३०४ (९) राम के समय का एक पेय-मदिरा। इसका व्यवहार सैनिकों में होता था । स्त्रियाँ भी मधु-पान करती थीं पपु० ७३.१३९, १०२. १०५ मधुक - जम्बूद्वीप में पूर्व विदेहक्षेत्र के पुष्कलावती देश की पुण्डरी किणी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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