Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 319
________________ मुद्रिका-मुनिसुव्रत जैन पुराणकोश : ३०१ (२) पवनंजय का सेनापति । पपु० १६.१४७ मुद्रिका-हाथ की अंगुलि का आभूषण-अंगूठी। यह अंगुली में धारण __ की जाती थी। इसका प्रयोग स्त्री-पुरुष दोनों करते थे। मपु० ७.२३५, ४७.२१९ मुनि-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४१ (२) महाव्रती निर्ग्रन्थ साधु । इनके अट्राईस मुलगण होते हैं- पाँच महाव्रत, पांच समितियाँ, पाँच इन्द्रिय-निरोध, छः आवश्यक केशलोंच, भूशयन, अदन्तधावन, अचेलत्व, अस्नान, स्थितिभोजन और एक भुक्त । ये पैदल चलते हैं। इनके उद्देश्य से बनाया गया आहार ये ग्रहण नहीं करते। ये अपना आहार न स्वयं बनाते हैं न किसी से बनवाते हैं और न अनुमोदना करते हैं। तीनों गुप्तियों का पालन करते हुए ये बारह प्रकार का तपश्चरण करते हैं और बाईस प्रकार के परीषहों को समता भावों से सहते हैं। ये नवधाभक्ति पूर्वक चान्द्रीचर्या से श्रावकों के घर पाणिपात्र से आहार ग्रहण करते है। ये अपना शरीर न कृश करते हैं और न उसे रसीले मधुर पौष्टिक आहार लेकर पुष्ट करते हैं। ये ऐसा आहार ग्रहण करते है जो इन्द्रियों को वश में रखने में सहायक होता है। ये शारीरिक स्थिति के लिए ही आहार लेते हैं । शरीर से इन्हें ममत्व नहीं होता। ये प्राणी मात्र से मंत्री रखते हैं। गुणियों को देखकर प्रमुदित होते हैं । दुःखी जीवों पर करुणाभाव और अविनयी जीवों पर मध्यस्थभाव रखते हैं। चार हाथ प्रमाण मार्ग देखकर चलते हैं । न बहुत धीमे चलते हैं और न बहुत शीघ्र । ये निःशल्य होकर विहार करते, उत्तम-क्षमा आदि दस धर्म पालते तथा बारह भावनाओं का चिन्तन करते हैं । ये सातों भयों से रहित होते हैं। सदैव आत्मा के अर्थ में प्रवृत्त होते हैं। इनमें स्वाभाविक सरलता होती है। अपने आचार्य की आज्ञा मानते हैं। जो पुरुष इनका वचन द्वारा अनादर करते हैं वे दूसरे भव में गूंगे होते हैं। जो मन से निरादर करते हैं उनको स्मरणशक्ति नष्ट हो जाती है और जो शरीर से तिरस्कार करते हैं उन्हें शारीरिक व्याधियाँ होती हैं। ये अपने निन्दकों से द्वेष नहीं करते क्योंकि क्षमाधारी होते हैं । मपु० ६.१५३-१५५, ११.६४-६५, ७५, १८.५-८, ६७-७२, २०.५-६, ६५-६६, ७८-८८, १६९, २०६, ३४.१६९-१७३, ३६.११६, १५६-१६१, पपु० ९२.४७-४८, वीवच० १७.८२, ३७.१६३, १०६.११३, १०९.८९ मुनिगुप्त-प्रत्यन्तनगर में विराजमान एक मुनि । महाबल और कनक लता दोनों पति-पत्नी ने इन्हीं मुनि को आहार देकर पुण्यसंचय किया था। मपु० ७५.८९-९२ मुनिचन्द्र-एक मुनि । ये पुष्पपुर नगर के राजा सूर्यावर्त के धर्मोपदेशक एवं दीक्षागुरु थे। मपु० ५९.२३१-२३२, हपु० २७.८१ मुनिज्येष्ठ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु. २५.२०२ मुनिधर्म-पंच महाव्रत, पंच समिति और त्रिगुप्तियों का धारण करना, परीषहों को सहना, अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करना, सप्त भयों से रहित होना, शंका आदि सम्यग्दर्शन के आंठ दोषों से दूर रहना और चारित्र धर्म तथा अनुप्रेक्षा से युक्त होना मुनिधर्म है । पपु० ९.