Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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पबोवल-परा.
बैन पुराणकोश : २१५
ज्ञान के द्वारा आलोकित समस्त पदार्थों पर चरम सीमा में उत्पन्न रुचि इसी सम्यक्त्व के कारण होती है। मपु० ७४.४३९-४४०, ४९ वीवच० १९.१५२ अपरनाम परावगाढ़ सम्यक्त्व । मपु० ५४.
२२९
परमेश्वर-(१) वागर्थसंग्रह पुराण के कर्ता एक आचार्य । मपु० १.
(२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४९ परमेष्ठी-(१) समस्त दोषों से रहित और समस्त गुणों सहित परमपद
में स्थित अर्हत् (अर्हन्त) और सिद्ध तथा मोक्षमार्ग में प्रवृत्त आचार्य, उपाध्याय और साधु । ये पंच परमेष्ठी है । इनके नाम-स्मरण से मन में पवित्रता का संचार होता है और पारिणामिक विशुद्धि उत्पन्न होती है । ये ही 'पंच गुरु' भी है। मपु० ५.२३५, २४५, ६.५६, ३८.१८८
(२) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा 'स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३३, २५.१०५ परमोदय-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.
१६५
पयोबल-पश्चिम विदेहक्षेत्र में रत्नसंचय नगर के राजा महाघोष और
रानी चन्द्रिणी का पुत्र । मुनि होकर इसने तीव्र तप किया था। यह मरकर प्राणत स्वर्ग में देव हुआ । पपु० ५.१३६-१३७ परब्रह्म-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३१ पर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०५ परग्राम-ग्राम का एक भेद । इसमें पांच सौ घर तथा सम्पन्न किसान ___ रहते हैं । इसकी सीमा दो कोस की होती है । मपु० १६.१६५ परचक्र—पर राष्ट्र । मपु० ५.११ परतत्त्व-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३३ परतर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०५ परम-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६५ परमज्योति-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । - मपु० २४.३०, २५.११० परमनिर्वाण-कर्बन्वय क्रिया का एक भेद । मपु० ३८.६७ परमपुरुष-सौधर्मेन्द्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४२ परमशुक्लध्यान-शुक्लध्यान का दूसरा भेद। यह सूक्ष्मक्रियापाति और
समुच्छिन्नक्रियानिवति भेद से दो प्रकार का होता है। यह केवली स्नातक मुनि को प्राप्त होता है । मपु० २१.१६७, १८८, १९४-१९७ परमसिद्धत्व-मुक्तात्मा का एक विशिष्ट गुण । इसमें समस्त पुरुषार्थी
की पूर्णता होती हैं । मपु० ४२.१०७ परमस्थान-सात उत्तम स्थान । ये स्थान हैं-सज्जाति, सद्गृहस्थता, पारिव्राज्य, सुरेन्द्रता, साम्राज्य, परम आर्हन्त्य और निर्वाण । ये पद
भव्य जनों को ही प्राप्त होते हैं । मपु० ९.१९६, ३९.८२-२०९ परमा-दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा इन चार जातियों में एक
जाति । यह अर्हन्तों को प्राप्त होती है । मपु० ३९.१६८ परमाणु-आदि, मध्य और अन्त से रहित, अविभागी, अतीन्द्रिय, एक
प्रदेशी द्रव्य । यह एक काल में एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध और परस्पर अविरुद्ध दो स्पशों को धारण करनेवाला और अभेद्य होता है। शब्द का कारण होते हुए भी यह स्वयं शब्द रहित होता है ।
हपु० ७.१७, ३२-३३ परमात्मा-(१) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३३, २५.११०
(२) स्वयं के द्वारा स्वयं में ही लीन हो जानेवाला आत्मा। यह दो प्रकार का होता है-सकल और निकल । दिव्य देह में स्थित सकल आत्मा परमात्मा और देह रहित आत्मा निकल परमात्मा है। तेरहवें गुण स्थानवी जीव सयोगी (सकल) और चौदहवें गुणस्थानवी जीव अयोगी (निकल) परमात्मा होते हैं । मपु० ४६.२१५
वीवच० १६.८४, ९७ परमानन्द-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । २५-१७०,
१८९ परमार्हन्त्य-कन्वय-क्रिया का एक भेद । मपु० ३८.६७ परमावगाड़-सम्यक्त्व-सम्यग्दर्शन के दस भेदों में दसर्वां भेद । केवल
परमोबारिक-अहंन्तों का शरीर। महाभ्युदय रूप निःश्रेयस (मोक्ष)
इसी से होता है । मपु० १५.३२ परविवाहकरण-स्वदारसन्तोषव्रत के पाँच अतिचारों में इस नाम का
एक अतिचार । अपनी या अपने संरक्षण में रहनेवाली सन्तान के सिवाय दूसरों की सन्तान का विवाह करना, कराना इस अतिचार में
आता है । हपु० ५४.१७४-१७५ परशुराम-जमदग्नि ऋषि और रेणुकी का पुत्र । इसका अपरनाम इन्द्र
था। यह श्वेतराम का अग्रज था । इसकी माँ रेणुको को एक सिद्ध पुरुष से कामधेनु (विद्या) और मंत्र सिद्ध परशु प्राप्त थे। रेणुकी की बड़ी बहिन का पुत्र कृतवीर रेणुकी से कामधेनु चाहता था पर रेणुकी ने नहीं दी। इस पर वह उसे बलपूर्वक ले जाने लगा। जमदग्नि ने उसे रोका । रोकने से दोनों में युद्ध हुआ और जमदग्नि मारा गया। इस पर परशुराम ने अयोध्या जाकर कृतवीर्य और उसके पिता से युद्ध किया तथा दोनों को मार डाला। इतना ही नहीं एक क्षत्रिय द्वारा किये गये पिता के वध का बदला लेने के लिए इसने इक्कीस बार पृथिवी को क्षत्रिय विहीन किया था। अन्त में यह सुभौम चक्रवर्ती के चक्र से मारा गया था। मपु० ६५.९०-११२,
१२७, १४९-१५० हपु० २५.८-९ परस्परकल्याण-एक व्रत । इस व्रत की साधना के लिए कल्याणकों के पाँच, प्रातिहार्यों के आठ और अतिशयों के चौंतीस कुल सैतालीस उपवासों को चौबीस बार गिनने पर उपलब्ध संख्यानुसार (ग्यारह सौ अट्ठाईस) उपवास किये जाते हैं। इसमें आरम्भ में एक बेला (दो उपवास) और अन्त में एक तेला (तीन उपवास) करना होता
है । पु० ३४.१२४-१२५ परा-वत्स देश के आगे की एक नदी। यहाँ भरतेश की सेना आयी
थी। मपु० २९.६९
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