Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
View full book text
________________
रावासद्वीप-राजा
जैन पुराणकोश : ३२५
रक्षा होने से यहां के निवासी राक्षस नाम से प्रसिद्ध हुए। पपु० ५.३८६
(९) विद्याधर । ये न देव होते हैं न राक्षस । ये राक्षस नामक द्वीप के रक्षक होने से राक्षस कहलाते थे । पपु० ४३.३८
(१०) एक अस्त्र-बाण । जरासन्ध ने इस को कृष्ण पर फेंका था और कृष्ण ने इस अस्त्र का नारायण अस्त्र से निवारण किया था। हपु० ५२.५४ राक्षसद्वीप-लवणसमुद्र में विद्यमान द्वीपों के मध्य स्थित एक द्वीप।
राक्षस विद्याधरों की क्रीडास्थली होने से यह इस नाम से प्रसिद्ध था। यह सात सौ योजन लम्बा और इतना ही चौड़ा था। इस द्वीप के मध्य में त्रिकुटाचल पर्वत और इस पर्वत के नीचे लंका नगरी है। पपु० ५.१५२-१५८ राक्षस-विवाह-विवाह का एक भेद । इसमें कन्या का बलपूर्वक अपहरण
करके उससे विवाह किया जाता है । मपु० ६८.६०० राक्षसी-विद्या-एक विद्या। राक्षसों के इन्द्र भीम ने यह विद्या पूर्णघन
के पुत्र मेघवाहन को दी थी। पपु० ५.१६६-१६७ राग-(१) इष्ट पदार्थों के प्रति स्नेह-भाव । यह संसार के दुःखों का कारण होता है । पपु० २.१८२, १२३.७४-७५
(२) रावण का सामन्त । इसने राम की सेना से युद्ध किया था। पपु० ५७.५३ राजगुप्त-ऐरावत क्षेत्र के शंखपुर नगर का राजा । शंखिका इसकी
रानी थी। इसने थतीश्वर धृतिषेण को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । आयु के अन्त में यह संन्यासपूर्वक मरकर ब्रह्ममेन्द्र हुआ। मपु० ६३.२४९ राजगृह-भरतक्षेत्र में मगधदेश का एक नगर । तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ
का जन्म इसी नगर में हुआ था। इसका अपर नाम कुशाग्रपुर था । यह नगर पांच शैलों के मध्य में होने से इसे पंचर्शलपुर भी कहते थे। इसके पाँच शैल है-इसकी पूर्वदिशा में चौकोर ऋषिगिरि, दक्षिणदिशा में त्रिकोण वैभार, दक्षिण-पश्चिम दिशा में त्रिकोणाकार विपुलाचल, धनुषाकार बलाहक तथा पूर्व और उत्तर दिशा के अन्त
राल में स्थित वतुलाकार पाण्डुक शैल। यह शैल केवल वासुपूज्य जिनेन्द्र को छोड़कर अन्य सभी तीर्थंकरों के समवसरणों से पवित्र है। मपु० ५७.७०-७२, ६७.२०-२८, पपु० २.१, ३३, ३५.५३-५४, हपु० ३.५२-५७, १८.११९ राजत-रजतमय विजयार्द्ध पर्वत । इसके नौ शिखर हैं जो मणियों से निर्मित हैं । इसके शिखर भाग से झरने जरते हैं। यहाँ नाग, नागकेसर और सुपारी के सुन्दर वृक्ष हैं । दिग्विजय के समय भरतेश यहाँ ससैन्य आये थे । मपु० ३१.१४-१९ राजतमालिका-चम्पा नगरी की निकटवर्तिनी एक नदी। तीर्थङ्कर वासुपूज्य ने इसी नदी के तट पर स्थित मन्दागिरि के मनोहर उद्यान में योग-निरोध करके निर्वाण प्राप्त किया था। मपु० ५८.५०-५३ राजधानी-आठ सौ ग्रामों में प्रमुख नगर । मपु० १६.१७५
राजपुर-(१) जम्बूद्वीप में वत्सकावती देश के विजयाध पर्वत का एक नगर । विद्याधरों का चक्रवर्ती राजा धरणीकम्प इसी नगर में रहता था। मपु० ४७.७२-७३