२१९, २०.१४९, १५१, ३७.१६५, १०६.११३-११४ दे० मुनि मुनिभद्र-एक पराक्रमी म्लेच्छ राजा । यह नन्द्यावर्तपुर के राजा अति___ वीर्य का पक्षधर था । पपु० ३७.२० मुनिवर-एक मुनि । ये भरतक्षेत्र के वत्सदेश की कौशाम्बी नगरी के राजा पार्थिव के दीक्षागुरु थे। मपु० ६९.२, १० मुनिवेलावत-मुनियों के आहार का समय निकल जाने के पश्चात् भोजन करने का नियम । पपु० १४.३२८ मुनिसंयम-मुनियों का संयम-सकल संयम । यह संसार के जन्म-मरण का नाशक और सिद्धि का कारण होता है । वीवच० ६.२९ मुनिसागर-सुकच्छ देश का एक पर्वत । विद्याधर वायुवेग की पुत्री शान्तिमती ने इसी पर्वत पर विद्या-सिद्ध की थी। मपु० ६३.९१-९५ मुनिसुव्रत-(१) उत्सर्पिणी काल के ग्यारहवें तीर्थंकर । मपु० ७६.४७९ (२) अवसर्पिणी काल के दुःखमा-सुखमा नामक चौथे काल के उत्तरार्ध में उत्पन्न हुए बीसवें तीर्थकर । मुनियों को अहिंसा आदि सुव्रतों के दाता होने से ये सार्थक नामधारी थे। इनकी जन्मभूमि भरतक्षेत्र में स्थित मगध देश का राजगृह नगर था । इनके पिता का नाम हरिवंशी काश्यपगोत्री राजा सुमित्र और माता का नाम सोमा था। हरिवंशपुराण के अनुसार इनकी जन्मभूमि कुशाग्रपुर नगर तथा माता का नाम पद्मावती था। इनके गर्भ में आने पर इनकी माता ने , रात्रि के अन्तिम प्रहर में सोलह स्वप्न देखे थे । वे हैं-गज, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्रमा, बालसूर्य, मत्स्य, कलश, कमलसर, समुद्र, सिंहासन, देवविमान, नागेन्द्रभवन, रत्नराशि और निर्धम अग्नि । ये श्रावण कृष्णा द्वितीया तिथि और श्रवण नक्षत्र में प्राणत स्वर्ग से, हरिवंशपुराण के अनुसार सहस्रार स्वर्ग से अवतरित होकर गर्भ में आये तथा नौ मास साढ़े आठ दिन गर्भ में रहकर मल्लिनाथ तीर्थकर के पश्चात् चौवन लाख वर्ष व्यतीत हो जाने पर माघ कृष्णा द्वादशी को श्रवण नक्षत्र में उत्पन्न हुए थे। सुमेरु पर्वत पर इनका जन्माभिषेक कर इन्द्र ने इनका मुनिसुव्रत नाम रखा था। ये समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न थे। शारीरिक ऊँचाई बीस धनुष और कान्ति मयूरकंठ के समान नीली थी। पूर्ण आयु तीस हजार वर्ष थी। इसमें साढ़े सात हजार वर्ष का इनका कुमारकाल रहा । पन्द्रह हजार वर्ष तक इन्होंने राज्य किया और शेष साढ़े सात हजार वर्ष तक संयमी होकर बिहार करते रहे। इनके वैराग्य का कारण उनके यागहस्ती नामक हाथी का संयमासंयम ग्रहण करना था। लौकान्तिक देवों ने आकर इनके विचारों का समर्थन किया और दीक्षा कल्याणक मनाया। हरिवंशपुराण में इनके वैराग्य का कारण शुभ्रमेघ के उदय और उनके शीघ्र विलीन होने का दृश्यावलोकन कहा है। इन्होंने युवराज विजय को और हरिवंशपुराण के अनुसार रानी प्रभावती के पुत्र सुव्रत को राज्य दिया। इसके पश्चात् ये अपराजित नाम की पालकी में बैठकर Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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