Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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निदिनो-कथा-निष्टप्तकनकच्छाय
जैन पुराणकोश: २०३
४. पूर्वविदेहकूट, ५. ह्रीकूट्र, ६. धृतिकूट, ७. सीतोदाकूट, ८. विदेह कूट, ९. रुचककूट । इनकी ऊँचाई और मूल की चौड़ाई सौ योजन, बीच की चौड़ाई पचहत्तर योजन और ऊर्ध्व भाग की चौड़ाई पचास योजन होती है। मपु० १२.१३८, ३३.८०, ३६.४८, ६३.१९३, पपु० १०५.१५७-१५८, हपु० ५.१५, ८०-९०, १८७-१८८
(४) निषध पर्वत से उत्तर की ओर नदी के मध्य स्थित सातवाँ ह्रद । मपु० ६३.१९८, हपु० ५.१९६ (५) नन्दन वन का एक कूट । हपु० ५.३२९
(६) निषधाचल के नौ कूटों में दूसरा कूट । हपु० ५.८८ निषाद-(१) संगीत के सात स्वरों में एक स्वर । पपु० १७.२७७, हपु० १९.१५३
(२) भील । हपु० ३५.६ निषादजा-संगीत के षड्ज ग्राम से सम्बन्ध रखनेवाली एक जाति ।
हपु० १९.१७४ निषादिनी-संगीत की आठ जातियों में पांचवीं जाति । पपु० २४.१२ निष्कप-समुद्रविजय के भाई विजय का पुत्र । हपु० ४८.४८ । निष्कलंक-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.
निर्वेविनो-कथा-भोगों से वैराग्य उत्पन्न करनेवाली कथा । मपु० १.
१३५-१३६, पपु० १०६.९३ निःशंकिता-सम्यग्दर्शन का प्रथम अंग। इसमें जिन भाषित धर्म के
सूक्ष्म तत्त्व-चिन्तन में आप्त पुरुषों के वचन अन्यथा नहीं हो सकते
ऐसा विश्वास होता है। मपु० ६३.३१२-३१३, वीवच ६.६३ निशुम्भ-चौथा प्रतिनारायण । यह पुण्डरीक के साथ युद्ध करते हुए
उसके द्वारा चलाये चक्र से निष्प्राण होकर नरक में गया । दूरवर्ती पूर्वभव में यह राजसिंह मल्ल था तथा यही राजसिंह हस्तिनापुर में मधुक्रीड प्रसिद्ध राजा हुआ। मपु० ६१.५९, ७४-७५, ६५.१८३
१८४ पपु० २०.२४४, हपु० ६०.२९१, वोवच० १८.११४ निश्चयकाल-लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के
समान निष्क्रिय स्वरूप से स्थित कालाणु । हपु० ७.३, ७-८, वीवच०
१६.१३५-१३६ निश्चयसम्यक्चारित्र-अन्तरंग और बहिरंग सभी प्रकार के संकल्पों
को त्याग कर अपनी आत्मा के स्वरूप में विचरण करना। वीवच०
१८.२९ निश्चयसम्यग्ज्ञान-स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा अपने ही आत्मा का पर
मात्मा रूप से परिज्ञान । वीवच० १८.२८ निश्चल-सौधर्मेन्द्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२११ निषंग-तरकश । सैन्य सामग्री का एक अंग । मपु० १६.४२ निषंगी-राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का पचासा पुत्र । पापु०
८.१९९ निष द्यका-अंगबाह्यश्रुत का चौदहवाँ भेद । इस प्रकीर्णक में प्रायश्चित्त
का वर्णन किया गया । हपु० २.१०५, १०.१३८, दे० अंगबाह्यश्रुत निषद्याक्रिया-उपासकाध्ययनांग में वर्णित गर्भान्वय की पन क्रियाओं
में नवीं क्रिया । इस क्रिया में मांगलिक द्रव्यों के पास रखे हुए आसन पर बालक को बैठाया जाता है और उसकी उत्तरोत्तर दिव्यआसनों पर बैठने की योग्यता की कामना की जाती है। मपु० ३८.
५५, ९३-९४ निषद्यापरीषह-तपस्या काल में एक आसन से स्थिर रहने से उत्पन्न
वेदना को सहन करना । मपु० ३६.१२० निषद्या-मंत्र-निषद्याक्रिया के समय पढ़े जानेवाले मंत्र । ये मंत्र है
दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनभागी भव, परमसिंहासनभागी
भव । मपु० ४०.१४० निषध-(१) बलदेव का एक पुत्र । हतु० ४८.६६
(२) निषध देश का अर्धरथ नृप । मपु० ६३.१९३, हपु० ५०. ८३, १२४
(३) जम्बूद्वीप के छः कुलाचलों में तीसरा कुलाचल। इस पर सूर्योदय और सूर्यास्त होते हैं । इसका विस्तार सोलह हजार आठ सौ बयालोस योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में दो भाग प्रमाण, ऊँचाई चार सौ योजन और गहराई • सौ योजन है। इसके नौ कूटों के नाम है-१. सिद्धायतन कूट, २. निषध कूट, ३. हरिवर्ष कूट,
निष्कलंकात्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२५.१८५ निष्कल-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११३ मिष्कषाय-आगामी उत्सर्पिणी काल के चौदहवें तीर्थंकर । हपु० ६०.
५६०
निष्किचन-सौधर्मेन्द्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०४ निष्कुन्दरी-भरतक्षेत्र की एक नदी । भरतेश ने सिन्धु नदी को पार
करके इसे पार किया था। मपु० २९.६१ निष्क्रमण-बैराग्यबुद्धिपूर्वक दीक्षा के लिए तीथंकरों के घर से निकलने
तथा दीक्षा धारण करने पर होनेवाला देवकृत विशिष्ट नृत्य । इसमें देवियाँ तीर्थंकरों के निष्क्रमण का प्रदर्शन करती है । इसका अपरनाम निष्क्रान्ति कल्याणक है । मपु० १४.१३४,.४८.३७, पपु० ३.२७३,
२७८, हपु० २.५५ निष्क्रान्ति-गर्भान्वय की तिरेपन क्रियाओं में अड़तालीसा किया।
इसमें तीर्थकर संसार से विरक्त होनेपर गृहस्थ का दायित्व अपने पुत्र को सौंपते है । इस समय लौकान्तिक देव आते हैं। इन्हें पालकी में बैठाकर पहले कुछ देर तो मनुष्य फिर देव वन में ले जाते हैं। दीक्षित होने पर देव उनकी पूजा करते है। मपु० ३८.६२, २६६
२९४ निष्काम-तालगत गान्धर्व का एक नाम । हपु० १९.१५० निष्क्रिय-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०२५.१३९ निष्टप्तकनकच्छाय-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२५.१९९
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