Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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महावीर
जैन पुराणकोश : २८९
लेकर और ऐरावत हाथी पर बैठाकर सुमेरु पर ले गया था। वहाँ पाण्डुक शिला पर विराजमान करके उसने क्षीरसागर के जल से इनका अभिषेक किया था। इन्हें वीर एवं बर्द्धमान दो नाम दिये थे तथा सोत्साह “आनन्द" नाटक भी किया था । वीर-वर्धमान चरित के अनुसार ये कर्मरूपी शत्रुओं को नाश करने से "महावीर" और निरन्तर बढ़नेवाले गुणों के आश्रय होने से "वर्धमान" कहलाये थे। महावीर नाम के सम्बन्ध में यह भी कहा गया है कि संगम नामक देव ने इनके बल की परीक्षा लेकर इन्हें यह नाम दिया था। यह देव सर्प के रूप में आया था। जिस वृक्ष के नीचे ये खेल रहे थे उसी वृक्ष के तने से वह लिपट गया। इन्होंने इस सर्प के साथ निर्भय होकर क्रीडा की। इनको इस निर्भयता से प्रसन्न होकर देव ने प्रकट होकर इन्हें "महावीर" कहा था। पद्मपुराण के अनुसार इन्होंने अपने पैर के अंगूठे से अनायास ही सुमेरु पर्वत को कम्पित कर इन्द्र द्वारा यह नाम प्राप्त किया था। तीव्र तपश्चरण करने से ये लोक में “महतिमहावीर" नाम से विख्यात हुए थे। संजय और विजय नाम के चारण ऋद्धिधारी मुनियों का संशय इनके दर्शन मात्र से दूर हो जाने से उनके द्वारा इन्हें "सन्मति' नाम दिया गया था। ये स्वयं बुद्ध थे । आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने श्रावक के बारह व्रत धारण कर लिये थे । इनका शरीर अतिसुन्दर था । रक्त दूध के ममान शुभ्र था। ये समचतुरस्रसंस्थान और वववृषभनाराचसंहनन के धारी थे। एक हजार आठ शुभ लक्षणों से इनका शरीर अलंकृत तथा अप्रमाण महावीर्य से युक्त था । ये विश्वहितकारी कर्णसुखद् वाणी बोलते थे । तोस वर्ष की अवस्था में ही इन्हें वैराग्य हो गया था । लौकान्तिक देवों के द्वारा स्तुति किये जाने के पश्चात् इन्होंने माता-पिता से आज्ञा प्राप्त की और ये चन्द्र प्रभा पालकी में बैठकर दीक्षार्थ खण्डवन गये थे। इनकी पालकी सर्वप्रथम भूमिगोचरी राजाओं ने, पश्चात् विद्याधर राजाओं ने और फिर इन्द्रों ने उठाई थी। खण्डवन में पालकी से उतरकर वतु'लाकार रत्नशिला पर उत्तर की ओर मुखकर इन्होंने वेला का नियम लेकर मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की दशमी के दिन अपराह्न काल में उत्तराफाल्गुन और हस्तनक्षत्र के मध्यभाग में संध्या के समय निग्रन्थ मुनि होकर संयम धारण किया। इनके द्वारा उखाड़कर फेंकी गयो केशराशि को इन्द्र ने उठाकर उसे मणिमय पिटारे में रखकर उसकी पूजा की तथा उसका क्षीरसागर में सोत्साह निक्षेपण किया। संयमो होते ही इन्हें मनःपर्ययज्ञान प्राप्त हुआ। कूलग्राम नगरी में राजा कूल ने इन्हें परमान्न खीर का आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । उज्जयिनी के अतिमुक्तक श्मसान में महादेव रुद्र ने प्रतिमायोग में विराजमान इनके ऊपर अनेक प्रकार से उपसर्ग किये किन्तु वह इन्हें समाधि से विचलित नहीं कर सका था। एक दिन ये वत्स देश की कौशाम्बी नगरी में आहार के लिए आये थे । राजा चेटक की पुत्री चन्दना जैसे ही इन्हें आहार देने के लिए तत्पर हुई, उसके समस्त बन्धन टूट गये तथा केश, वस्त्र और आभूषण सुन्दर हो गये । यहाँ तक कि उसका मिट्टी का सकोरा स्वर्णपात्र बन
