Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 326
________________ ३०८ : जैन पुराणकोश मेय-मेरुमतो कन्या थी। इसका नाम पुष्पवती था। श्रावकव्रत पूर्वक मरने से यह देवांगना हुई थी। मपु० ४६.२५७-२५९, पापु० ७.३१ मेय-मेय, देश, तुला और काल के भेद से चतुर्विध मानों में प्रथम मान । प्रस्थ आदि के द्वारा मापने योग्य वस्तु मेय कहलाती हैं । पपु० २४.६० मेरक-तीसरा प्रतिनारायण । मेरुक और मधु ये इसके दो अपर नाम थे। मपु० ५९.८८, पपु० २०.२४४, हपु० ६०.२९१, वीवच. १८.११४ दे० मधु मेरु-(१) तीर्थकर वृषभदेव के तेईसवें गणधर हपु० १२.५९ (२) सिन्धु देश के वीतभय नगर का राजा। इसकी रानी का नाम चन्द्रवती और पुत्री का नाम गौरी था। कृष्ण इसके दामाद थे । इसने कृष्ण से अपनी पुत्री गोरी विवाही थी। पपु० ४४.३३-३६, हपु० ४४.३३ (३) एक पर्वत । देव तीर्थङ्करों के जन्माभिषेक के लिए इसी पर्वत पर पाण्डुकशिला की रचना करते हैं। इसका विस्तार एक लाख योजन होता है। यह एक हजार योजन पृथिवीतल से नीचे और निन्यान्नवें हजार योजन पृथिवीतल के ऊपर है । इस पर्वत का स्कन्ध एक हजार योजन है। इसके भूमितल पर भद्रशाल नामक प्रथम वन है । इस वन से दो हजार कोश ऊपर इसकी प्रथम मेखला पर नन्दन वन है । इस वन से साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर तीसरा सौमनसवन और इसके भी छत्तीस हजार योजन ऊपर पाण्डुक वन है । इन चारों वनों से शोभित यह मेरु पर्वत अनादिनिधन, सुवृत्त और स्वर्णमय है। यह एक लाख योजन ऊंचा है। इस पर सर्वदा प्रकाशमान देवाचित अकृत्रिम चैत्यालय विद्यमान है। इसकी पश्चिमोत्तर दिशा में स्वर्णमय गन्धमादन पर्वत, पूर्वोत्तर दिशा में वैडूर्यमणिमय माल्यवान्, पूर्वदक्षिणदिशा में रजतमय सौमनस और दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्वर्णमय विद्युतप्रभ पर्वत हैं। इन चारों पर्वतों पर क्रम से सात, नौ, सात और नौ कूट है। यह मध्यलोक के मध्य में स्थित लवणसमुद्र से आवेष्टित जम्बूद्वीप के मध्य में नाभि के समान है। मपु० ४.४७-४८, ५.१६२-२१६, हपु० ५.१, २०.५३, ३८.४४, वीवच० ८.१०८-११६ (४) उत्तर-मथुरा के राजा अनन्तवीर्य और रानी मेरुमालिनी का पुत्र । आदित्यप्रभदेव का जीव । इसने विमलवाहन तीर्थकर से अपने पूर्वभव सुनकर दीक्षा ग्रहण की थी तथा उनका यह गणधर हुआ । अन्त में यह सप्त ऋद्धियों से युक्त होकर मोक्ष गया । नौवें पूर्वभव में यह कौशल देश के वृद्धग्राम में ब्राह्मण मृगायण की पुत्री मथुरा, आठवें में पोदनपुर के राजा पूर्णचन्द्र को रानी रामदत्ता, सातवें में महाशुक्र स्वर्ग में भास्करदेव, छठे में धरणीतिलक नगर के राजा अशनिवेग की पुत्री श्रीधरा, पाँचवें में कापिष्ठ स्वर्ग के रुचक विमान का देव, चौथे में घरणीतिलक के राजा अतिवेग की पुत्री रत्नमाला, तीसरे में स्वर्ग में देव, दूसरे में पूर्वधातकीखण्ड के गन्धिल देश की अयोध्या नगरी के राजा अर्हद्दास का पुत्र वीतभय और प्रथम पूर्वभव में लान्तव स्वर्ग में आदित्यप्रभ देव हुआ था। इसके पिता का अपर नाम रत्नवीर्य और माता का अपर नाम अमितप्रभा था। मपु० ५९.