Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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३२६ : जैन पुराणकोश
राजाख्यान-राम दण्ड, गढ़ और मित्र ये सात प्रकृतियाँ होती हैं । ये तीन प्रकार के रानियों ने भी दीक्षा ली थी। यह संघ की मुख्य आयिका बनी। होते है-लोभविजय, धर्मविजय और असुरविजय । इनमें प्रथम वे कुन्ती, सुभद्रा और द्रौपदी ने इसी से दीक्षाएँ लीं। आयु की समाप्ति है जो दान देकर राजाओं पर विजय करते हैं । दूसरे वे हैं जो शान्ति होने पर यह सोलहवें स्वर्ग में देव हुई । मपु० ७१.१४५-१७२, १८६, का व्यवहार करके विजय करते हैं और तीसरे वे हैं जो भेद तथा हपु० ५५.७२, १३४, ५७.१४६, पापु० २२.४१-४५, २५.१५, दण्ड का प्रयोग करके राजाओं को अपने आधीन करते है । शत्रु, मित्र १४१-१४३ और उदासीन के भेद से भी ये तीन प्रकार के होते हैं। मंत्रशक्ति, राजीवसरसी-दक्षिणश्रेणी में ज्योतःप्रभ नगर के राजा विशुद्धकमल और प्रभुशक्ति और उत्साहशक्ति से युक्त राजा श्रेष्ठ होता है । राजा के रानी नन्दनमाला की पुत्री । यह विभीषण की रानी थी। पपु० ८. गुप्तचर भी होते हैं। ये रहस्यपूर्ण बातों का पता लगाकर राज्य- १५०-१५१ शासन को सुदृढ़ बनाते हैं। प्रभुशक्ति की हीनाधिकता के कारण ये
रात्रिभुत्तित्याग-(१) श्रावक की छठों प्रतिमा । इसमें रात्रि में चतुर्विध आठ प्रकार के होते हैं-चक्रवर्ती, अधचक्रवर्ती, मण्डलेश्वर, अर्धमण्ड
आहार का और दिन में मैथुनसेवन का त्याग किया जाता है । लेश्वर, महामाण्डलिक, अधिराज, राजा और भूपाल । मपु० ४.७०,
वीवच० १८.६२ १९५, ५.७, १६.२५७, २६२, २३.६०, ३७.१७४-१७५, ४२.४
(२) आचार्य जिनसेन द्वारा माने गये छ: महाव्रतों में छठा ५, ३१-३२, ४९-१९९, ६२.२०८, ६८.६०-७२, ३८४-४४५
महाव्रत । इसका पालन करनेवाला सब प्रकार के आरम्भ में प्रवृत्त राजाख्यान-जिनागम में कहे गये चार आख्यानों में (लोकाख्यान, रहने पर भी सुखदायी गति पाता है। मपु० ३४.१६९, पपु०
देशाख्यान, पुराख्यान और राजाख्यान) चौथा आख्यान । इसमें राजा ३२.१५७ के अधीन देश और नगर आदि का तथा उसके प्रभाव क्षेत्र का वर्णन रात्रिषेणा-तीर्थकर पद्मप्रभ के संघ की चार लाख बीस हजार किया जाता है । मपु० ४.४-७
आर्यिकाओं में मुख्य अयिका । मपु० ५२.६३ राज्याभिषेक-राजा को राज्य का स्वामित्व प्राप्त होने के समय होने- राधा-चम्पापुर के राजा आदित्य की रानी। आदित्य को यमुना में
वाली राजकीय एक विधि-स्नपनक्रिया । इस समय नगर ध्वजा और बहता हुआ सन्दूकची में बन्द एक शिशु प्राप्त हुआ था। उसने वह पताकाओं से सजाया जाता है । बन्दी जन मंगलपाठ करते हैं । जय- शिशु इसे दिया। इसने शिशु को कान का स्पर्श करते हुए देखकर जय की ध्वनि होती है। सभामण्डप के मध्य मिट्टी की वेदी का उसका नाम "कर्ण' रखा था। मपु० ७०.