Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 303
________________ महापद्मा महाबल द्वीप के पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी का राजा यह जिनराज भूतहित से धर्मोपदेश सुनकर संसार से विरक्त हो गया । पुत्र धनद को राज्य सौंपने के पश्चात् यह दीक्षित हुआ । तीर्थकर प्रकृति का बन्ध कर अन्त में यह समाधिपूर्वक मरा और प्राणत स्वर्ग में इन्द्र हुआ। वहाँ से चयकर काकन्दी नगरी के उसकी पट्टरानी जयरामा के पुष्पदन्त नामक ५५.२-२८ राजा सुग्रीव और पुत्र हुआ । मपु० | महापद्मा - पूर्व विदेहक्षेत्र में सीतोदा नदी और निषध पर्वत के मध्य स्थित दक्षिणोत्तर फैले हुए आठ देशों में तीसरा देश । मपु० ६३.२१०, हपु० ५.२४९-२५० महापराक्रम – सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१६० महापाप जम्बूद्वीप के जम्मू और सात्यकी दो वृक्ष इनमें जम्बूवृक्ष पर अनावृत नामक देव रहता है । पपु० ३.३८, ४८ महापीठ-सेठ धनमित्र का जीव जम्बूद्वीप के पूर्व विशेष में स्थित पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा बच्चन का पुत्र । यह नाभि विजय जयन्त, अपराजित, बाहू, सुबाहू, पीठ और वज्रदन्त भाइयों के साथ सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था । मपु० ११.८ ९, १३, १६० दे० धनमित्र 1 महापुण्डरीक - (१) द्वादशांग श्रुत के दूसरे भेद अंगबाह्य का तेरहवाँ प्रकीर्णक । इनमें देवियों के उपपाद का निरूपण किया गया है । हपु० २.१०४, १०.१३७ (२) महाकुलों के मध्यभाग में पूर्व से पश्चिम तक फैले छः विशाल सरोवरों में पाँचवाँ सरोवर । यह नारी और रूप्यकूला नदियों का उद्गमस्थान है। बुद्धि देवी यहीं रहती है मपु० ६३.१९७-१९८, २००, हपु० ५.१२०-१२१, १३०-१३४ महापुर - भरतक्षेत्र का एक नगर । यहाँ का राजा वायुरथ अपने पुत्र धनरथ को राज्य देकर सुव्रत जिनेन्द्र से दीक्षित हो गया था । मपु० ५८.८०, पपु० १०६.३८, हपु० २४.३७, ३०.३९ (२) विजया की उत्तरश्रेणी का इक्यावनव नगर । हपु० २२.९१ । महापुराण - आचार्य जिनसेन द्वारा रचित और आचार्य गुणभद्र द्वारा सम्पूरित त्रेसठ शलाका पुरुषों का पुराण । इसके दो खण्ड हैं-आदिपुराण या पूर्वपुराण और उत्तरपुराण आदिपुराण सैंतालीस पों में पूर्ण हुआ है। इसके बयालीस पर्व पूर्ण और सैंतालीसवें पर्व के तीन एपेक भगवज्जिन सेनाचार्य द्वारा लिखे गये हैं। शेष ग्रन्थ की पूर्ति उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने की है। जिनसेन कृत खण्ड का नाम आदिपुराण और गुणभद्र कृत खण्ड का नाम उत्तरपुराण है। दोनों मिलकर महापुराण कहलाता है । आदिपुराण में भगवान् ऋषभदेव और भरत चक्रवर्ती के चरित्र का विस्तृत वर्णन है। इसी प्रकार उत्तरपुराण में अजित से महावीर पर्यन्त तेईस तीर्थकरों के जीवन चरित्र का है। इस पुराण में आचार्य जिनसेन द्वारा रचित नौ हजार दो सौ पचासी तथा आचार्य गुणभद्र द्वारा रचित नौ हजार दो सौ सैंतीस Jain Education International जैन पुराणकोश : २८५ श्लोक हैं । कुल श्लोक अठारह हजार पाँच सौ बाईस हैं । यह मात्र धर्मकथा ही नहीं एक सुन्दर महाकाव्य है । आचार्य जिनसेन ने इसे 'महापुराण कहा है। महापुरुषों से सम्बन्धित तथा महान् अभ्युदयस्वर्ग मोक्ष आदि कल्याणों का कारण होने से महर्षियों ने भी इसे महापुराण माना है। इसे ऋषि प्रणीत होने से आर्ष, सत्यार्थ प्रणीत होने से "धर्मशास्त्र" और प्राचीन कथाओं का निरूपक होने से "इतिहास" कहा गया है । मपु० १.२३-२५, २.१३४ महापुरी विदेह की एक नगरी यह महापद्म देश की राजधानी थी। - मपु० ६३.२०८-२१५, हपु० ५.२४९, २६१-२६२ महापुरुष - किन्नर जाति के व्यन्तर देवों का एक इन्द्र और प्रतीन्द्र । वीवच० १४.५९, ६१-६२ महाप्रज्ञप्ति एक विद्या यह विद्याधरों को सिद्ध होकर उन्हें यथेष्ट फल देती है । मपु० १९.१२ महाप्रभ - ( १ ) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१२८ (२) घृतवर द्वीप का रक्षक देव । हपु० ५.६४२ 1 (३) कुण्डलगिरि का दक्षिणावर्ती एक कूट यह वासुकि देव की निवासभूमि है । हपु० ५.६९२ महाप्रभु - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५५ महाप्राज्ञ - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५३ महाप्रातिहार्याधीश - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५५ महा (१) सीकर वृषभदेव के नौ पूर्वभव का जीव विजयार्थ पर्वत पर स्थित अलकापुरी के राजा तिल और उसकी रानी मनोहरा का पुत्र । राजा अतिबल ने राजोचित गुण देखकर इसे युवराज पद दिया था। मंत्री स्वयंबुद्ध द्वारा प्रतिपादित जीव के अस्तित्व की सिद्धि सुनकर इसने आत्मा का पृथक और स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार किया था । अवधिज्ञानी आदित्यगति ने इसे आगामी दसवें भव में तीर्थंकर पद की प्राप्ति होने की भविष्यवाणी की थी तथा कहा था कि जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में यह प्रथम तीर्थंकर होगा । मुनि आदित्यागति से अपनी एक मास की आयु शेष जानकर इसने अपने पुत्र अतिबल को राज्य दे दिया और संन्यास धारण कर लिया था। आयु के अन्त में यह निरन्तर बाईस दिन तक सल्लेखना में रत रहा और शरीर छोड़कर ऐशान स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में ललितांग देव हुआ। पूर्वभव में यह जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में गन्धित देश के सिंहपुर नगर के राजा श्रीषेण का जयवर्मा पुत्र था। राज्य दिये जाने में पिता की उपेक्षा से इसे वैराग्य हुआ और विद्याधरों के भोग की प्राप्ति की निदान करके यह सर्पदंश से मरकर महाबल हुआ था । मपु० ४.१३३, १३८, १५१, १५९, ५.८६, २००, २११, २२१, २२६, २२८-२२९, २४८-२५४ हपु० ६०.१८-१९ (२) एक यादव कुमार । हपु० ५०.१२५ (३) सूर्यवंशी राजा सुबल का पुत्र और अतिबल का पिता । पपु० ५.५, हपु० १३.८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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