Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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२८८ : जैन पुराणकोश
मरण कर यह उत्तम देव हुआ । पपु० ५.१७९-१८३, २३९, २४३२४४, ३०५-३१४, ३६०-३६२, ३६५
महारक्त - रावण का एक सामन्त । पपु० ५७.५४ महारत्नपुर - विजयार्ध का एक नगर विद्याधर धनंजय यहाँ का राजा था । राजा ज्वलनजटी के मंत्री बहुश्रुत ने राजकुमारी स्वयंप्रभा के विवाह हेतु इसका नाम भी प्रस्तावित किया था। मपु० ६२.३०, ४४, ६३-६८
महारथ - (१) पूर्वघातकीखण्ड द्वीप के सुसीमा नगरी के राजा दशरथ का पुत्र संयमी हो गया था । मपु० ६१.२-८
(२) एक वानर कुमार विद्याधर । यह हरिवंशी राजा कुणिम का पुत्र था । यह बहुरूपिणी विद्या के साधक रावण को कुपित करने लंका गया था। पपु० २१.५० ५१, ७०.१४-१६
(३) कुरुवंशी एक नृप । यह राजा चित्ररथ का उत्तराधिकारी था । हपु० ४५.२८
(४) राजा वसुदेव और उसकी रानी अवन्ती का तीसरा पुत्र । सुमुख और दुर्मुख इसके अनुज थे । हपु० ४८.६४
पूर्व विदेहक्षेत्र में वत्स देश की राजा दशरथ इसे राज्य देकर
(५) वृषभदेव के चौसठवें गणधर । हपु० १२.६६
(६) अतिरथ, महारथ, समरथ और अर्धरथ इन चार प्रकारों के राजाओं में दूसरे प्रकार के राजा । कृष्ण और जरासन्ध के युद्ध में ऐसे राजा भी युद्ध करने आये थे । ये शस्त्र और शास्त्रार्थ में निपुण दयालु, महाशक्तिमान् और धैर्यशाली थे । हपु० ५०.७७-८५ महारव - लंका के राक्षसवंशी राजा चन्द्रावर्त का पुत्र और मेघध्वान का पिता । पपु० ५.३९८-४०१
महाराज - चक्रवर्ती सनत्कुमार का पूर्वज कुरुवंशी एक नृप । हपु० ४५.१५-१६
(२) अर्ध मण्डलेश्वर के अधीनस्थ राजा । इसके दो चमर ढोरे जाते जाते हैं । मपु० २३.६० महाराष्ट्र – जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में वत्सकावती देश के पृथिवी - नगर का राजा और जयसेन का साला । यह राजा जयसेन के साथ दीक्षित हो गया था । अन्त में यह समाधिपूर्वक मरकर अच्युत स्वर्गं मग नामक देव हुआ। मपु० ४८.५८-५९, ६७, ६९ महारुद्र – नौ नारदों में चौथा नारद । हपु० ६०.५४८, दे० नारद महारौरव --- सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान इन्द्रक की उत्तर दिशा का महानरक । हपु० ४.१५८
महालक्ष्मी - भरतक्षेत्र के काम्पिल्यनगर के राजा मृगपतिध्वज की दूसरी रानी। यह पटरानी वप्रा को सौत थी । वप्रा जैन थी और यह अजैन । दोनों में वैर था। वप्रा ने एक बार नगर में जिनेन्द्र का रथ निकलवाना चाहा था किन्तु इसने जन-रथ निकलवाने के पूर्वं ब्रह्मरथ निकलवाने का आग्रह कर वप्रा का विरोध किया था । पपु०
८.२८१-२८६ महालतांग- चौरासी लाख लतांग प्रमाण काल । मपु० ३.२२६, हपु०
७.२९
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महारक्त महावीर महालता — चौरासी लाख महालतांग प्रमाण काल । मपु० ३.२२६, हपु० ७.२९ महालोचन - एक गरुडेन्द्र राम के स्मरण मात्र से इसने दो विद्याएँ देकर उनके पास चिन्तावेग देव को भेजा था। इसके संकेतानुसार चिन्तावेग देव ने राम को मिवादिनी और लक्ष्मण को गरुडवाहिनी विधाएं दी थीं। ०६०.१३२-१३५ ६१.१८ महावक्षा - राजा धृतराष्ट्र और गान्धारी का तेरानवेव पुत्र । पापु०
८. २०४
महावत्ता जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी और निषध पर्वत के मध्य स्थित आठ देशों में तीसरा देश । अपराजिता नगरी इस देश की राजधानी थी । गपु० १०.१२१, ६३.२०९, हपु० ५.२४७-२४८ महावपु - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१५४ महावप्रा - पश्चिम विदेहक्षेत्र में नील पर्वत और सोतोदा नदी के मध्य स्थित दक्षिणोत्तर फैले हुए आठ देशों में तीसरा देश । मपु० ६३.२११, हपु० ५.२५१ महावसु - (१ ) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३२
(२) राजा वसु का पाँचवाँ पुत्र । हपु० १७.५८ महाविद्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम मपु० २५.१४१ महाविद्या विद्याधरों को प्राप्त इच्छानुसार फल देनेवाली विद्याए । ये दो प्रकार से प्राप्त होती हैं- १. पितृपक्ष अथवा मातृपक्ष से, २. तपस्या से । इसमें दूसरे प्रकार की विद्याएँ सिद्धायतन के समीप - वर्ती द्वीप, पर्वत, नदी तट या किसी भी पवित्र स्थान में शुद्ध वेष और ब्रह्मचर्यपूर्वक तपश्चरण नित्यपूजा, जप, हवन तथा महोपवास करते हुए सिद्ध होती हैं । मपु० १९.११-१६
महाविन्ध्य - दूसरी नरकभूमि से प्रथम प्रस्तार सम्बन्धी नरक इन्द्रक की उत्तर दिशा में स्थित नरक । हपु० ४.१५३
महाविमर्वन - पाँचवीं नरकभूमि के प्रथम प्रस्तार के तम इन्द्रक की
उत्तरदिशा का महानरक । हपु० ४,१५६
महावीर - अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर । ये भरतक्षेत्र के विदेह देश में कुण्डपुर नगर के राजा सिद्धार्थ की रानी प्रियकारिणी के पुत्र थे । सोलह स्वप्नपूर्वक आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन मनोहर नामक चौथे प्रहर और उत्तराषाढ़ नक्षत्र में चौथे काल के पचहत्तर वर्ष साढ़े आठ माह शेष रहने पर ये गर्भ में आये थे । गर्भ में आने के छः मास पूर्व से ही इनके पिता सिद्धार्थ के प्रांगण में प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ रत्न बरसने लगे थे। देवों ने इनके पिता सिद्धार्थ और माता प्रियकारिणी के निकट आकर इनका गर्भकल्याणक उत्सव किया था । गर्भवास का नौवाँ माह पूर्ण होने पर चैत्र मास के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी के दिन अर्यमा नाम के शुभयोग में इनका जन्म हुआ था । ये पार्श्वनाथ तीर्थंकर के ढ़ाई सौ वर्ष बाद हुए थे। इनकी अवगाहना सात हाथ तथा आयु बहत्तर वर्ष की थी । ये हरिवंशी और काश्यपगोत्री थे । जन्म से ही तीन ज्ञान से विभूषित थे। इन्हें जन्म देकर प्रियकारिणी ने मनुष्य, देव और तिर्यञ्चों को बहुत प्रेम प्राप्त होने से अपना नाम सार्थक किया था। सौधर्मेन्द्र ने इन्हें अपनी गोद में
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