Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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भोजनांग-मंजरिका
२६६ : जैन पुराणकोश भोजनांग-कल्पवृक्षों की एक जाति । ये भोगभूमि के मनुष्यों के लिए
इच्छित छः प्रकार के रसों से परिपूर्ण, अत्यन्त स्वादिष्ट खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय के भेद से चार प्रकार की भोजन सामग्री प्रदान करते
हैं । मपु० ९.३५-३६, ४५, हपु० ७.८०, ८५, वीवच० १८.९१-९२ भोजसुता-भोजवंशी उग्रसेन की राजकुमारी राजीमती (राजुल) । कृष्ण
ने नेमिनाथ के लिए इसकी याचना की थी। मपु० ७१.४५, हपु० ५५.७१-७२ भोज्य-भोजन के पांच भेदों में दूसरा भेद-क्षुधानिवृत्ति के लिए खाने
योग्य पदार्थ । इसके मुख्य और साधक की अपेक्षा दो भेद है । इनमें रोटी आदि मुख्य और दाल शाक आदि साधक भोज्य है। पपु०
२४.५४ भौम-(१) व्यन्तर देव । हपु० ३.१६२
(२) पृथिवीकायिक जीव । हपु० १८.७० (३) अष्टांग निमित्तज्ञान का एक अंग। इससे पृथिवी के स्थान आदि के भेद से हानि-वृद्धि तथा पृथिवी के भीतर रखे हुए रल आदि का पता लगाया जाता है। मपु० ६२.१८१, १८४, हपु०
१०.११७ भौमावय-प्रथम अनायणीयपूर्व की चौदह वस्तुओं में नवीं वस्तु । हपु०
१०.७९ दे० अग्रायणीयपूर्व भ्रम-पाँचवीं पृथिवी के द्वितीय प्रस्तार का इन्द्रक बिल । यह नगराकार है। इसकी चारों महादिशाओं में बत्तीस और विदिशाओं में अट्ठाईस श्रेणीबद्ध बिल है। इस इन्द्रक का विस्तार सात लाख इकतालीस हजार छः सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है । इसकी जघन्य स्थिति ग्यारह सागर तथा एक सागर के पाँच भागों में दो भाग प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति बारह सागर तथा एक सागर के पाँच भागों में चार भाग प्रमाग होती है । यहाँ नारकियों को अवगाहना सत्तासी धनुष और दो हाथ प्रमाण होती है। हपु० ४.८३, १३९, २१०, २८६-२८७,
३३३ भ्रमरघोष-एक कुरुवंशी नृप । इसके पश्चात् हरिघोष राजा हुआ था।
हपु० ४५.१४ भाजिष्णु-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु.
२५.१०९ भ्रान्त-प्रथम रत्नप्रभा पृथिवी के चतुर्थ प्रस्तार का इन्द्रक बिल ।
हपु०४.७६ भ्रामरी-विद्या-विद्याधर अशनिघोष द्वारा सिद्ध की गयी एक विद्या ।
इससे अनेक रूप बनाये जाते हैं । मपु० ६२.२३०,२७८
(४) रजतमय सौमनस्य पर्वत के सात कुटों में चौथा कूट । हपु० ५.२१२,२२१ मंगल-द्रव्य-समवसरण-भूमि के गोपुरों की शोभा-विधायक वस्तुएँ ।
ये भृङ्गार, कलश आदि के रूप में एक सौ आठ होती हैं । मुख्य रूप से अष्ट मंगल द्रव्य ये हैं-पंखा, छत्र, चमर, ध्वजा, दर्पण, सुप्रतिष्ठक, भृङ्गार और कलश। जन्म लेते ही तीर्थंकरों को जब इन्द्राणी इन्द्र को देती है तब दिक्कुमारियाँ इन्हीं अष्ट मंगल द्रव्यों को अपने हाथों में लेकर, इन्द्राणी के आगे चलती है। मपु० २२.
१४३, २७५, हपु० २.७२, वीवच० ८.८४-८५ मंगला-(१) परमकल्याणक मन्त्रों से परिष्कृत एक विद्या। धरणेन्द्र
ने यह विद्या नमि और विनमि विद्याधरों को दी थी। हपु० २२.७०
(२) जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र की अयोध्या नगरी के राजा मेघरथ की महादेवी और तीर्थकर सुमतिनाथ की जननी। मपु० ५१.१९
२०, २३-२४ मंगलावती-(१) पुष्कर द्वीप में पूर्व मेरु सम्बन्धी पूर्व विदेहक्षेत्र का एक
देश । रत्नसंचयपुर इसी देश का नगर था । यह सीता नदी और निषध पर्वत के मध्य दक्षिणोत्तर दिशा में विस्तृत हैं । मपु० ७.१३१४, १०. ११४-११५, हपु० ५.२४७-२४८
(२) धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में स्थित मेरु पर्वत के पूर्व विदेह क्षेत्र का एक देश । यहाँ भी एक रत्नसंचय नामक नगर था। मपु० ५४.१२९-१३०, हपु० ६०.५७-५८, वीवच० ४.७२
(३) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिणी तट पर स्थित एक देश । मपु० ५०.२, पापु० ५.११
मंगिनी-तीर्थकर नमिनाथ के संघ को प्रमुख आयिका। मपु०
६९.६४ मंगी-(१) अवन्ति देश की उज्जयिनी नगरी के सेठ विमलचन्द्र की
पुत्री । इसका विवाह उज्जयिनी के राजकुमार वज्रमुष्टि से हुआ था। ईर्ष्यावश इसकी सास ने कलश में फूलों के साथ सर्प भी रख छोड़ा था। जैसे ही इसने पूजा के हेतु फूल निकालने के लिए कलश में हाथ डाला कि सर्प ने इसे डस लिया । सास ने इसे निश्चेष्ट देखकर श्मसान में डलवाया दिया था परन्तु बज्रमुष्टि इसे अचेतावस्था में मुनिराज के समीप ले आया था। मुनि के चरणस्पर्श से वह विषहीन हो गयी थी। माता के इस कुकृत्य से विरक्त होकर वचमुष्टि ने वरधर्म मुनि से दीक्षा ग्रहण कर ली तथा इसने भी आर्यिका के समीप आयिका-दीक्षा ले ली। मपु० ७१.२०८-२२८, २४७-२४८, हपु० ३३.१०४-१२३, १२८-१२९ ।
(२) श्रीभूति पुरोहित का जीव-एक भीलनी । यह दारुण भील की भार्या थी। मपु० ५९.२७३, हपु० २७.१०७ मंजरिका-रावण की दूती । सीता का अभिप्राय जानने के लिए रावण
ने सीता के पास इसे भेजा था। मपु०६८.३२१-३२२
मंगल-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८६
(२) लक्ष्मण तथा उसकी महादेवी कल्याणमाला का पुत्र । पपु० ९४.३२
(३) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का एक देश । इसमें पलाशकूट नगर था । मपु०७१.२७८
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