Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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बाली-बाह्यतप
के पुत्र रौद्रभूति म्लेच्छराज द्वारा युद्ध में पकड़ कर कैद कर लिया गया था। इसकी स्त्री पृथिवी इस समय गर्भवती थी। इस समय यह घोषणा की गयी थी कि यदि बालिखिल्य के पुत्र हो तो वह राज्य करे । वसुबुद्धि मन्त्री ने राज्य - लोभ-वश पुत्र होने की खबर राजा को प्रेषित की। निश्चयानुसार कल्याणमाला को राज्य मिला । पुरुष वेष में वह राज्य करती रही। राम और लक्ष्मण से इस कन्या ने अपना गुप्त रहस्य प्रकट किया। राम ने बालिखिल्य को बन्धनों से मुक्त कराकर उसे उसका राज्य दिलवा दिया। इससे प्रसन्न होकर इसने अपनी पुत्री कल्याणमाला का विवाह लक्ष्मण से कर दिया । पपु० ३३.२३२. ३४३९-५१, ७६ ९७, ८२.१४
बाली - किष्किन्धपुर के राजा सूर्यरज और उसकी रानी इन्दुमालिनी का पुत्र । यह सुग्रीव का अग्रज एवं श्रीप्रभा का भाई था । ध्रुवा इसकी भार्या थी । भोगों को क्षणभंगुर जानकर इसने गगनचन्द्र गुरु के निकट दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण की थी। यह एक समय योगधारण करके कैलास पर्वत पर तप कर रहा था। इसके तप के प्रभाव से रावण का विमान रुक गया था, जिससे कुपित होकर रावण ने पर्वत सहित इसे समुद्र में फेंकने के लिए उठा लिया था किन्तु भरत के द्वारा बनवाये जिनमन्दिर नष्ट न हों इस भाव से इसने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया जिससे रावण भी दबने लगा था । मन्दोदरी के निवेदन पर ही रावण बच सका था । जिनेन्द्र के चरणों को छोड़ अन्य किसी को नमस्कार न करने की प्रतिज्ञा के पालन से रावण को दबाने के कार्य से बाद प्रायश्चित्त लेकर इसने इस दुःख
ही उसे ऐसी शक्ति प्राप्त हुई थी। में यह दुखी हुआ । गुरु के समक्ष को दूर किया। फिर तप से कर्मों की निर्जरा करके केवली हुआ तथा निर्वाण प्राप्त किया। पपु० ९.१.२०, ७८-१६१, ९.२१७-२२१ पूर्वभवों में यह मेमदत था. पश्चात् स्वर्ग गया और वहाँ से त होकर सुप्रभ हुआ फिर इस पर्याय में आया । पपु० १०६.१८७-१९७ महापुराण के अनुसार बाली का जीवन वृत्त इस प्रकार है - यह विजयार्घ पर्वत की दक्षिणश्रेणी में किलकिल नगर के राजा विद्याधर बीन्द्र और उसकी रानी प्रियंगुसुन्दरी का ज्येष्ठ पुत्र और सुग्रीव का अग्रज था। पिता के मरने पर यह तो किलकिल नगर का राजा हुआ और सुपीव युवराज इसने सुग्रीव को राज्य से निकाल दिया और उसका राज्य भाग अपने राज्य में मिला लिया । वनवास की अवधि में जब राम चित्रकूट वन में थे इसने दूत के द्वारा यह कहलाया कि यह सीता की खोज के लिए स्वयं जा सकता है और रावण का मानभंग करके लंका से सीता को तत्काल ला सकता है । इसने यह भी कहलाया कि वे यह कार्य सुग्रीव और अणुमान् को न दें । राम न द्रुत के कथन का मन्तव्य जानकर अपने मन्त्रियों के परामर्श से अपने दूत के द्वारा इसे यह सन्देश भेजा कि यह उन्हें अपना महामेघ हाथी समर्पित कर दे तब वे भी इसके साथ लंका चलेंगे । इस सन्देश से इसने स्वयं को अपमानित समझा और राम के दूत से कहा कि उन्हें महामेघ गज तो उससे युद्ध में विजय प्राप्त ३२
