Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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राम-रामगिरि
प्रजापति के मंत्री विजय के पुत्र और प्रथम पूर्वभव में देव थे। स्वर्ग से चयकर भरतक्षेत्र में ये वाराणसी नगरी के राजा दशरथ की रानी सुबाला के गर्भ में आये और फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी के दिन मघा नक्षत्र में इनका जन्म हुआ । इनकी तेरह हजार वर्ष की आयु थी । इनका नाम राम रखा गया था। रानी कैकयी का पुत्र लक्ष्मण इनका भाई था। दोनों भाई पन्द्रह धनुष ऊँचे, बत्तीस लक्षणों से सहित, वज्रवृषभनाराचसंहनन और समचतुरस्रसंस्थान के धारी थे । इनका शुभ्र 'वर्ण था। अयोध्या के राजा के मरने पर इनके पिता अयोध्या आये और वहीं रहने लगे थे । भरत और शत्रुघ्न का जन्म अयोध्या में ही हुआ था। राजा जनक ने यज्ञ की रक्षा के लिए इन्हें मिथिला बुलाया था । यज्ञविधि पूर्ण करके जनक ने इनका विवाह अपनी पुत्री सीता से कर दिया । वहाँ से लौटने पर दशरथ ने इनके सिर पर स्वयं राजमुकुट बाँधा तथा लक्ष्मण को युवराज बनाया था। राम, लक्ष्मण और सीता का हेतु चित्रकूट गये। इसी बीच नारद ने सीता के सौन्दर्य की प्रशंसा करके रावण को उसमें आकृष्ट किया । रावण ने जिस किसी प्रकार सीता को प्राप्त करना चाहा। उसकी आज्ञा से शूपर्णखा राम के पास गई। इन्हें देख वह मुग्ध हुई । वह सीता को रावण में आकृष्ट न कर सकी। पश्चात् रावण की आज्ञा से मारीच हरिण का शिशु रूप बनाकर सीता के सामने आया । सोता उसे देखकर उस पर आकृष्ट हुई। उसने राम से हरिण शिशु को पकड़ कर लाने के लिए कहा । राम उसे पकड़ने गये । इधर राम का रूप धारण कर रावण सीता के पास आया और छल से सीता को पालकी में बैठाकर हर ले गया । आकाशगामिनी विद्या नष्ट हो जाने के भय से रावण ने शीलवती पतिव्रता सीता का स्पर्श नहीं किया। रात भर राम वन में भटकते रहे । प्रातः लौटकर परिजनों से मिले। सीता के न मिलने से ये मूच्छित हो गये। इधर दशरथ को स्वप्न में का हरण दिखाई दिया । उन्होंने पत्र लिखकर राम को भेजी। राम को पत्र से सीता के मिला । वे चिन्तामग्न हो गये । इसी समय सुग्रीव और अणुमान् वहाँ आये । उन्होंने आगमन का कारण बताया। इन्होंने सब कुछ समझने के पश्चात् सुग्रीव को बाली द्वारा अपहृत किष्किन्धा का राजा बनाने का आश्वासन दिया और उन्होंने अपनी चिन्ता से उनको अवगत किया। अणुमान् ने उन्हें कहा कि यदि आज्ञा दें तो वे सीता का पता लगाने लंका चले जायेंगे। तब इन्होंने एक पिटारे में अपने परिचायक चिह्न मुद्रिका आदि सामग्री देकर हनुमान को सीता का पता लगाने भेजा । अणुमान् लंका गया । वहाँ भ्रमर का आकार बनाकर वह सोता से मिला। उसने मुद्रिका सीता को दी और धैर्य बँधाया। इसके पश्चात् हनुमान् के लंका से लौटकर आने पर उससे सीता के समाचार ज्ञात करके उसे इन्होंने अपना सेनापति और सुग्रीव को युवराज बनाया । पश्चात् राम ने पुनः हनुमान को लंका भेजकर विभीषण को सन्देश भेजा था कि वह रावण को समझाये । हनुमान ने लंका जाकर सब कुछ कहा। यह भी बताया कि राम के अनुराग
रावण द्वारा सीता अपसे स्वप्न की बात लंका में होने का वृत्त
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जैन पुराणकोश : ३२७
