Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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प्रज्वलितोत्तम-प्रतिरूप
प्रतिचन्द्र-महोदधि का पुत्र । इसने पिता से राज्य प्राप्त किया था। इसके किष्किन्ध और अन्ध्र करूढ नामक दो पुत्र थे। किष्किन्ध को राज्य देकर इसने निग्रन्थ दीक्षा ले ली थी। अन्त में समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग कर इसने मोक्ष पाया। पपु० ६.३४९, ३५२३५३
२३४ : जैन पुराणकोश प्रज्वलितोत्तम-एक रथ । रावण ने बहुरूपिणी विद्या से इसका निर्माण
करके इसे अपने मय नामक योद्धा को दिया था। मय योद्धा ने इसी रथ पर आरूढ होकर हनुमान् को रथ रहित किया था। पपु०
७४.६९-७३ प्रज्ञप्ति-विद्याधरों की एक विद्या । इससे विमानों का निर्माण किया
जाता था । राम और लक्ष्मण ने इसी विद्या से विमान निर्मित करके अपनी सेना लंका भेजो थी। इससे रूप में भी यथेष्ट परिवर्तन किया जा सकता था। मपु० ६२.३९१, ५२२-५२३, ७२, ७८, १२३ हपु० २७.१३१ रावण को भी यह विद्या प्राप्त थी। अर्चि- माली ने यह विद्या अपने पुत्र ज्वलनवेग को दी थी। वसुदेव को भी यह प्राप्त हो गयी थी। प्रद्युम्न ने इसे कनकमाला से प्राप्त किया था । पपु० ७.३२५-३३२, हपु० १९.८१-८२, २७.१३१, ३०.३७,
४७.७६-७७ प्रज्ञा-एक परीषह । ज्ञान का उत्कर्ष सर्वज्ञ होने तक है, इसके पूर्व ज्ञान
बढ़ता रहता है, ऐसा चिन्तन करते हुए अपने विशेष ज्ञान का
अभिमान न करना इस परीषह का ध्येय है । मपु० ३६.१२५ प्रज्ञापारमित-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२५.२१३ प्रणत-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६६, प्रणव-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६६ प्रणाली-नहरों से खेतों को जल पहुँचानेवाली नालियाँ। ये कृषि के
लिए सिंचाई का एक महत्वपूर्ण साधन है । मपु० ३५.४० प्रणिधान्या-जिनेन्द्र की माता के गर्भकाल में उसकी दर्पण लेकर सेवा
करनेवाली एक दिक्कुमारी । हपु० ८.१०८ प्रणिधि-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.
प्रतिनन्दी-नन्दस्थली नगरी का राजा। इसने वन में मुनि रामचन्द्र को
आहार दिया था। पपु० १२०.२, १२१.१-२७ प्रतिनारायण-(१) नारायणों के शत्रु । ये अधोगामी होते हैं और
निदान पूर्वक मरण करते हैं। ये नौ है-अश्वग्रीव, तारक, मेरुक, निशुम्भ, मधुकैटभ, बलि, प्रहरण, रावण और जरासन्ध । महापुराण, के अनुसार इनके नाम हैं-अश्वग्रीव, तारक, मधु, मधुसूदन, मधुक्रोड़, निशुम्भ, बलीन्द्र, रावण और जरासन्ध । मपु० ५७.८७-९०, ५८. १०२.११५, ५९.९९, ६०.७१, ७८, ६१.८१, ६५.१८०-१८४, ६६.१०९-११०, ६८.६२५-६६०, ७१.५४, ६९, ७६-७७, हपु० ६०.२९१-२९३
(२) भविष्यत् कालोन प्रतिनारायण ये हैं-श्रीकण्ठ, हरिकण्ठ, नीलकण्ठ, अश्वकण्ठ, सुकण्ठ, शिखिकण्ठ, अश्वग्रीव, हयग्रीव और
मयूरग्रीव । हपु० ६०.५६८-५७० प्रतिपत्तिसमास-श्रु तज्ञान से बीस भेदों में एक भेद । हपु० १०.१२ प्रतिबल-वानर द्वीप में स्थित किष्किन्धपुर के राजा कपिकेतु और
उसकी रानी श्रीप्रभा का पुत्र । यह गगनानन्द का पिता था । पपु०
६.१९८-२००, २०५ प्रतिबोधिनी-एक विद्या । यह निद्रा-भंग करती है । सुग्रीव ने योद्धाओं
को नींद से शिथिल होते देखकर इसी विद्या से उनकी निद्रा दूर की
थी । पपु० ६०.६०-६२ प्रतिमा-(१) मति । इनका निर्माण चक्रवर्ती भरत के समय में ही
आरम्भ हो गया था । स्वयं भरत ने कैलाश पर्वत पर सर्वरत्नमय दिव्य मन्दिर बनवाकर उसमें पाँच सौ धनुष ऊँची जिनेश की प्रतिमा स्थापित करायी थी। पपु० ५२.१-५, ९८.६३-६५ ।
(२) श्रावक की ग्यारह श्रेणियाँ । ये है-दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, प्रोषधोपवास प्रतिमा, सचित्तत्याग प्रतिमा, रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, आरम्भत्याग प्रतिमा, परिग्रहत्याग प्रतिमा, अनुमतित्याग प्रतिमा और उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा । वीवच० १८.३६-७२ प्रतिमायोग-कायोत्सर्ग मुद्रा। इसमें प्रतिमा के समान नग्न खड़े होकर ध्यान किया जाता है । यह अघातिया कर्मों की घातिनी योगावस्था है। ध्यान की इस मुद्रा का आरम्भ वृषभदेव ने किया था। मपु० १८.९०, ३९.५२, पपु० ९. १०७-१०८, १२७, हपु० ९.
१३५, वीवच० १९.२२१ प्रतिरूप-भूत जाति के व्यन्तर देवों का एक भेद। वीवच० १४.५९
६३ दे० किन्नर
(२) भगवान के जन्माभिषेक के समय सेवा करने वाली एक देवी । हपु० ३८.३३ प्रणीताग्नि-संस्कारित अग्नि । मपु० ३४.२१५ प्रणेता-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११५ प्रतिक्रमण-(१) अंगबाह्यश्रुत के चौदह भेदों में चौथा भेद । द्रव्य, क्षेत्र,
काल आदि में हुए पाप की शुद्धि के लिए किये जानेवाले प्रतिक्रमण का इसमें कथन किया गया है । हपु० १०.१२५, १३१
(२) मुनि के षडावश्यकों में एक आवश्यक कर्त्तव्य । इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विषय में किये हुए प्रमाद का मन, वचन और काय की शुद्धि से निराकरण किया जाता है। हपु० ३४.१४५
(३) प्रायश्चित्त । यह आभ्यन्तर तप के नौ भेदों में दूसरा भेद है। इसमें लगे हुए दोषों का प्रायश्चित्त किया जाता है। मपु० २०.
१७१, हपु० ६४.३३ प्रतिग्रहण-दाता के नौ पुण्यों (नवधा-भक्तियों) में प्रथम पुण्य (भक्ति)।
इसमें साधु को आहार के लिए पड़गाहने की क्रिया होती है। अपरनाम प्रतिग्रह । मपु० २०.८६-८७, हपु० ९.१९९-२००
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