२०७-३०९, हपु० २७.१३५-१३६ (५) कृष्ण का पक्षधर इक्ष्वाकुवंशी राजा। यह एक अक्षौहिणी सेना का अधिपति था । हपु० ५०.७० (६) राजा इन्द्रमत् का पुत्र और मन्दर का पिता । पपु० ६.१६१ (७) राम का सामन्त । राम-रावण युद्ध में यह राम की ओर से रावण से लड़ा था। मपु० ५८.१५-१७ (८) मेघपुर नगर का राजा एक विद्याधर । इसकी रानो मघोनी तथा पुत्र मृगारिदमन था । पपु० ६.५२५ (९) महापुर नगर का एक सेठ । इसकी पत्नी धारिणी और पुत्र पद्मरुचि था । पपु०१०६.३८ (१०) तीर्थकर विमलनाथ के एक गणधर । मपु० ५९.१०८ मेरुकवत्त-एक श्रेष्ठी। इसकी स्त्री का नाम धारिणी था। इसके शास्त्रज्ञ चार मंत्री थे-भूतार्थ, शकुनि, बृहस्पति और धन्वन्तरि । इसने और इसकी पत्नी दोनों ने पुष्कलावती देश के धान्यकमाल नगर के सामन्त शक्तिवेग और उसकी पत्नी अटवीश्री को मुनियों को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त करते हुए देखकर अगले जन्म में उन दोनों को अपने यहाँ उत्पन्न होने का निदान किया था। मपु० ४६.९४-९६, ११२-११३, १२३-१२५ मेरुकान्त-मन्दरकज नगर का राजा । श्रीरम्भा इसकी रानी और पुरन्दर पुत्र था । पपु० ६.४०८-४०९ मेरुचन्द्र-भरतक्षेत्र के वीतशोक नगर का राजा । इसको रानी चन्द्रमती थी। इसने पुत्री गौरी कृष्ण को दी थी। हपु० ६०.१०३-१०४ मेरुवत्त-यादवों का एक पक्षधर राजा । कृष्ण और जरासन्ध के युद्ध के समय इसके रथ में सफेद और लाल रंग के पाँच वर्ष के घोड़े जोते गये थे। यह राजा नग्नजित् का पुत्र था । हपु० ५२.२१ मेरुनन्दना-नन्दनवन के एक व्यन्तरदेव की स्त्री। यह आगामी चौथे ___ भव में कृष्ण की पटरानी जाम्बवती हुई थी। हपु. ६०.४६ मेरुपंक्तिवत-एक व्रत। इसमें जम्बूद्वीप, पूर्वधातकोखण्ड, पश्चिम धातकीखण्ड, पूर्व पुष्कराध, पश्चिम पुष्कराध इस प्रकार ढ़ाई द्वीपों के पाँच मेरु, प्रत्येक मेरु के चार-चार वन तथा प्रत्येक वन के चारचार चैत्यालयों को लक्ष्य करके अस्सी उपवास और बीस वन सम्बन्धी बीस बेला किये जाते हैं । सौ स्थानों की सौ पारणाएँ करने का विधान __ होने से इसमें दो सौ बीस दिन लगते है । हपु० ३४.८५ मेरुमती-गान्धार देश की पुष्कलावती नगरी के राजा इन्द्रगिरि की रानी । यह कृष्ण की पटरानी गान्धारी की जननी थी। मपु०७१. ४२५-४२८, हपु० ६०.९३ मेरुमालिनी-उत्तर मथुरा नगरी के राजा अनन्तवीर्य को रानी । मेरु इसका पुत्र था। मपु० ५९.३०२ दे० मेरु-४ मेरुषेणा-तीर्थकर अभिनन्दननाथ के संघ की तीन लाख तीन हजार छः सौ आर्यिकाओं में प्रधान आर्यिका । मपु० ५०.६१-६२ मेरुमतो-गान्धार देश की पुष्कलावती नगरी के राजा इन्द्रगिरि की Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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