Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
View full book text
________________
ध्येय-नघुष
वे खोटे ध्यान हैं, संसार के बढ़ानेवाले हैं तथा धर्म और शुक्लध्यान उपादेय हैं । वे मुक्ति के साघन हैं। मपु० ५.१५३, २०.१८९, २०२-२०३, २१.८, १२, २७-२९ ०१४.११६, ०५६,२-३ ध्येय- (१) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४५, २५.१०८
(२) ध्यान के विषय ये विषय हैं-अध्यात्म, प्रमाण और नयों सिद्धन्तवों का ज्ञान, पंचपरमेष्ठी, मोक्षमार्ग-रत्नत्रय अनुप्रेक्षाएँ। पु० २१.१७-२१, ९४-९५, १००-१२०, २२८
ध्रुव - (१) बलदेव का पुत्र । हपु० ४८.६६
(२) अग्रायणीयपूर्व की चौदह वस्तुओं में तीसरी वस्तु । हपु० १०.७८०पूर्व
ध्रुवकुमार यादवों का पक्षधर एक कुमार । यह लाखों रथों का स्वामी था और युद्ध में कुशल था । हपु० ५० १२४
बसेन (१) तोयंकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् हुए ग्यारह अंगधारी पाँच मुनियों में चौथे मुनि, अपरनाम द्रुमसेन । मपु० २. १४६, ७६.५२५, हपु० १.६४
-
(२) सुप्रकारनगर के राजा शम्बर और रानी श्रीमती का पुत्र । कृष्ण की पटरानी लक्ष्मणा इसकी बहिन थी । मपु० ७१.४०९-४१४ ध्रुवा - राजा बाली की रानी । यह अपने गुणों के प्रभाव से बाली की सौ पत्नियों में प्रधान थी । पपु० ९.२०
भोष्य- (१) द्रव्य की तदवस्य (स्थिर) पर्याय ० २४.११०, हपु० १.१
(२) शाण्डिल्य का गुरु । इसके चार अन्य शिष्य थे— क्षीरकदम्बक, वैन्य, उदंच और प्रावृत । हपु० २३.१३४ ध्वजस्तम्भ - समवसरण में निर्मित ध्वजाओं के खम्भे । ये मणिमयी पीठिकानों पर स्थित होते है इनकी चौड़ाई अठासी अंगुल अन्तर पच्चीस-पच्चीस धनुष प्रमाण तथा ऊँचाई तीर्थकरों के शरीर की ऊँचाई से बारह गुना अधिक होती है । मपु० २२.२१२-२१५ ध्वजा -- समवसरण के ध्वजस्तम्भों पर सुशोभित ध्वजाएं। माला, वस्त्र,
मयूर, कमल, हंस, गरुड, सिंह, बैल, हाथी और चक्र के चिह्नों से अंकित होने के कारण ये दस प्रकार की होती हैं। ये प्रत्येक दिशा में एक-एक प्रकार की एक सौ आठ रहती हैं । इस प्रकार कुल चारों दिशाओं में ये चार हजार तीन सौ बीस होती हैं । मपु० २२.२१९२२०, २३८
न
नकुल - ( १ ) पाँच पाण्डवों में चौथा पाण्डव । यह कुरुवंशी राजा पाण्डु और उसकी दूसरी रानी माद्री का ज्येष्ठ पुत्र था । सहदेव इसका छोटा भाई था । पाण्डु राजा को पहली रानी कुन्ती से उत्पन्न युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन इसके बड़े भाई थे इनको पितामह भीष्म ने शिक्षा दी तथा गुरु द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या सिखायी थी । मपु० ७०.११४- ११६, हपु० ४५.२, पापु० ८.१७४-१७५, २०८२१२ इसने अपने भाइयों के साथ आयी हुई वित्तियों को सहन
Jain Education International