१११-११४, पापु० ७. सृजन होता है । आनन्दमण्डप में सुगन्धित पुष्प फैलाये जाते हैं। २८३-२९७ दे० कर्ण मोतियों के बन्दनवारे लटकाये जाते हैं। मण्डप के मध्य में अष्ट ___ राधावेष-द्रौपदी के स्वयंवर हेतु राजा द्रुपद द्वारा कराई गयी दो मंगलद्रव्य रखे जाते हैं । जिसका राज्याभिषेक होना होता है उसे पूर्व घोषणाओं में दूसरी घोषणा । इसमें घूमती हुई राधा-मछली की नाक को ओर मुख करके सिंहासन पर बैठाया जाता है। सामन्त एवं के मोतो का बाण से भेदन करना था । अर्जुन ने बाण चढ़ाकर राधा अधीनस्थ राजन्यवर्ग स्वर्ण कलशों में रखे गये औषधिमिश्रित जल से के मोती को बेधा था और द्रौपदी को प्राप्त किया था। इसका अपर उसका अभिषेक करते हैं । इसके लिए जल गंगा, सिन्धु आदि नदियों नाम चन्द्रकवेध था । हपु० ४५.१२७, १३४-१४६, पापु० १५.१०९तथा गंगाकुण्ड और सिंधकुण्ड से लाया जाता । उत्तराधिकार प्रदान है करनेवाला राजा उत्तराधिकारी का अभिषेक होने के पश्चात् पट्ट राम-(१) बलभद्र । इनके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और बाँधकर उसे वस्त्राभूषण देते हुए राज्य का स्वामित्व प्रदान करता तप के समान लक्ष्मी बढ़ानेवाले गदा, रत्नमाला, मुसल और हल ये है । मपु० १६.१९६-२१५, २२५-२३३
चार रत्न थे। अवसर्पिणी काल में ये नौ हुए है । इनमें विजय प्रथम राजिला-क्रौंचपुर नगर के राजा यक्ष की रानी । यह यक्षदत्त की जननी बलभद्र था । शेष आठ बलभद्र थे-अचलस्तोक, धर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, थी । पपु० ४८.३६-३७
नन्दिषेण, नन्दिमित्र, पद्म और राम । मपु० ७.८२, ५७.८६-८९, राजीमति-उग्रवंशी राजा उग्रसेन और रानी जयावती की पुत्री । कृष्ण ९३, ५८.८३, ५९.६३, ७१, ६०.६३, ६१.७०, ६५.१७६-१७७,
ने इस कन्या की नेमिकुमार के लिए याचना की थी। स्वीकृति मिलने ६६.१०६-१०७, ६७.८९, ७०.३१९, हपु० ३२.१०, वीवच० १८. पर यह विवाह निश्चित हो गया। इधर राजा उग्रसेन ने विवाह १११ दे० बलभद्र मण्डप सजाया। उन्होंने मांसाहारी राजाओं के लिए पशुओं को एक (२) राम की जीवन कथा जैन-पुराणों में दो प्रकार की मिलती बाड़े में इकट्ठा किया । बारात आई । नेमिकुमार वहाँ बाँधे गये पशुओं है । एक कथा आचार्य रविषेण के पद्मपुराण में है । वहाँ राम को को देखकर छुब्ध हुए। जब उन्हें यह पता चला कि इन पशुओं का पदम कहा गया है अतः वह पद्म के प्रसंग में दे दी गयी है । महाबारात के भोजन के लिए वध किया जायेगा तो वे विरक्त हो गये पुराण में पद्म को राम ही कहा गया है । उनको कथा इस प्रकार और राज्य त्याग कर तप करने वन की ओर चले गये । यह जानकर मिलती है-तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ में हुए आठवें बलभद्र । राजोमति ने भी संयम धारण कर लिया। इसके साथ अन्य छः हजार
दूसरे पूर्वभव में ये भरतक्षेत्र के मलय देश में रत्नपुर नगर के राजा
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