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से पचास करोड़ चौरासी लाख भूमिगोचरी और तीन करोड़ विद्याघर-सेना उनके पास आ गई है। रावण यह सुनकर कुपित हो गया और उसने अणुमान् का निरादर किया। पश्चात् हनुमान लंका से आये और उन्होंने राम से यथावत् सर्व वृत्त कहा। इतना होनेपर भी राम चित्रकूट वन में हो रहे। इसी बीच इन्होंने मन्दोमस बाली का लक्ष्मण के द्वारा वध कराया। इसके पश्चात् ये किष्किन्ध नगर में रहे। यहां इनकी चौदह अक्षौहिणी सेनाएं इकट्ठी हो गयी थीं। इन्होंने लक्ष्मण सुग्रीव और हनुमान को साथ लेकर सेना सहित का की ओर प्रस्थान किया । रावण के प्रतिकूल व्यवहार से रुष्ट होकर विभीषण भी इनका पक्षधर हो गया था । समुद्रतट पर पहुँचने के पश्चात् इन्होंने सुत्रीय और अणुमान् से गवाहिनी, सिंहवाहिनी, बन्पमोचिनी और हननावरणी विद्याएं प्राप्त की तथा प्रज्ञप्ति विद्या से निर्मित विमानों के द्वारा अपनी सेना लंका भेजी । वहाँ रावण से युद्ध हुआ। रावण ने राम को मोहित करने माया से सीता का सिर काटकर दिखाया किन्तु विभोषण ने इन्हें इसे रावण का माया कृत्य बताकर सावधान किया । पश्चात् इन्होंने रावण से युद्ध किया । रावण ने चक्र चलाया किन्तु चक्र लक्ष्मण के दायें हाथ में आकर स्थिर हो गया । तब लक्ष्मण ने इसी चक्र से रावण का सिर काट दिया । लंका विजय के पश्चात् राम अशोक वन में सीता से मिले । एक दूसरे को अपने-अपने दुःख बताकर सुखी हुए । इन्होंने सीता को निर्दोष जानकर स्वीकार किया । इनकी आठ हजार रानियाँ थीं । सोलह हज्जार देश और राजा इनके अधीन थे । ये अपराजित हलायुध,
अमोघ बाण, कौमुदी गदा और रत्नावतंसिका माला इन चार रत्नों के धारी थे। इन्होंने शिवगुप्त मुनि से धर्मोपदेश सुना और श्रावक के व्रत लिये। कुछ दिन अयोध्या रहकर वहाँ का राज्य भरत और शत्रुघ्न को देकर वाराणसी चले गये । लक्ष्मण इनके साथ थे । विजयराम इनका पुत्र था । असाध्य रोग के कारण लक्ष्मण के मरने पर उनके पृथिवीचन्द्र पुत्र को राज्य देकर उसे इन्होंने पट बाँचा तथा सीता के विजयराम आदि आठ पुत्रों में सात बड़े पुत्रों के राज्यलक्ष्मी स्वीकार न करने पर सबसे छोटे पुत्र अजितंजय को युवराज बनाया । पश्चात् मिथिला देश उसे देकर ये विरक्त हो गये थे । शिवगुप्त केवली से निदान शल्य से लक्ष्मण का मरण ज्ञात करके ये लक्ष्मण से भी निर्मोही हुए और पाँच सौ राजाओं तथा एक सौ अस्सी पुत्रों के साथ संयमी हो गये । सीता और पृथिवी सुन्दरी ने भी श्रुतवती आर्यिका के समीप दीक्षा धारण कर ली थी। ये और अणुमान् श्रुतकेवली हुए । तदनुसार छद्मस्थ अवस्था के तीन सौ पंचानवें वर्ष बाद घातिया कर्मों का क्षय करके ये केवली हुए । इसके पश्चात् छः सौ वर्ष बाद फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी के दिन प्रातः वेला में सम्मेदशिखर पर ये अघातिया कर्मों को नाश करके सिद्ध हुए । मपु० ६७.८९-९१, १४६-१५४, १६४-१६७, १८०-१८१, १८.२४-७२१ पद्मपुराण के अनुसार रामचरित के लिए दे० पद्म-२१
रामगिरि - राम-लक्ष्मण द्वारा सेवित एक पर्वत । राम ने यहाँ अनेक जिनमन्दिर बनवाये थे । अज्ञात वास के समय पाण्डव कौशल देश से
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