Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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२९८ पुराणकोश
भरण धारण करते हैं । इनका अपर नाम स्रजांग है । मपु० ९.३४३६, ४२, हपु० ७.८०, ८८ वीवच० १८.९१-९२
माष - वृषभदेव के समय का एक दालान्न उड़द । मपु० ३.१८७, पपु० २.१५६, ३३,४७
माषवती - भरतक्षेत्र के मध्य आर्यखण्ड की एक नदी । भरत चक्रवर्ती की सेना इसे पार कर शुष्क नदी की ओर गयी थी । मपु० २९.८४ मास-दो पक्ष का व्यवहार काल । हपु० ७.२१ माहन - वृषभदेव द्वारा दिया गया ब्राह्मणों का एक नाम। इनके विषय में भगवान वृषभदेव के समवसरण में मतिसमुद्र द्वारा श्रुत वचन को ज्ञातकर चक्रवर्ती भरतेश इन्हें मारने को उद्यत हुए ही थे कि वे भयभीत हो वृषभदेव की शरण में गये। वृषभदेव ने "मान" अर्थात् इनका हनन मत करो कहकर इनकी रक्षा की थी। तब से ब्राह्मण " माहन" कहलाने लगे । पपु० ४.१२१-१२२ माहियक भरतेश के छोटे भाइयों द्वारा छोड़े गये देशों में भरतक्षेत्र के दक्षिण आर्यखण्ड का एक देश । हपु० ११.७० माहिष्मती - भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नगरी । हरिवंशी राजा ऐलेय ने यह नगरी नर्मदा नदी के तट पर बसायी थी तथा यहाँ चिरकाल तक राज्य किया था । यहाँ का राज्य वे अपने पुत्र कुणक को देकर दीक्षित हो गये थे । रावण के समय में यहाँ का राजा सहस्ररश्मि था । पपु० १०.६५, २२.१६५, पु० १७.३, १७-२२ माहेन्द्र - (१) चौया स्वर्ग पु० ७.११ ६१-६५ ० १०५.१६६१६७, हपु० ६.३६
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(२) तीर्थंकर वृषभदेव के उन्नीसवें गणधर । हपु० १२.५८
(३) देवों से सेवित एक विद्यास्त्र । वैरोचन शस्त्र और समोरास्त्र इसका निवारक होता है । पपु० ७४.१००-१०१, पु० २५.४६-४७ माहेभभरतेश के छोटे भाइयों द्वारा छोड़े गये देशों में भरतक्षेत्र के
पश्चिम आर्यखण्ड का एक देश । हपु० ११.७२ माहेश्वरी - अश्वत्थामा को सिद्ध एक विद्या । इसके हाथ में शूल और मस्तक पर चन्द्र होता है। इसके प्रभाव से पाण्डवों की सेना नष्ट हो गयी थी । पापु० २०.३०८ मितग्रहणी महाव्रत की पाँच भावनाओं में प्रथम भावना परिमित आहार लेना । मपु० २०.१६३
मितसागर धातकीखण्ड द्वीप सम्बन्धी विशेष के एक पारण ऋद्धिधारी मुनि । भरतक्षेत्र के इभ्यपुर नगर निवासी सेठ धनदेव की पत्नी यशस्विनी ने पूर्वभव में इन्हीं मुनि को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । हपु० ६०.९५-९८
मित्र (१) तीर्थकर यमदेव के बयालीस गणधर । ० १२.६२ (२) सौधर्म और ऐशान युगल स्वर्ग का तीसरा पटल । हपु० ६. ४७ मित्रक आचारांग के धारी लोहाचार्य के पश्चात हुए बलदेव आचार्य के बाद एक आचार्य । हपु० ६६.२६ मित्रनन्दी - बलभद्र धर्म के पूर्वभव का जीव । यह भरतक्षेत्र में पश्चिम विदेहक्षेत्र का राजा था। इसे शत्रु और मित्र समान थे। इसने
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जिनेन्द्र
