Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
View full book text
________________
३०६ चैनपुराणकोश
मरकर नरक गया और नरक से निकलकर हाथी हुआ था । हपु० २७.९५-१०६
मेघपाटयद्वीप के भरतोष का एक देश महावीर विहार करते हुए यहाँ आये थे । पापु० १.१३३
मेघपुर - (१) जम्बूद्वीप के विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का एक नगर । रवनपुर के राजा जी को उसकी पुत्री स्वयंप्रभा के लिए मंत्री बहुश्रुत ने यहाँ के राजा पद्मरथ का नाम प्रस्तावित किया था । मपु० ६२.२५-३०, ६३, ६६, हपु० १५.२५
(२) पातकोखण्ड द्वीप के भरतक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का नगर । धनश्री इसी नगर के राजा धनंजय की पुत्री थी । मपु० ७१.२५२-२५३
दक्षिण
(३) जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र के विजयार्ष पर्वत को श्रेणी का एक नगर । विद्याधर अतीन्द्र यहाँ का राजा था । इन्द्र ने वरुण विद्याधर की लोकपाल के रूप में नियुक्ति कर उसे इसी नगर की पश्चिम दिशा में स्थापित किया था। पपु० ६.२-३, ७.१११
मेघप्रभ - ( १ ) विद्याबल से युक्त एक विद्याधर । अर्ककीर्ति और जयकुमार के बीच हुए युद्ध में यह जयकुमार का पक्षधर था । मपु० ४४.१०८, पापु० ३.९६
(२) विद्याधर खरदूषण का पिता । पपु० ९.२२
(३) अयोध्या का राजा । इसकी रानी सुमंगला थी । ये दोनों तीर्थंकर सुमतिनाथ के माता-पिता थे। पपु० २०.४१ मेघमाल - (१) विजयार्धं की उत्तरश्रेणी का तिरेपनवाँ नगर । हपु० २२.९१
(२) पश्चिम विदेहक्षेत्र में नील और सीतोदा के मध्य स्थित चौथा वक्षारगिरि । हपु० ५.२३२ मेघमाला - मथुरा के राजा रत्नवीर्य की रानी । लान्तवेन्द्र आदित्याभ के जीव मेरु की यह जननी थी । हपु० २७.१३५ मेधामी (१) नन्दन वन के हिम्मत् कूट की एक दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.३३३
(२) नारद देव की देवी । हपु० ६०.८०
(३) विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी के सुरेन्द्रकान्तार नगर के राजा मेघवाहन की रानी । इसके विद्युत्प्रभ पुत्र तथा ज्योतिर्माला पुत्री थी । मपु० ६२.७१-७२, पापु० ४.२९-३०
(४) भरतक्षेष के विजयार्थ पर्वत की उत्तरभंगी में व्योमवलम नगर के राजा मेघवाहन की रानी । मेघनाद इसका पुत्र था । मपु० ६२. २९-३० पा० ५.५०६, ३० मेघनाद
(५) राजा हेमांगद की रानी। यह राजा घनरथ की जननी थी । मपु० ६३.१८१ मेघमाली - रथनूपुर के राजा इन्द्र विद्याधर का पक्षधर एक देव । इसने राक्षस - सेना को भंग कर दिया था। पपु० १२.२०० - २०४
Jain Education International
मेघपाट - मेघरथ
मेघमुख - आवतं म्लेक्ष का कुलदेवता । इसने भरतेश के सेनापति जयकुमार के साथ युद्ध किया था। इस युद्ध में यह पराजित हुआ था । इसी विजय के अवसर पर जयकुमार को "मेघस्वर" नाम मिला था । मपु० ६२.५६-७१, हपु० ११.३२ ३७
मेघरथ - - ( १ ) भद्रिलपुर का निवासी और मलय देश का राजा । इसकी रानी सुभद्रा और पुत्र दृढरथ था इसने सुमन्दर मुनि से दीक्षा लेकर तप किया और बनारस में यह केवली हुआ । बारह वर्ष तक विहार करने के बाद राजगृही से इसने मोक्ष पाया । मपु०५६.५४, हपु० १८.११२ ११९
(२) सुराष्ट्र देश में गिरिनगर के राजा चित्ररथ और रानी कनकमालिनी का पुत्र । पिता के दीक्षित होने पर राज्य प्राप्त करते ही इसने मांस पकाने में दक्ष अमृत रसायन रसोइए से पिता द्वारा दिये गये बारह गाँवों में से ग्यारह गाँव वापिस ले लिये थे। जिस मुनि के उपदेश से यह श्रावक बना था तथा इसके पिता दीक्षित हुए थे उन मुनिराज को अमृतरसायन रसोइए ने कड़वी तुम्बी का आहार देकर मार डाला था । मपु० ७१.२७०-२७५, हपु० ३३.१५०-१५४
(३) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की अयोध्या नगरी का एक क्षत्रिय राजा तीर्थकर सुमतिनाथ इसकी रानी मंगला के गर्भ से हो जन्मे थे । इसका अपर नाम मेघप्रभ था । मपु० ५१.१९-२०, २३-२४ दे० मेप्रभ
( ४ ) तीर्थंकर शान्तिनाथ के दूसरे पूर्वभव का जीव-जम्बूद्वीप के पूर्वविदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा घनरथ और उसकी रानी मनोहरा का पुत्र । यह वज्रायुध का जीव था । इसकी दो रानियाँ थीं-- प्रियमित्रा और मनोरमा । इनमें प्रियमित्रा रानी से इसके नन्दिवर्धन पुत्र हुआ। जब मेघरथ एक शिला पर वनक्रीड़ा करते हुए बैठे थे उसी समय इनके ऊपर से जाते हुए एक विद्याधर के विमान की गति अवरुद्ध हो गयी । विद्याधर ने इन्हें शिला सहित उठाना चाहा किन्तु इन्होंने पैर के अंगूठे से जैसे ही शिला दबाई कि वह विद्याधर आकुलित हो उठा। विद्याधर की पत्नी के पति भिक्षा माँगने पर इन्होंने उस विद्याधर को मुक्त कर दिया था। ईशानेन्द्र ने इनके सम्यक्त्व की प्रशंसा की थी। प्रशंसा सुनकर परीक्षा करने की दृष्टि से अतिरूपा और सुरूपा नाम की दो देवियों ने इनके कामोन्माद को बढ़ाने की अनेक चेष्टाएँ की किन्तु दोनों विफल रहीं। पिता घनरथ तीर्थंकर से उपासक का धर्म श्रवणकर पुत्र मेघसेन को राज्य सौंपकर भाई दृढ़रथ तथा अन्य सात हजार राजाओं के साथ इन्होंने दीक्षा ले ली थी। तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर ये दृढ़रथ के साथ नभस्तिलक पर्वत पर एक मास का प्रायोपगमन - संन्यास धारण करते हुए शान्त परिणामों से शरीर छोड़कर अहमिन्द्र हुए और स्वर्ग से चयकर तीर्थंकर शान्तिनाथ हुए I मपु० ६३. १४२ - १४८, २३६-२४०, २८१-२८७, ३०६-३११, ३३१, ३३६-३३७, पपु० ७.११०, २०.१६४-१६५, पापु० ५.५३१०६
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org