Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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२७८ : जेन पुराणकोश
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होते है — हितकारी कार्य में राजा की प्रवृत्ति करना तथा अहितकारी कार्यों को नहीं करने का परामर्श देना । मपु० ६८.११५
(२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १२९
मन्दर - सुमेरु पर्वत का अपर नाम । यह जम्बूद्वीप के मध्य में स्थित है । मपु० ५१.२, पपु० ८२.६-८, हपु० २.४०, ४.११
(२) राजा जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३५
(३) मथुरा नगरी के राजा अनन्तवीर्य और रानी अमितवती का पुत्र । मेरु इसका बड़ा भाई था। ये दोनों भाई निकटभव्य थे। दोनों विमलनाथ तीर से अपने पूर्वभव सुनकर उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली थी तथा उन्हीं के दोनों गणधर होकर मोक्ष गये। हरिवंशपुराण के अनुसार इसके पिता का नाम रत्नवीर्य और माता का नाम अमितप्रभा था । मपु० ५९.३०२-३०४, ३१०- ३१२. हपु० २७.१३६ (४) कुरुवंशी एक नृप । यह राजा व्रात का पुत्र तथा श्रीचन्द्र का पिता था । हपु० ४५.११-१२
(५) मेरु की पूर्वोत्तर दिशा में स्थित नन्दन वन का दूसरा कूट । हपु० ५.३२९
(६) रुचकगिरि को दक्षिण दिशा के बाठ कुटों में तीसरा कूट । यहाँ सुप्रबुद्धा देवी रहती है । हपु० ५.७०८
(७) वानरवंशी राजा मेरु का पुत्र तथा समीरणगति का पिता । पपु० ६.१६१
(८) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का एक नगर यहाँ के सद्गृहस्थ प्रियनन्दी के पुत्र दमयन्त ने सप्त गुणों से युक्त होकर साधुओं की पारणा करायी थी । अनेक सद्गतियों को प्राप्त करके मोक्ष पानेवाला दमयन्त यहीं के निवासी एक सद्गृहस्थ प्रियनन्दी का पुत्र था । पु० १७.१४१-१६५ दे० दमयन्त
(९) सीता स्वयंवर में सम्मिलित एक नृप । पपु० २८.२१५, ५४. ३४-३६ मन्दरकुजम्बूद्वीप के विशेष का एक नगर यहां के राजा विद्यापर मेकान्त का पुत्र आदित्यपुर के राजा विद्यामन्दिर की पुत्री श्रीमाला के स्वयंवर में सम्मिलित हुआ था । पपु० ६.३५७३६३, ४०९
मम्बरपुर - ( १ ) विजयार्ध पर्वत पर स्थित एक नगर । यहाँ का स्वामी विद्याधर बलीन्द्र था । मपु० ६६.१०९
(२) भरतक्षेत्र का एक नगर । राजा सुमित्र ने यहाँ बड़े उत्सव के साथ तीर्थङ्कर शान्तिनाथ को प्रासुक आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । मपु० ६३.४७८-४७९
मन्वरमालिनी - शिवमन्दिर नगर के राजा दमितारि की रानी और
कनकश्री की जननी । मपु० ६२.४३३-४३४, ४६५, ५०० मम्बरमाली - गन्धर्वपुर का एक विद्याधर राजा । सुन्दरी इसकी रानी थी। इन दोनों के दो पुत्र थे — चिन्तागति और मनोगति । मपु० ८.९२-९३
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मम्बर-मन्दुरा
मन्दरशैल— राजतमालिका नदी के किनारे विद्यमान एक गिरि । तीर्थंकर वासुपूज्य ने इसी गिरि से निर्वाण पाया था। मनोहर उद्यान इसी पर्वत के शिखर पर स्थित है । मपु० ५८.५१-५२
मन्दर स्तूप- समवसरण का स्तूप इसकी चारों दिशाओं में जिन प्रतिमाएं स्थापित होती हैं । हपु० ५७.९८
मन्दरार्य — लोहाचार्य के पश्चात् हुए आचार्यों में एक आचार्य । अर्हद्बलि इनके पूर्ववर्ती आचार्य मे ह० ६६.१६ मन्दरेन्द्राभिषेक - श्रावक की त्रेपन क्रियाओं में चालोसवीं क्रिया । इसमें तीर्थंकर का जन्म होने पर इन्द्रों के द्वारा उनका मेरु पर्वत के उच्चतम शिखर पर क्षीरसागर के पवित्र जल से अभिषेक किया जाता है । मपु० ३८.६१, २२७-२२८
मन्दवती — कौतुकमंगल नगर के राजा विद्याधर व्योमबिन्दु की रानी । कौशिकी और केकसी इसकी पुत्रियाँ थीं। इसका अपर नाम नन्दवती था । पपु० ७.१२६-१२७, १६२ मन्दाकिनी - कांचनस्थान नगर के राजा कांचनरथ और रानी शतह्रदा की बड़ी पुत्री तथा चन्द्रभाग्या की बड़ी बहिन । इसने अपने स्वयंवर में आये राजाओं में अनंगलवण का वरण किया था । पपु० ११०.१, १७-१८
मन्दार - गन्धिलदेश के विजयार्ध पर्वत के पुष्पपादप । इन वृक्षों के पास शीतल, मन्द और सुगन्धित बाबु बहती है मपु० ४.१००, १९७
मन्दारपुर — धातकीखण्ड द्वीप के विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का एक नगर । यहाँ का राजा शंख था । मपु० ६३.१७० मन्दारमालिका— कल्पवृक्ष के पुष्पों से निर्मित माला | माला का मुरझा जाना मालाधारी देवों का स्वर्ग से संकेत होता है । पपु० ११.२-४ मन्दारुणारण्य - सम्मेदाचल और कैलास पर्वत के बीच स्थित वन ।
देवों की इस च्युत होने का
पपु० ८.२४
मन्दिर - (१) विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का उन्नीसवाँ नगर । मपु० १९.८२, ८७
(२) भरतक्षेत्र का एक ग्राम भारद्वाज ब्राह्मण का जन्म यहीं हुआ था । मपु० ७१.३२६, ७४.७८ मन्दिरस्थविर -- एक मुनि । भद्रिलपुर नगर के राजा मेघरथ और वणिक् धनदत्त तथा उसके नौ पुत्रों के ये दीक्षागुरु थे । वाराणसी के बाहर प्रियंगुखण्ड वन में ये केवली हुए तथा राजगृह के समीप सिद्धशिला से सिद्ध हुए थे । मपु० ७०.१८२-१९२ मन्दिरा - मन्दिर नगर के ब्राह्मण शीलंकायन की पत्नी और जगत्प्रसिद्ध
भारद्वाज की जननी । मपु० ७४.७८-७९, बीवच० २.१२५-१२६ मन्दुरा- अश्वशाला । चक्रवर्ती भरतेश के काल में ये तालाबों के पास निर्मित होती थीं । इसके प्रांगण में चरने योग्य घास भी रहता था । सवारी के लिए व्यवहृत घोड़े यहाँ रहते थे । इनमें घोड़ों को स्वस्थ रखने के लिए उनकी देह पर अंगराग का लेप किया जाता था । मपु० २९.१११, ११६
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