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गया और आहार में दिया गया कोंदों का भात चावलों में बदल गया। उसे पंचाश्चर्य प्राप्त हुए। छद्मस्थ अवस्था के बारह वर्ष व्यतीत करके एक दिन जृम्भिक ग्राम के समीप ऋजुकूला नदी के तट पर मनोहर बन में सालवृक्ष के नीचे शिला पर प्रतिमायोग में विराजमान हुए । परिणामों की विशुद्धता से वैशाख मास के शुक्लपक्ष की दशमी तिथि की अपराह्न बेला में उत्तरा-फाल्गुन नक्षत्र में शुभ चन्द्रयोग के समय इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और ये अनन्तचतुष्टय के धारक हो गये । सौधर्मेन्द्र ने इनका ज्ञानकल्याणक मनाया। समवसरण में तीन प्रहर बीत जाने पर भी इनकी दिव्यध्वनि न खिरने पर सौधर्मेन्द्र ने इसका कारण गणधर का अभाव जाना। वह इस पद के योग्य गौतम इन्द्रभूति विप्र को ज्ञातकर वृद्ध ब्राह्मण के वेष में उसके पास गया तथा उनसे उसने निम्न गाथा का अर्थ स्पष्ट करने के लिए कहा।
काल्यं द्रव्यषट्कं सकलगतिगणाः सत्पदार्था नवैव विश्वं पंचास्तिकाया व्रतसमितिचिदः सप्ततत्त्वानि धर्माः । सिद्धर्मार्गः स्वरूपं विधिजनितफलं जीवषट्कायलेश्या
एतान् यः श्रद्धाति जिनवचनरतो मुक्तिगामी स भव्यः ।। गौतम इस गाथा का अर्थ ज्ञात न कर सकने से इनके पास आये । वहाँ मानस्तम्भ पर अनायास दृष्टि पड़ते ही गौतम का अज्ञान दूर हो गया । अपने अज्ञान की निवृत्ति से प्रभावित होकर गौतम अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ इनके शिष्य हो गये । श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्न काल में समस्त अंगों और पूर्यों को जानकर गौतम ने रात्रि के पूर्वभाग में अंगों की और पिछले भाग में पूर्वो की रचना की तथा वे इनके प्रथम गणधर हुए। महापुराण और वीरवर्द्धमान चरित के अनुसार शेष दस गणधरों के नाम हैं वायुगति, अग्निभूति, सुधर्म, मौर्य, मौन्द्रय, पुत्र, मैत्रेय, अन्धवेला तथा प्रभास । हरिवंशपुराण के अनुसार ये निम्न प्रकार है-इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, शुचिदत्त, सुधर्म, माण्डव्य, मौर्यपुत्र, अकम्पन, अचल, मेदार्य
और प्रभास । इस प्रकार इनके कुल ग्यारह गणधर थे । इनके संघ में तीन सौ ग्यारह अंग और चौदहपूर्वधारो संयमी, नौ हजार नौ सौ शिक्षक, तेरह सौ अवधिज्ञानी, सात सो केवलज्ञानी, नौ सौ विक्रियाऋद्धिधारी, पांच सौ मनःपर्ययज्ञानी और चार सौ अनुत्तरवादी कुल मुनि चौदह हजार, चन्दना आदि छत्तीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाएं तथा असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिथंच थे। इनके बिहार-स्थलों के नाम केवल हरिवंशपुराण में बताये गये हैं। वे नाम हैं-काशी, कौशल, कौशल्य, कुबन्ध्य, अस्वष्ट, साल्व, त्रिगत, पंचाल, भद्रकार, पटच्चर, मौक, मत्स्य, कनोय, सूरसेन और वृकार्थक, समुद्रतटवर्ती कलिंग, कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, कम्बोज, बाहीक, यवन, सिन्ध, गांधार, सीवीर, सूर, भीरू, दशेरुक, वाडवान, भरद्वाज और क्वाथतोय तथा उत्तर दिशा के ताण, कार्ण
और प्रच्छाल । इन्होंने इन स्थलों में विहार करते हुए अर्धमागधी भाषा में द्रव्य, तत्त्व, पदार्थ, संसार और मोक्ष तथा उनके कारण
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