Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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भविषेण-नन्वीश्वर
जैन पुराणकोश : १९१
विदेहक्षेत्र में सुमेरु पर्वत के पश्चिम की ओर विजयाई पर्वत पर स्थित शशिपुर नगर में राजा रत्नमाली और रानी विद्युल्लता का
सूर्यजय नाम का पुत्र हुआ। पपु० ३१.३०-३५ नन्दिषेण-(१) वसुदेव के पूर्वभव का जीव । यह मगध देश के एक
दरिद्र ब्राह्मण का पुत्र था। इसके गर्भ में आते ही इसके पिता मर गये थे। जन्म होते ही माँ भी मर गयी थी। पालन-पोषण करनेवाली मौसी भी इसकी आठ वर्ष की अवस्था में ही चल बसी थी। मामा के घर रहते हुए इसने मामा की पुत्रियों से विवाह करना चाहा था किन्तु उन पुत्रियों ने विवाह न कर इसे घर से निकाल दिया था। इसने वैभारगिरि पर जाकर आत्मघात करना चाहा किन्तु वहाँ तपस्या करनेवाले मुनियों से इसने धर्माधर्म का फल सुना और आत्मनिन्दा करते हुए संख्य नामक मुनि से दीक्षा ली तथा तप में लीन हो गया । इसके तप की इन्द्र ने भी देवसभा में प्रशंसा की थी। एक देव ने इसके वैयावृत्ति धर्म की परीक्षा भी ली थी तथा उसकी प्रशंसा करता हुआ हो वह स्वर्ग लौटा था। इसने पैतीस हजार वर्ष तप किया । अन्त में इसने छः मास के प्रायोपगमन संन्यास को धारण कर अग्रिम भव में लक्ष्मीवान् एवं सौभाग्यवान् बनने का निदान किया और मरकर निदान के फलस्वरूप यह महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ। स्वर्ग से चयकर यह वसुदेव हुआ। महापुराण में इसे नन्दी कहा है । हपु० १८.१२७-१४०, १५८-१७५ दे० नन्दी ६
(२) आचार्य जितदण्ड के परवर्ती एवं स्वामी दीपसेन के पूर्ववर्ती एक आचार्य । हपु० ६६.२७
(३) विदेहक्षेत्र के गन्धिल देश में पाटली ग्राम के वैश्य नागदत्त और उसकी स्त्री सुमति का तीसरा पुत्र। इसके क्रमशः नन्द और नन्दिमित्र दो बड़े भाई तथा वरसेन और जयसेन दो छोटे भाई और मदनकान्ता तथा श्रीकान्ता दो बहिनें थीं। मपु० ६.१२८-१३०
(४) तीर्थंकर चन्द्रप्रभ के पूर्वभव का जीव । पपु० २०.१९
(५) विदेह का एक नृप, अनन्तमति रानी का पति, वरसेन का पिता । मपु० १०.१५०
(६) सुकच्छ देश में क्षेमपुर नगर के राजा धनपति का पिता । इसने पुत्र को राज सौंपकर अर्हनन्दन गुरु से दीक्षा ले ली। तीर्थकर प्रकृति का बन्ध करते हुए यह अहमिन्द्र हुआ । मपु० ५३.२, १२-१५
(७) जम्बुद्वीप में मेरु पर्वत की उत्तर दिशा में विद्यमान ऐरावत क्षेत्र के पदमिनीखेट नगर के सागरसेन वैश्य का पुत्र और धनमित्र का सहोदर । मपु० ६३.२६२-२६४
(८) हस्तिनापुर के राजा गंगदेव और रानी नन्दयशा का सातवाँ पुत्र । मपु० ७१.२६०-२६३
(९) मिथिला नगरी का राजा। इसने तीर्थकर मल्लिनाथ को आहार दिया था । मपु० ६६.५० (१०) आगामी तीसरा नारायण । मपु०७६.४८७
(११) सातवाँ बलभद्र । भरतक्षेत्र में चक्रपुर नगर के राजा बरसेन और उसकी दूसरी रानी वैजयन्ती का पुत्र । यह सुभोम
