Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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महासेन-महीपर
महासेन–(१) भोजकवृष्णि और रानी पद्मावती का दूसरा पुत्र । यह
उग्रसेन का अनुज और देवसेन का अग्रज था । मपु० ७०.१००, हपु०
१८.१६
जैन पुराणकोश : २९१ महाहिमवत्कूट-महाहिमवान् पर्वत के आठ कूटों में दूसरा कूट । हपु०
५.७१ महाहृदय-कुण्डलगिरि के अंकप्रभकूट का निवासी देव । हपु० ५.६९३ महितोदय-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.
१५९ महिदेव-कौशाम्बी के वैश्य बृहद्घन का पुत्र और अहिदेव का भाई।
इन दोनों भाइयों के पास एक रल था। वह जिस भाई के पास रहता वह दूसरे भाई को मारने की इच्छा करने लगता । अतः ये दोनों भाई रत्न माता को देकर विरक्त हो गये थे। पपु० ५५.
(२) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३८ (३) कृष्ण की पटरानी लक्ष्मणा का भाई । हपु० ४४.२५ (४) उग्रसेन के चाचा शान्तनु का पुत्र । हपु० ४८.४० (५) कृष्ण का पुत्र । हपु० ४८.७०, ५०.१३१
(६) रविषणाचार्य के पूर्व हुए एक कवि-आचार्य । ये सुलोचना कथा के लेखक थे । हपु० १.३३
(७) भरतक्षेत्र में स्थित चन्द्रपुर नगर का राजा । यह इक्ष्वाकुवंशी और काश्यपगोत्री चन्द्रप्रभ तीर्थकर का पिता था। इसकी रानी का नाम लक्ष्मणा था । मपु० ५४.१६३-१६४, १७३, पपु० २०.४४
(८) धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वविदेहक्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी का राजा। वसुन्धरा इसकी रानी तथा जयसेन पुत्र था। मपु० ७.८४-८६
(९) चक्रवर्ती हरिषेण का पुत्र । हरिषेण इसे ही राज्य देकर संयमी हुआ था । मपु० ६७.८४-८६
(१०) विजया पर्वत की उत्तरदिशा में स्थित अलका नगरी के राजा हरिबल का भाई और भूतिलक का अग्रज । इसके स्त्री सुन्दरी से उग्रसेन और वरसेन नाम के दो पुत्र तथा वसुन्धरा नाम की एक कन्या हुई थी। इसने व्यन्तर देवताओं को युद्ध में जीतकर एक सुन्दर नगर को अपनी आवासभूमि बनाया था। अपने भाई हरिबल के पुत्र भीमक को इसने पराजित कर उसे पहले तो बन्धनों में रखा फिर शान्त होने पर उसे मुक्त कर दिया । भीमक अपनी पराजय भूल नहीं सका । उसने उसका राज्य लौटा दिया और राक्षसी विद्या सिद्धकर इसे मार डाला । मपु० ७६.२६२-२८०
(११) तीर्थकर पार्श्वनाथ का मुख्य प्रश्नकर्ता । मपु० ७६.५३२ महाहिमवत्-(१) छः कुलाचलों में दूसरा कुलाचल । इसका विस्तार
चार हजार दो सौ दस योजन तथा दस कला प्रमाण है । यह पृथिवी से दो सौ योजन ऊपर तथा पचास योजन पृथिवी के नीचे हैं । इसकी प्रत्यंचा का विस्तार तिरेपन हजार नौ सौ इकतीस योजन तथा कुछ अधिक छः कला है। इस प्रत्यंचा के धनुःपृष्ठ का विस्तार सत्तावन हजार दो सौ तिरानवे योजन तथा कुछ अधिक दस अंश है। इसके बाण की चौड़ाई सात हजार आठ सौ चौरानवे योजन तथा चौदह भाग है। चूलिका आठ हजार एक सौ अट्ठाईस योजन तथा साढ़े चार कला प्रमाण। इसकी दोनों भुजाएँ नौ हजार दो सौ छिहत्तर योजन तथा साढ़े नौ कला प्रमाण हैं । इसके आठ कूट हैं-सिद्धायतन, महाहिमवत्, हैमवत, रोहित, ह्री, हरिकान्त, हरिवर्ष और वैडूर्य । इन सब कूटों की ऊँचाई पचास योजन है। मूल में इनका विस्तार पचास योजन, मध्य में साढ़े सैंतीस योजन और ऊपर पच्चीस योजन है । मपु० ६३.१६३, पपु० १०५.१५७-१५८, हपु० ५.१५, ६३-७३
मरिम-भरतेश के भायों द्वारा छोडे गये देशों में भरतक्षेत्र के पश्चिम __ आर्यखण्ड का एक देश । हपु० ११.७२ महिमा-चक्रवर्ती भरत को प्राप्त आठ असाधारण गुणों में दूसरा गुण ।
मपु० ३८.१९३ दे० अणिमा महिष-(१) मध्य आर्यखण्ड का एक देश । भरतेश ने यहां के राजा को दण्डरत्न से वश में किया था । मपु० २९.८०
(२) चक्रवर्ती भरत के समय का एक जंगली पशु भैंसा। इसके खुर होते हैं । मपु० ३१.२६, पपु० २.१० महिष्ठवाक्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२५.१५९ महिकम्प-राजा महीधर विद्याधर का ज्येष्ठ पुत्र । महीधर ने इसे राज्य
भार सौंपकर मुनि जगन्नन्दन से दीक्षा ली थी। मपु० ७.३८-३९ महीजय-(१) राजा समुद्रविजय का पुत्र । हपु० ४८.४४
(२) राजा जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३० महीदत्त-राजा पौलोम का पुत्र । यह अरिष्टनेमि और मत्स्य का पिता __ था । इसने कल्पपुर नगर बसाया था। हपु० १७.२८-२९ महीधर-(१) तीर्थकर वृषभदेव के अठारहवें गणधर । हपु० १२.५८
(२) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में मंगलावती देश के विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी में स्थित गन्धर्वपुर के राजा वासव विद्याधर और उसको रानी प्रभावती देवी का पुत्र । इसने अपने पुत्र महीकम्प को राज्य सौंपकर मुनि जगन्नन्दन से दीक्षा ली थी। यह मरकर व्रत और तप के प्रभाव से प्राणत स्वर्ग का इन्द्र हुआ था। मपु० ७.२८२९, ३५-३९
(३) पुष्करद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में मंगलावर्ती देश में रत्नसंचय नगर का चक्रवर्ती नृप । इसकी रानी सुन्दरी और पुत्र जयसेन था। नरक की वेदनाओं का स्मरण कराकर किसो श्रीधर नामक देव के द्वारा समझाये जाने पर इसने विरक्त होकर यमधर मुनिराज से दीक्षा ली थी । यह कठिन तपश्चरण करके आयु के अन्त में समाधिपूर्वक मरा और ब्रह्म स्वर्ग में इन्द्र हुआ। मपु० १०.११४-११८
(४) एक विद्याधर । जयवर्मा ने इस विद्याधर की भोगोपभोग सामग्री को देखकर आगामी भव में उसके समान भोगों की उपलब्धि का निदान किया था। मपु० ५.२०९-२१०
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