माष- मित्रसेना सुव्रत से धर्म का स्वरूप सुनकर संयम धारण कर लिया था । अन्त में यह समाधिपूर्वक देह त्याग कर अनुत्तर विमान में तैंतीस सागर की आयु का धारी अहमिन्द्र हुआ और स्वर्ग से चयकर बलभद्र धर्म हुआ । मपु० ५९.६३-७१
मित्रफल्गु — तीर्थंकर वृषभदेव के सन्तावनवें गणधर । हपु० १२.६५ मित्रभाव - तीर्थंकर अभिनन्दननाथ का मुख्य प्रश्नकर्ता एक नृप म ७६.५२९
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मित्रयशा - पुष्पप्रकीर्ण नगर के अमोघशर ब्राह्मण की पत्नी । यह विधवा थी । इसने पति की बाण-विद्या का स्मरण कराकर अपने पुत्र श्रीधित को विद्या सीखने के लिए उत्साहित किया था तथा श्रीवद्धित भी विद्या पढ़कर इतना चतुर हो गया था कि चतुराई के कारण उसे पोदनपुर का राज्य भी मिल गया था। पपु० ८०.१६८-१७६ मित्रो - (१) चम्पापुरी के निवासी और उसकी स्त्री सुमिया की पुत्री । यह इसी नगरी के राजा भानुदत्त के पुत्र चारुदत्त की पत्नी थी । हपु० २१.६, ११, ३८
(२) मूर्तिकावती नगरी के किन की पुत्रवधू और बन्धुदत की पत्नी । गुप्तरूप से पति के साथ सहवास करने से गर्भवती हो जाने के कारण सास-ससुर ने इसे दुश्चरित्रा समझकर घर से निकाल दिया था । देवार्चक उपवन में पुत्र उत्पन्न कर तथा उसे रत्न कम्बल में लपेटकर यह समीपवर्ती एक सरोवर में वस्त्र धोने गयी थी कि इसी बीच इसके पुत्र को एक कुत्ता उठा ले गया । कुत्ते ने शिशु ले जाकर क्रौंचपुर के राजा यक्ष को दिया । यक्ष ने इसके उस पुत्र का नाम "यक्षदत्त" रखा। यह पुत्र के न मिलने से दुःखी होती हुई उपवन के स्वामी देवाचक की कुटी में रहने लगी। कुछ समय बाद इसकी पति और पुत्र दोनों से भेंट हो गयी थी । पपु० ८०.४३-५३, ५९ मित्रवीर कौशाम्बी के सेठ वृषभसेन का सेवक इसी ने भीलराज सिंह से चन्दना को छुड़ा करके सेठ वृषभसेन को सौंपी थी । मपु० ७५.४७-५३ मित्रवीरवि-ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्तिगत आचार्य मन्दरायं के परवर्ती एक आचार्य । हपु० ६६.२६
मित्रवीर्य -- तीर्थंकर सुमतिनाथ का मुख्य प्रश्नकर्ता । मपु० ७६.५२९ मित्रश्री भरतदक्षेत्र के अंग देश की चम्पानगरी के ब्राह्मण अग्निभूति और उसकी स्त्री अग्निलता की दूसरी पुत्री । यह धनश्री की छोटी बहिन तथा नागधी को यही बहिन थी। ये तीनों बहिनें अपने फुफेरे भाई सोमदत्त, सोमिल और सोमभूति से विवाहो गयी थीं। अपनी छोटी बहिन नागश्री द्वारा धर्मचि मुनिराज को विषमिश्रित आहार दिये जाने से यह और इसकी बड़ी बहिन घनश्री तथा सोमदत्त आदि तीनों भाई दीक्षित हो गये थे । दर्शन आदि आराधनाओं की आराधना करते हुए मरकर ये पाँचों जीव अच्युत स्वर्ग में सामानिक देव हुए । यह वहाँ से चयकर पाण्डुपुत्र सहदेव हुई थी । मपु० ७२.२२७ - २३७, २६१, पापु० २३.८१-८२, २४.७७ मित्रसेना (१) विजयार्थ पर्वत की दक्षिणश्रेणी में आदित्याभनगर के
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