चक्रवर्ती के छ: सौ करोड़ वर्ष बाद हुआ था। इसकी आयु छप्पन हजार वर्ष की और शारीरिक अवगाहना छब्बीस धनुष थी। भाई के वियोग से यह वैराग्य को प्राप्त हुआ। इसने शिवघोष मुनि से दीक्षा ली तथा तप द्वारा कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त किया । मपु० ६५.१७४-१७८, १९०-१९१ पूर्वभव में यह वसुन्धर नाम से सुसीमा नगरी में जन्मा था। सुधर्म गुरु से दीक्षा लेकर यह ब्रह्म स्वर्ग गया
था। वहाँ से चयकर यह बलभद्र हुआ । पपु० २०.२२९-२३९ नन्दी-(१) वृषभदेव के अस्सीवें गणधर । मपु० ४३.६६, हपु० १२.६९ (२) आगामी प्रथम नारायण । मपु० ७६.४८७ हपु० ६०.५६६
(३) कौशाम्बी नगरी का जिनभक्त एक सेठ। यह विभूति में राजा के समान ही था । भवदत्त मुनि ने इसका उसके योग्य सम्मान किया। वहीं बैठे हुए पश्चिम नामक क्षुल्लक ने निदान किया कि अगले भव में वह इसी सेठ का पुत्र हो। इस निदान से वह इसी सेठ की इन्दुमुखी सेठानी के गर्भ से रतिवर्द्धन नामक पुत्र हुआ। पपु० ७८.६३-७२
(४) महावीर निर्वाण के बासठ वर्ष बाद सौ वर्ष के काल में समस्त अंगों और पूर्वो के वेत्ता पाँच श्रुतकेवली मुनीश्वरों में प्रथम मुनि । मपु० ७६.५१९, वीवच० १.४३
(५) अवसर्पिणी काल के दुःषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं छठा बलभद्र । वीवच० १८.१०१, १११
(६) कुरुदेश के पलाशकूट ग्राम के निवासी सोमशर्मा ब्राह्मण का पुत्र । यह अपने मामा की पुत्रियों का इच्छुक था किन्तु उनके न मिलने से तथा लोगों के उपहास करने से मरने के लिए तत्पर हो गया था। इसे शंख और निर्नामिक मुनियों ने समझाकर तप ग्रहण कराया था। तप के प्रभाव से यह मरकर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ तथा वहाँ से चयकर वसुदेव हुआ। मपु० ७०.२००-२११ दे० नन्दिषेण ।
(७) नन्दीश्वर द्वीप का एक देव । हपु० ५.६४४ नन्दोघोषा-नन्दीश्वर द्वीप में पूर्व दिशा की एक वापी । हपु० ५.६५८ मन्दीश्वर-(१) एक व्रत । इसमें नन्दीश्वर द्वीप की प्रत्येक दिशा में विद्यमान चार दधिमुख, आठ रतिकर और एक अंजनगिरि को लक्ष्य कर प्रत्येक दिशा-सम्बन्धी क्रमशः चार और आठ उपवास तथा एक वेला करने का विधान है। इस प्रकार इस व्रत में चारों दिशाओं के अड़तालीस उपवास और चार वेला करने पड़ते हैं। इसका फल चक्रवर्तित्व तथा जिनेन्द्र पद की प्राप्ति है । हपु० ३४.८४
(२) आठवाँ द्वीप । इसे इसी नाम का सागर घेरे हुए है। इन्द्र इसका जल तीर्थकर के अभिषेक के लिए लाता है। इसका विस्तार' एक सौ तरेसठ करोड़ चौरासी लाख, आभ्यन्तर परिधि एक हजार छत्तीस करोड़ बारह लाख दो हजार सात सौ योजन तथा बाह्य परिधि दो हजार बहत्तर करोड़ तैतीस लाख चौवन हजार एक सी नव्वे योजन है। इसमें चार अंजनगिरि, सोलह वापियाँ, सोलह दधिमुख और बत्तीस रतिकर आभ्यन्तर कोणों में तथा बत्तीस बाह्य कोणों में है। यहाँ बावन जिनालय है। इनमें रल और स्वर्णमय
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