Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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२६४ : जैन पुराणकोश भूमिवान-देय विविध वस्तुओं में एक वस्तु-भू-खण्ड । तत्त्व-वेत्ताओं ने प्राणिघात का निमित्त होने से इसे निंद्य कहा है परन्तु जिन-मन्दिर आदि के लिए दिये गये दान को उन्होंने निंद्य नहीं कहा अपितु इसे दीर्घकाल तक स्थिर रहनेवाले भोगों का प्रदाता माना है । पपु० १४.
७३-७५,७८ भूमिशय्यावत-साधु के अट्ठाईस मूलगुणों में एक मूलगुण-पृथिवी पर
शयन करना । मपु० १८.७१, हपु० २.१२९ भूरि-राम का एक योद्धा । पपु० ५८.२१-२३ भूरिचूड-एक विद्याधर । यह वज्रचूड का पुत्र और अर्कचूड का पिता
था। पपु० ५.५३ भूरिश्रवा-भरतक्षेत्र के महापुर नगर के राजा सोमदत्त और रानी पूर्णचन्द्रा का पुत्र । सोमश्री इसकी बहिन थी जिसे वसुदेव ने विवाहा था। यह पिता का आज्ञाकारी था। पिता के साथ यह रोहिणी के स्वयंवर में आया था। यह महारथी था। इसने कृष्ण-जरासन्ध युद्ध में कृष्ण की सहायता की थी। हपु० २४.३७, ५१-५२, ५९,
३१.२९, ५०.७९ भूषण-काम्पिल्य नगर के धनिक वैश्य धनद और उसकी पत्नी वारुणी का पुत्र । इसके पिता को किसी निमित्तज्ञानी ने इसके दीक्षित होने की भविष्यवाणी की थी। एक मात्र पुत्र होने से यह दीक्षित न हो सके । इसके लिए पिता ने इसे रहने को एक पृथक् भवन बनवाया था। यह एक दिन मुनीन्द्र श्रीधर को अपने महल के पास आया जानकर उनकी वन्दना के लिए महल से नीचे आ रहा था कि किसी सर्प ने इसे काट लिया जिससे यह मरकर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ तथा वहाँ से चयकर पुष्करद्वीप के चन्द्रादित्य नगर में राजा प्रकाशयश का पुत्र हुआ । पपु० ८५.८५-९६ भूषांग-इस जाति के कल्पवृक्ष । इनसे स्त्री-पुरुषों के योग्य हार, कुण्डल,
बाजूबन्द तथा मेखला आदि आभूषण प्राप्त होते थे। मपु० ९.३५,
४१, हपु० ७.८०, ८९ भष्णु-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४४ मँगनिभा-समवसरण मेरु के नैऋत्य में स्थित चार वापिकाओं में
दूसरी वापिका । हपु० ५.३४३ भुंगराक्षस-ईहापुर नगर का महाभयंकर नर-पीडक एक राक्षस ।
भीमसेन ने इसे मारकर नगर के निवासियों का भय दूर किया था।
हपु० ४५.९३-९४ भंगा-समवसरण-मेरु के नैऋत्य में विद्यमान चार वापिकाओं में प्रथम
वापी । हपु० ५.३४३ भंगार-भोगभूमि के भाजनांग कल्पवृक्षों से प्राप्त होनेवाला टोंटीदार
कलश । मपु० ९.४७ भृगु-(१) वृषभदेव के समय में व्रतों से च्युत हुए साधुओं के प्रशिष्यों में
वल्कलधारी एक तापस । कपिल, अत्रि, आदि साधु इसी के समय में हुए । मपु० ४.१२४-१२७
(२) पहाड़ की एक चट्टान का नाम । हपु० १.१२८
भूमिदान-भोगभूमि भेद-राजाओं की प्रयोजन सिद्धि (राजनीति) के साम, दान, भेद और
दण्ड इन चार उपायों में तीसरा उपाय । शत्रु पक्ष में फूट डालकर कार्यसिद्धि करना भेद कहलाता है। मपु० ६८.६२, ६४, हपु०
५०.१८ भेषत्व-संसारी जीव का एक गुण-शरीर विदीर्ण किया जा सकना ।
मपु० ४२.८९ भेरी-युद्ध के लिए प्रस्थान करते समय बजाया बजानेवाला वाद्य । राम
के लंका की ओर प्रयाण करते समय तथा लंका से विजयोपरान्त अयोध्या लौटने पर यही वाद्य बजाया गया था। यह तीर्थकरों के ... जन्म की सूचना देने के लिए देवों के यहाँ स्वयं बजता है। मपु०
१३.१३, पपु० ५८.२७-२९, ६३.३९९ भेरुण्ड-एक पक्षी। लाल कम्बल ओढ़े हुए श्रीपाल को मांस-पिण्ड
समझकर यही पक्षी सिद्धकूट ले गया था । मपु० ४७.४४-४५ भेषज-भरतक्षेत्र के कोशल नगर का राजा । मद्री इसकी रानी थी । इस
रानी से इसके एक तीन नेत्रवाला पुत्र जन्मा था जिसका नाम शिशुपाल था । मपु० ७१.३४२ भेषजदान-औषधिदान । प्राणियों की पीड़ा को दूर करनेवाला होने
से ज्ञानदान, अभयदान और अन्न-वस्त्र दान के समान यह भी प्रशंसनीय होता है । पपु० १४.७५-७६ भोक्ता-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०० भोगकरा-गन्धमादन गजदन्त पर्वत के स्फटिककूट पर रहनेवाली देवी।
हपु० ५.२२७ भोग-पाँचों इन्द्रियों के विषय । इनके भोगने से भोगेच्छा बढ़ती है,
घटती नहीं। ये अनुभव में आते समय ही रम्य प्रतीत होते है बाद में नहीं। संसारी जीवों को ये लुभाते हैं। ये स्त्री और शरीर के संघटन से उत्पन्न होते हैं । ये दस प्रकार के होते हैं। उनके नाम है-भाजन, भोजन, शय्या, सेना, वाहन, आसन, निधि, रत्न, नगर, और नाट्य । मपु० ४.१४६, ८.५४, ६९, ५४.११९, हपु० ११. १३१ वीवच० ६.२५-२६ . भोगदेव-धातकीखण्ड द्वीप में पूर्व भरतक्षेत्र के सारसमुच्चय देश के नागपुर नगर के राजा नरदेव का ज्येष्ठ पुत्र । राजा ने इसे ही राज्य
सौंपकर संयम धारण किया था । मपु० ६८.४-५ भोगपुर-(१) विजया पर्वत की उत्तरश्रणो के गौरी देश का एक नगर । विद्याधर वायुरथ यहाँ का स्वामी था। मपु० ४६.१४७
(२) भरतक्षेत्र के हरिवर्ष देश का नगर । सुमुख का जीव यहाँ के राजा प्रभंजन का सिंहकेतु नामक पुत्र हुआ था। इसका अपर नाम भोगिपुर था । मपु० ७०.७४-७५, पापु० ७.११८-११९
(३) भरतक्षेत्र का एक नगर । चक्रवर्ती हरिषेण को यह जन्मभूमि है । मपु० ६७.६३ भोगभूमि-अवसर्पिणी के प्रथम तीन कालों में विद्यमान भरतक्षेत्र की
भूमि । यहाँ स्त्री-पुरुष युगल रूप में उत्पन्न होते हैं। इसे उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन भागों में विभाजित किया गया है।
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