(२) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में हेमांगद देश का नगर । राजा सत्यन्धर इस नगर का स्वामी था । मपु० ७५.१८८-१८९ राजमाष-रोसा । वृषभदेव के समय में भी इसका भोजन-सामग्री के रूप
में व्यवहार होता था । मपु० ३.१८७ राजविद्या-राज्य संचालन की विद्या । यह धर्म, अर्थ और काम तोनों
पुरुषार्थों को सिद्ध करनेवाली होती है और राजा के लिए परमावश्यक
है। मपु० ४.१३६, ११.३३ राजवृत्ति-राजा का कार्य । पक्षपात रहित होकर कुल की मर्यादा, बुद्धि
और अपनी रक्षा करते हुए न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करना राजाओं की राजवृत्ति कहलाती है । मपु० ३८.२८१ राजसिंह-मधुकीड प्रतिनारायण का जीव-एक राजा। यह मल्लयुद्ध का
जानकार था। राजगृह नगर के राजा सुमित्र को इसने पराजित किया था। मपु० ६१.५९-६० राजसूय-चक्रवर्ती सगर के समय में प्रचलित एक अनार्ष-यज्ञ। यह
महाकाल देव के द्वारा हिंसा की प्रेरणा देने के लिए चलाया गया था। इसमें राजा होमे जाते थे। सगर चक्रवर्ती और उनको पत्ली सुलसा
इसी यज्ञ में होमे गये थे। हपु० २३.१४२-१४६ राजा-(१) देश का प्रधान पुरुष । यह प्रजा का रक्षक होता है । प्रजा
का पालन करने में इसकी न कठोरता अच्छी होती है और न 'कोमलता । इसे मध्यवृत्ति का आचरण करना होता है । अन्तरंग शत्रुकाम, क्रोध, मद, मात्सर्य, लोभ और मोह को जीतकर बाह्य शत्रुओं को भी अपने आधीन करना इसका कर्तव्य है। यह धर्म, अर्थ और काम तीनों का सेवन करता है, राज्य प्राप्त होने पर मद नहीं करता, यौवन, रूप, कुल, ऐश्वर्य, जाति आदि मिलने पर अहंकार नहीं करता तथा प्रजा का क्षोभ और भय दूर करके उन्हें न्याय देता है । अन्याय, अत्यधिक विषय-सेवन और अज्ञान इसके दुर्गुण हैं। मुख्यतः राजा के पाँच कर्तव्य होते हैं-कुल का पालन, बुद्धि का पालन, स्व-रक्षा, प्रजा-रक्षा और समंजसत्व । इनमें कुल के आम्नाय की रक्षा करना कुलानुपालन और लोक तथा परलोक सम्बन्धी पदार्थों के हिताहित का ज्ञान प्राप्त करना मत्यनुपालन है । स्वात्मा का विकास आत्मरक्षा तथा प्रजा की रक्षा प्रजापालन है । दुष्टों का निग्रह और शिष्ट पुरुषों का पालन करना समंजसत्व कहलाता है। राज्य संचालन में इसे अमात्य सहयोग करते हैं। इसकी मंत्रिपरिषद् में कम से कम चार मंत्री होते हैं। कार्य की योजना इसे ये ही बनाकर देते हैं । यह भी मंत्रियों की स्वीकृति लिये बिना योजना लागू नहीं करता। पुरोहित भी राजकाज में इसका सहयोग करते हैं । सेनापति इसकी सेना का संचालन करता है । यह साम, दाम, दण्ड और भेद इन चार उपायों से अपना प्रयोजन सिद्ध करता है । सन्धि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय और द्वेधीभाव ये इसके छः गुण तथा स्वामी, मंत्री, देश, खजाना,
Jain Education Interational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org