Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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२२६ : जैन पुराणकोश
का, तथा तीर्थसेवी सत्पुरुष ( शलाकापुरुष ) और उनके आचरण का इनमें वर्णन होता है । मपु० २.३८-४०
(२) भरतेश ओर सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३७, २५.१९२ पुराणपुरुष-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभ देव का एक नाम । मपु० २५.
१४३, ३४.२२० पुराणपुरुषोत्तम-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२५.१३२ पुराणाद्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.
१९२ पुरातन-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११० पुरातनमन्दिर-भारतवर्ष का एक प्राचीन नगर। यह मारीच के जीव
भारद्वाज की जन्मभूमि था । वीवच० २.१२५-१२७ पुराविद्-पूर्व की बातों के ज्ञाता-इतिहासज्ञ, पौराणिक । मपु० ४३.
१८८ पुरिमताल-एक नगर । आदिनाथ के पुत्र और चक्रवर्ती भरत के छोटे
भाई वृषभसेन इसी नगर के नृप थे। ये बाद में दीक्षित होकर तीर्थकर आदिनाथ के गणधर हो गये थे। मपु० २०.२१८, २४.
१७१-१७२ पुरु-(१) विजयार्द्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का पैतालीसवां नगर । हपु० २२.८५-९२
(२) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३१, २५.७५, १४३, ४३.४९, ७३.१२२ पुरुदेव-आदिनाथ का अपरनाम । पुराण पुरुषों में प्रथम, महान् और
अत्यन्त दीप्तिमान् होने से तीर्थकर आदिनाथ को इस नाम से भी व्यवहृत किया गया है । सौधर्मेन्द्र द्वारा वृषभदेव की इसी से स्तुति
की गयी है । मपु० १७.७२, २५.१९२, ६३.४०४, हपु० ८.२११ पुरुखल-विजयाद्ध पर्वत की अलकापुरी का स्वामी। यह ज्योतिर्माला
का पति और हरिबल का पिता था । मपु० ७१.३११ पुरुरवा-पुण्डरी किणी नगरी के समीपवर्ती मधुक वन का निवासी
भील। यह स्वयं भद्र प्रकृति का था और इसकी प्रिया कालिका भी वैसे ही स्वभाव की थी । एक दिन सागरसेन मुनि उस वन में आये। वे अपने संघ से बिछुड़ गये थे। दूर से पुरुरवा ने उन्हें मृग समझकर अपने बाण से मारना चाहा। कालिका ने उसे बाण चढ़ाते देखा। उसने कहा कि ये मृग नहीं हैं ये तो वन देवता है, वन्दनीय हैं। यह उनके पास गया उनकी इसने वन्दना की। व्रत अंगीकार किये और मांस का त्याग किया। व्रतों का निर्वाह करते हुए इसने अन्त में समाधिमरण किया जिससे यह सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्युत होकर चक्री भरत और उनकी रानी धारिणी का मरीचि नाम का पुत्र हुआ। यही मरीचि अनेक जन्मों के पश्चात् राजा सिद्धार्थ और उसकी रानी प्रियकारिणी के पुत्र के रूप में चौबीसवाँ तीर्थकर
पुराणपुरुष–पुरुषोत्तम महावीर हुआ। मपु० ६२.८६-८९, वीवच० २.१८-४०, ६४-६९,
९.८८-८९ दे० महावीर पुरुष-(१) अच्छे भोगों में प्रवृत्त जीव । इसी को पुमान् भी कहते हैं
क्योंकि जीव इसी भव में अपनी आत्मा को कर्म मुक्त करता है । मपु० २४.१०६
(२) भरतक्षेत्र की दक्षिण दिशा में स्थित एक देश । यह देश भरतेश के छोटे भाई के पास था। जब वह दीक्षित हो गया तो यह भरतेश के साभ्राज्य का अंग हो गया । हपु० ११.६९-७१
(३) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९२ पुरुष पुण्डरीक-तीर्थकर अनन्तनाथ का मुख्य प्रश्नकर्ता । मपु० ७६.
५३१-५३३ पुरुषर्षभ-पांचवें बलभद्र सुदर्शन के पूर्वभव का नाम । पपु० २०.२३२ पुरुषसिंह-अवसर्पिणी काल के दुःषमा-सुषमा नामक चतुर्थ काल में
उत्पन्न पाँचवाँ वासुदेव (नारायण)। यह तीर्थकर धर्मनाथ के समय में हुआ था। मपु० ६१.५६, हपु० ६०.५२७, वीवच० १८.१०१, ११२ तीसरे पूर्वभव में यह राजगृह नगर का राजा था। अपने मित्र राजसिंह से पराजित होने के कारण इसने अपने पुत्र को राज्य दे दिया और कृष्णाचार्य से धर्मोपदेश सुनकर दीक्षित हो गया। अन्त में संन्यासपूर्वक मरण कर यह माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ। मपु० ६१. ५९-६५ वहाँ से चयकर खंगपुर नगर के इक्ष्वाकुवंशी राजा सिंहसेन
और उसकी रानी अम्बिका के पाँचवें नारायण के रूप में पुत्र हुआ । इसकी कुल आयु दस लाख वर्ष की थी जिसमें इसने तीन सौ वर्ष कुमारकाल में, एक सौ पच्चीस वर्ष मण्डलीक अवस्था में, सत्तर वर्ष दिग्विजय में और नौ लाख निन्यानवें हजार पाँच सौ वर्ष राज्यशासन में बिताये थे। इसने प्रतिनारायण मधुक्रीड को मारा था। अन्त में मरकर यह सातवें नरक में गया। मपु. ६१.७०-७१, ७४.
४२, पपु० २०.२१८-२२८, हपु० ६०.५२६-५२७ पुरुषार्थ-जीवन के कर्त्तव्य । ये चार होते हैं-धर्म, अर्थ, काम और
मोक्ष । मपु० २.३१-६७, १२० पुरुषोत्तम-(१) अवसर्पिणी काल के दुःषमा-सुषमा नामक चौथे काल में
उत्पन्न शलाकापुरुष तथा चौथा वासुदेव । यह अर्धचक्री था। इसने कोटिशिला को अपने वक्षस्थल तक उठाया था। इसका जन्म भरतक्षेत्र में स्थित द्वारवती नगरी के राजा सोमप्रभ और उसकी रानी सीता से हुआ था। इसकी पटरानी का नाम मनोहरा था। यह कृष्णकान्तिधारी, लोकव्यवहार प्रवर्तक, पचास धनुष प्रमाण ऊँचा था
और इसकी आयु तीस लाख वर्ष की थी। इसने लोक-व्यवहार का प्रवर्तन किया था। प्रतिनारायण मधुसूदन को मारकर यह छठे नरक में उत्पन्न हुआ। तीसरे पूर्वभव में यह भरतक्षेत्र के पोदनपुर नगर का वसुषेण नामक राजा था। संन्यासपूर्वक मरण कर यह सहस्रार स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से च्युत होकर नारायण हुआ। मपु०
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