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जैन पुराणकोश : २४९
करने से ही मिल सकेगा। परिणामतः लक्ष्मण के नेतृत्व में खदिरवन में इससे राम का युद्ध हुआ जिसमें मह लक्ष्मण द्वारा मारा गया। मपु० ६८.२७१-२७५, ४४०-४६४ बालुकाप्रभा - तीसरी नरक भूमि । यह रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा के नीचे तथा धनोदधि वातवलय के ऊपर अधिष्ठित है। इसका अपर नाम मेचा है। यह अट्ठाईस हजार योजन मोटी, महात्यकार से युक्त और दुर्गन्धित है। यहाँ नारकियों का आक्रन्दन अति तीव्र है । मपु० १०.३१ ३२, पपु० ७८.६२, हपु० ४.४३-५८ वाल्होक - (१) कर्मभूमि के आरम्भ होते ही इन्द्र द्वारा निर्मित मध्य देश | इस देश के घोड़े भी बाल्हीक कहलाते थे। पू० १६.१४८१५६, ३०.१०७, हपु० ३.४-७
(२) रानी जरा से उत्पन्न वसुदेव का पुत्र । जरत्कुमार इसका भाई था । हपु० ४८.६३
बालेन्दु - विद्याधर दृढ़रथ के वंशज पूर्णचन्द्र का पुत्र और चन्द्रचूड़ का पिता । पपु० ५.४७-५६
बाहुबली - भगवान् वृषभदेव और उनकी सुनन्दा नामा द्वितीय रानी के पुत्र तथा सुन्दरी के भाई । सुन्दरता से कारण ये कामदेव कहलाते थे चरमशरीरी थे और पोदनपुर राज्य के नरेश थे महाबली और चन्द्रवंश का संस्थापक सोमयश इसका पुत्र था। मपु० १६.४-२५, १७.७७, ३४.६८, पपु० ५.१० ११, हपु० ९.२२ स्वाभिमानी होने के कारण इन्होंने भरत की अधीनता स्वीकार न कर उन्हें जल, दृष्टि और बाहु युद्ध में पराजित किया था। भरत ने कुपित होकर इन पर चक्र चलाया था, परन्तु चक्र निष्प्रभावी हुआ था। राज्य के कारण अपने भाई के इस व्यवहार को देखकर इन्हें राज्य से विरक्ति हुई । अपने पुत्र महाबली को राज्य सौंपकर ये दीक्षित हो गये। इन्होंने प्रतिमायोग धारण करके एक वर्ष तक निराहार रहकर उग्र तप किया। सर्पों ने चरणों में वामियां बना लीं, केश बढ़कर कंधों पर लटकने लगे और ताएँ इनके शरीर से लिपट गयी तपश्चर्या के समाप्त होने पर भरत ने इनकी पूजा की और तभी इन्हें केवलज्ञान हो गया । इन्द्र आदि देव आये और इनकी उन्होंने पूजा की । अन्त में विहार कर ये तीर्थंकर आदिनाथ के निकट कैलास पर्वत पर गये । वहाँ शेष कर्मों का क्षय करके इन्होंने सिद्ध पद प्राप्त किया। अवसर्पिणी काल के ये प्रथम मुक्ति प्राप्त कर्त्ता हैं। मपु० ३६.५१-२०३, पपु० ४.७७, हपु० ११.९८ १०२ इनको भवावलि इस प्रकार हैपूर्व में ये सेनापति थे, पदचात्मभूमि में आर्य प्रभंकरदेव, अकम्पन, अहमिन्द्र, महाबाहु, पुनः अहमिन्द्र और तत्पश्चात् बाहुबली हुए थे । मपु० ४७.३६५-३६६
बाहुयुद्ध - हाथ मिलाकर और ताल ठोककर खड़े होने के पश्चात् दो व्यक्तियों के बीच भुजालों से होनेवाला युद्ध भरत और वायली का परस्पर ऐसा ही युद्ध हुआ था जिसमें बाहुबली विजयी हुए थे । मपु० ३६.५७-५९
बाह्यतप -- कायक्लेश के द्वारा किया जानेवाला तप । इस तप के छः भेद
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