जैन पुराणको १८७
किया और कौरवों के संहार में अपना वीरतापूर्ण योग दिया। युद्ध में विजय के पश्चात् इसने भी अपने भाइयों के साथ तीर्थंकर नेमिनाथ से दीक्षा ग्रहण की और तेरह प्रकार के चारित्र का पालन किया । पापु० २५.१२- १४, २० शत्रुंजय पर्वत पर अन्य पाण्डवों के साथ इस पर दुर्योधन के भानजे कुर्यधर ने अनेक उपसर्ग किये थे । उसने इसे भी लोहे के तप्त आभूषण पहनाये थे इसने भी उपसर्ग को सहन किया । कषाय के किंचित् अवशिष्ट रहने के कारण मरने पर यह सर्वार्थसिद्धि में देव हुआ । मपु० ७२.२६७-२७१, पापु ० २५.५२-६५, १२८-१४० दूसरे पूर्वभव में यह धनश्री ब्राह्मणी और प्रथम पूर्वभव में अच्युत स्वर्ग में देव था । पापु० २३.८२, ११४११५, २४.८९-९०
(२) उज्जयिनी नगरी के सेठ धनदेव के पुत्र नागदत्त का हिस्सेदार भाई, सहदेव का अग्रज । इसने नागदत्त के साथ छल किया था । यह मरकर चन्दना को सतानेवाला सिंह नामक भील हुआ था । मपुर ७५.१५-९६, ११०, १३२-१३५, १७१ नकुलार्थ नकुल का जीव यह भोगभूमि में आर्य हुआ मपु
९. १९२
नक्षत्र - महावीर के निर्वाण के पश्चात् तीन सौ पैंतालीस वर्ष का समय निकल जाने पर दो सौ बीस वर्ष की अवधि में हुए धर्म प्रचारक ग्यारह अंगधारी पाँच मुनीश्वरों में प्रथम मुनि । मपु० २.१४११४७, ७६.५२१-५२५ ० १.६४, ०१.४१-४९ नकरवा - भरतक्षेत्र की एक नदी । यहाँ से भरतेश की सेना गंगा की ओर बढ़ी थी। मपु० २९.८३
नक्षत्रमाला – सत्ताईस लड़ियों का एक हार । मपु० १६.६०
नग - राजा अचल का छठा पुत्र । यह अचल का अग्रज तथा महेन्द्र, मलय, सा, गिरि और शैल का अनुज था । हपु० ४८.४९
नगर - राज्य के सभी वर्गों के प्रधान लोगों की निवासस्थली । यह परिक्षा, गोपुर अटारी, कोट और प्रकार के सुरक्षित, भवन, उद्यान चौराहों और जलाशयों से सुशोभित तथा अच्छे स्थान पर निर्मित होता है । ईशान दिशा की ओर इसके जलप्रवाह होते हैं । मपु० १६. १६९-१००, २६.३
नघुष - (१) राजा भरत के साथ दीक्षित विशुद्ध कुलोत्पन्न एक राजा । पपु० ८८.६
(२) सुकोशक मुनि का पोता यह राजा हिरण्यगर्भ और उसकी रानी अमृतवती का पुत्र था। उसके गर्भ काल में पृथ्वी पर कोई अशुभ शब्द सुनाई न पड़ने से वह इस नाम से प्रसिद्ध हुआ । इसने उत्तर दिशा को और इसकी रानो सिंहिका ने दक्षिण दिशा को वश में किया था। रानी की इस विजय से कुपित होकर यह उससे विरक्त हो गया था। इसने उसे महादेवी के पद से हटा दिया था । इसे एक समय दाहज्वर हुआ तब रानी सिंहिका ने अपने सतीत्व से करपुट द्वारा गृहीत जल-सिंचन कर इसकी उत्पन्न दाह-ज्वर वेदना को शान्त किया । रानी के इस कार्य से प्रसन्न होकर इसने उसे महादेवी के पद पर पुनः प्रतिष्ठित किया। अन्त में इसी सिंहिका
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org