Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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३०२ : जैनपुराणको
नील वन गये थे । वहाँ इन्होंने षष्ठोपवास पूर्वक वैशाख कृष्णा दशमी के दिन श्रवण नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण किया था । प्रथम पारणा राजगृहनगर में राजा वृषभसेन के यहाँ हुई थी । उन्होंने इन्हें आहार देकर पाँच आश्चर्य प्राप्त किये थे। इन्होंने खड़े होकर पाणिपात्र से खीर का आहार किया था । उसी खीर का आहार हजारों मुनियों को भी दिया गया था, किन्तु खीर समाप्त नहीं हुई थी । ग्यारह मास / तेरह मास छद्मस्थ रहकर दीक्षावन (नीलवन) में चम्पक वृक्ष के नीचे दो दिन के उपवास का नियम लेकर ध्यान के द्वारा चारों धातिकर्म नाशकर वैशाख कृष्णा दसवीं श्रवण नक्षत्र में केवली हुए थे । अहमिन्द्रों ने इस समय अपनेअपने आसनों से सात-सात पद आगे चलकर हाथ जोड़ करके मस्तक से लगाये और इन्हें परोक्ष नमन किया था। सौधर्मेन्द्र ने ज्ञानकल्याणक का उत्सव कर समवसरण की रचना की थी। इनके संघ में महापुराण के अनुसार अठारह और हरिवंशपुराण के अनुसार अट्ठाईस गणधर थे । तीस हजार मुनियों में पाँच सौ द्वादशांग के ज्ञाता इक्कीस हज़ार शिक्षक, एक हजार आठ सौ अवधिज्ञानी, हजार आठ सौ केवलज्ञानी, दो हज़ार दो सौ विक्रियाऋद्धिधारी, एक हजार पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानी और एक हज़ार दो सौ वादी तथा पुष्पदन्ता आदि पचास हजार आर्यिकाएँ और असंख्यात देव देवियों का समूह था । इन्होंने आर्य क्षेत्र में विहार किया था। एक मास की आयु शेष रह जाने पर ये सम्मेदाचल आये तथा यहाँ योग-निरोष कर एक हजार मुनियों के साथ खड्गासन से के दिन रात्रि के पिछले प्रहर में मोक्ष गये । इन्द्र ने सोत्साह इनका निर्वाण कल्याणक मनाया था। मपु० २.१३२, १६.२०-२१, ६७.२१-६०, पु० १५.६१-६२, १६.२ ७६, पापु० २२.१, बीच० १.३०, १८.१०७
एक
फाल्गुन कृष्णा द्वादशी
मुनीन्द्र सौपर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१७० मुनीश्वर सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम मपु० २५.१८३ मुमुक्षु - (१ ) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु०
1
२५.२०८
(२) मोक्षाभिलाषी, अनासक्त जीव । ये न शरीर को कृश करते हैं और न रसीले तथा मधुर मनचाहे भोजनों से उसे पुष्ट करते हैं। मपु० २०.५
मुरज —- वृषभदेव के समय का एक मांगलिक वाद्य । इसकी ध्वनि मधुर और सुखद होती थी । राम के समय में भी इसका प्रयोग होता था । ये मांगलिक अवसरों पर बजाये जाते थे । मपु० १२.२०७, पपु० ४०.३०
मुरजमध्य— एक व्रत। इसमें क्रमशः पाँच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा और पाँच उपवास एक पारणा की जाती है । इस प्रकार इसमें अट्ठाईस उपवास और आठ पारणाएँ की जाती हैं । हपु० ३४.६६
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मुनीन्द्र-मूला
मुररा - भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी । इसके तट पर कुरर पक्षी रहते थे । भरतेश का सेनापति सेना के साथ यहाँ आया था। मपु० ३०.५८ मुष्टिक - मथुरा के राजा कंस का एक मल्ल । कंस ने कृष्ण और चाणूर मल्ल का मुष्टियुद्ध होने पर इसे पीछे से कृष्ण पर आक्रमण करने के लिए संकेत किया था । हपु० ३६.४०
मुसल - रावण के समय का एक शस्त्र
विद्या बल से लंका-सुन्दरी ने इसका हनुमान् पर प्रयोग किया था । पपु० १२.२५७, ५२.४० मुहूर्त -सत्तर लव प्रमाण काल । हपु० ७.२० दे० काल मूढता-तत्त्वों के यथार्थ ज्ञान में बाधक कुदृष्टि । यह तीन प्रकार को होती है- दैवमृढ़ता, लोकमुक्ता और पाखण्डिता इन मूक्ताओं से आविष्ट प्राणी तत्त्वों को देखता हुआ भो नहीं देखता है । इनके त्याग से विशुद्ध सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है । मपु० ९.१२२, १२८, १४०
मूर्च्छना - वैण स्वर । यह इक्कीस प्रकार का होता है । पपु० १७.२७८, हपु० १९.१४७
मूर्ति - सत्ताईस सूत्रपदों में दूसरा सूत्रपद - परमेष्ठियों का एक गुण । जो मुनि दिव्य आदि मूर्तियों को प्राप्त करना चाहता है (अर्थात् इन्द्र चक्रवर्ती, अर्हन्त और सिद्ध होना चाहता है) उसे अपना शरीर कृश कर अन्य जीवों की रक्षा करते हुए तपश्चरण करना चाहिए। मपु० ३९.१६३, १६८-१७०
मूर्तिमान् सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम मपु० २५.१८७
मूल - (१) एक नक्षत्र । तीर्थङ्कर पुष्पदन्त इसी नक्षत्र में जन्मे थे । पपु०
२०.४५
(२) हरिवंशी राजा अयोधन का पुत्र और राजा शील का पिता । हपु० १७.३२
मूलक - भरतेश के छोटे भाइयों द्वारा छोड़े गये देशों में भरतक्षेत्र के दक्षिण आर्यखण्ड का एक देश । हपु० ११.७०-७१
मूलकर्ता सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत नृपनदेव का एक नाम मपु० २५.
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२०९
मूलकारण सोधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । २५.२०९
मूलगुण - साधु-चर्या के आगमोक्त अट्ठाईस नियम । मपु० १८.७०-७२, ३६.१३३-१३५, वीवच० १८.७४-७६ दे० मुनि
मूलवीर्य - विद्याधरों की एक जाति । ये आभूषणों से अलंकृत होकर औषधि-स्तम्भ के सहारे बैठते हैं। इनके हाथों में औषधियां रहती हैं । पु० २६.१०
पपु०
मूलवीर्यक—अदिति देवी द्वारा नमि विनमि को किये गये आठ विद्यानिकायों में सातवाँ विद्या निकाय । हपु० २२.५६-५८ मुला-भरतयक्षेत्र के आर्यखण्ड को एक नदी
भरतेश की सेना यहाँ आयी
थी । मपु० ३०.५६
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