Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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प्रतिरूपक व्यवहार-प्रधम्न प्रतिरूपक व्यवहार-अचौर्याणुव्रत का पांचवाँ अतीचार-कृत्रिम स्वर्णादि
एवं वचनों से दूसरों को ठगना । हपु० ५८.१७३ प्रतिशिष्ट-प्रतिनिधि । मपु० १.६८ प्रतिश्रुति-प्रथम कुलकर एवं मनु। इनकी आयु पल्य का दसवाँ भाग
और ऊंचाई एक हजार आठ सौ धनुष थी। सूर्य और चन्द्रमा को देखने से उत्पन्न लोगों के भय को इन्होंने दूर किया था। इनका अपरनाम प्रतिश्रुत था। मपु० ३.६३-७३, पपु० ३.७५-७६, पापु० २.१०५, द्वितीय कुलकर सन्मति इनके पुत्र थे । सन्मति के होते ही इन्होंने स्वर्ग प्राप्त किया। मपु० ३.६३-७३, पपु० ३.७५-७६, हपु०
७.१२५-१४९, पापु० २.१०५ प्रतिष्ठनगर-एक नगर । यह लक्ष्मण के जीव पुनर्वसु को जन्मभूमि
था । पपु० १०६.२०५ प्रतिष्ठा–प्रतिष्ठाशास्त्रों में कथित विधि के अनुसार प्रतिमाओं की
स्थापना । मपु० ५४.४८-४९ प्रतिष्ठापना-पाँच समितियों में एक समिति । इसके पालन में प्रासुक (निर्जन्तूक) स्थान पर शरीर के मल-मूत्र, कफ आदि का त्याग करना
होता है । हपु० २.१२६, पापु० ९.९५ प्रतिष्ठाप्रसव-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.
१४३
प्रतिष्ठित-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.
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मेन पुराणकोश : २३५ प्रत्यन्तनगर-नगर का निकटवर्ती उपनगर । मपु० ७५.८९ प्रत्यय-(१) सम्यग्दर्शन की चार पर्यायों (श्रद्धा, रुचि, स्पर्श और प्रत्यय) में चतुर्थ पर्याय । मपु० ९.१२३
(२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७२ प्रत्याख्यान-(१) पूर्वोपार्जित कर्मों की निन्दा करना और आगामी दोषों का निराकरण करना । पपु० ८९.१०७, हपु० ३४.१४६
(२) नौवाँ पूर्व । इसमें चौरासी लाख पद है और परिमित द्रव्यप्रत्याख्यान और अपरिमित भावप्रत्याख्यान का निरूपण है। यह पूर्व ___ मुनिधर्म को बढ़ानेवाला है । हपु० २.९९, १०.१११-११२ प्रत्याख्यानोदय-व्रत और संयम के पालन में बाधक कषाय । मपु० ५९.३५ प्रत्यायिकी-क्रिया-पाप के नये-नये उपकरण उत्पन्न करनेवाली पापास्रव
कारी क्रिया । हपु० ५८.७१ प्रत्याहार--मन की प्रवृत्ति का संकोच कर लेने पर उपलब्ध मानसिक
संतोष । मपु० २१.२३० प्रत्येक नामकर्म का एक भेद । हपु० ५६.१०४ प्रत्येकबुद्ध-स्वयं बद्ध । वैराग्य का कारण देखकर स्वयं वैराग्य धारण ___ करनेवाले मुनि । मपु० २.६८ प्रथम-(१) कौशाम्बी नगर निवासी, दरिद्रकुल में उत्पन्न, इन्द्रजित् के पूर्वभव का जीव । पपु० ७८.६३-८० दे० पश्चिम
(२) धृतराष्ट्र तथा गान्धारी से उत्पन्न अठासीवां पुत्र । पापु० ८.२०४
(३) राम का एक योद्धा। सिंहकटि ने इसे युद्ध में मारा था । पपु० ६०.११ प्रथमानुयोग-श्रुतस्कन्ध के चार अनुयोगों में प्रथम अनुयोग। इसमें तीर्थङ्कर आदि त्रेसठ शलाकापुरुषों के चरित्र का वर्णन होता है । मपु० २.९८
(२) द्वादशांग श्रुत का एक भेद । हपु० २.९६ प्रथित-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०३ प्रथीयान्–सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०३ प्रदक्षिणावर्त-भरतेश चक्रवर्ती की एक निधि-एक उद्योग शाला। ____ इसमें स्वर्णशोधन होता था। मपु० ३७.८१ प्रदीपांग-भोगभूमि में प्राप्त दस प्रकार के कल्पवृक्षों में एक विशिष्ट
जाति के कल्पवृक्ष । इनकी दीपकों जैसी आभावाली शाखाएं होती हैं
तथा इनके पत्त कमल की कलियों जैसे होते हैं । हपु० ७.८१-८३ प्रदीप्त-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०० प्रदेश-आकाश द्रव्य का सबसे छोटा भाग । हपु० ७.१७ प्रदोष-ज्ञानावरण और दर्शनावरण का आस्रव । हपु० ५८.९२ प्रद्यम्न-कृष्ण तथा रुक्मिणी का पुत्र । एक दिन यह शिशु अवस्था में
अपनी माता रुक्मिणी के पास सोया हुआ था। उस समय धूमकेतु असुर उधर से जा रहा था। रुक्मिणी के महल पर आते ही उसका विमान रुक गया। विभंगावधिज्ञान से शिशु को अपने पूर्वभव का वैरी जानकर इस असुर ने रुक्मिणी को महानिद्रा में निमग्न किया और
(२) कुरुवंश का एक राजा । हपु० ४५.१२ प्रतिसंध्या-कौशाम्बी नगरी के स्वामी ब्राह्मण विश्वानल की भार्या ।
यह काकोनद म्लेच्छों के स्वामी रौद्रभूति की जननी थी । पपु० ३४.
७६-८१ प्रतिसर-कुरुवंश का एक राजा । यह शन्तनु से पूर्व हुआ था। हपु०
४५.२९ प्रतिवासुदेव-प्रतिनारायण का अपर नाम । पपु० ५.१८८, २२५, दे०
प्रतिनारायण प्रतिसूर्य-हनुरुह द्वीप के निवासी विचित्रभानु और सुन्दरमालिनी का
पुत्र । यह हनुमान का मामा था। हनुमान तथा उसकी माता अंजना को यह जंगल से अपने घर ले गया था। पपु० १.७४, १७.३४४
३४६ प्रतीत्य सत्य-आगम के अनुसार औपशमक आदि भावों का कथन करना।
हपु० १०.१०१ प्रतीन्द्र-इन्द्र के अधीन सर्वोच्चपद धारी देव । धर्माराधन पूर्वक विशिष्ट
तपस्या करने से जीव ऐसा देव होता है। मपु० ७.३२, ७९, १०.
१७१ प्रतोली-~-नगर के वे छोटे मार्ग जिनमें होकर राजमार्ग पर पहुँचा जाता
है। आदिपुराण में नगर-निर्माण कला का समृद्धिपूर्ण वर्णन मिलता
है । मपु० २६.८३ प्रत्यग-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४०
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