Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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चर्मवीर्य-धारणा
जैन पुराणकोश : १८३
और नन्दयशा सेठानी का अन्तिम नवा पुत्र । यह प्रियदर्शना और ज्येष्ठा का भाई था। इसने अपने पिता, भाइयों और बहिनों के साथ मन्दिरस्थविर मुनि से दीक्षा ली थी। आयु के अन्त में शरीर-त्याग- कर यह आनत-स्वर्ग के शातंकर-विमान में उत्पन्न हुआ और वहाँ से चयकर समुद्रविजय का भाई हुआ । मपु० ७०.१८२-१८९, १९३, हपु० १८.११२-११६, ११९-१२३ दे० धनपाल
(३) एक मुनि । ये छत्रपुर नगर के राजकुमार प्रीतिकर तथा मन्त्री चित्रमति के पुत्र विचित्रमति के दीक्षागुरु थे। मपु० ५९.२५६२५७
(४) भरतक्षेत्र के अंग देश में चम्मानगरी का राजा श्वेतवाहन । इसने अपने पुत्र विमलवाहन को राज्यभार सौंपकर संयम धारण किया । मुनि अवस्था में इसका नाम धर्मरुचि था। मपु० ७६.१-११ दे० धर्मरुचि
(५) महापुरी नगरी का राजा। यह राजा सुप्रभ और रानी तिलकसुन्दरी का पुत्र था। इसने सुप्रभ मुनि से दीक्षा ली थी। आयु के अन्त में यह माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से च्युत होकर
सनत्कुमार चक्रवर्ती हुआ । पपु० २०.१४७-१५३ धर्मवीर्य-पद्मप्रभ तीर्थंकर के समवसरण का मुख्य प्रश्नकर्ता । मपु०
७६.५३०-५३३ धर्मसंज्ञ-एक चारणऋद्धिधारी मुनि । इन्होंने गन्धमादन पर्वत पर तपस्या की थी और लोगों को धर्मोपदेश दिया था। इनके साथ दूसरे
चारणऋद्धि मुनि श्रीधर थे । हपु० ६०.१६-१७ धर्मसाम्राज्यनायक-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२५.२१७ धर्मसिंह-एक मुनि । सुमुख सेठ और वनमाला ने इन्हें आहार देकर
इनके सन्मुख अपने पाप की निन्दा की थी और प्रायश्चित्त ग्रहण किया
था। मपु० ७०.७३ धर्मसेन अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के पश्चात् एक सौ तेरासी वर्ष की
अवधि में हुए दशपूर्वधारी ग्यारह आचार्यों में ग्यारहवें आचार्य । मपु०
२.१४१-१४५, ७६.५२१-५२४, हपु० १.६३ धर्माचार्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१६ धर्मात्मा-मोधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११५ धर्मादि-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३९ धर्माध्यक्ष-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.
व्यवहार का ज्ञान, प्रतिष्ठा की निरपेक्षिता और मितभाषिता । मपु०
६२.३-४ धर्म्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०२५.११५ धव-तीर्थकर पार्श्वनाथ का चैत्यवृक्ष । पपु० २०.३६, ५९ धवल-भरतक्षेत्र का एक देश । राजा वसु इसी देश की स्वस्तिकावती
नगरी के राजा विश्वावसु का पुत्र था । मपु० ६७.२५६-२५७ धातकोखण्ड-आरम्भिक द्वीपों में द्वितीय द्वीप । इसका विस्तार चार
लाख योजन है। इसकी पूर्व दिशा में मन्दिर पर्वत है। मपु० ६. १२६, ५१.२, ५२.२, पपु० १२.२२, हपु० ५.४८९, ५४.१७, पापु०
२१.२४-२७ दे० द्वीप धाता-सौधर्मेन्द्र देव द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.
१०२ धातु-(१) वोणा के स्वर का एक भेद । हपु० १९.१४७
(२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १७४ धान्यकमाल-पुष्कलावती देश में विजयाध पर्वत का निकटवर्ती एक वन ।
इस वन के पास शोभानगर था। जहाँ प्रजापाल राज्य करता था।
मपु० ४६.९४, पापु० ३.१९७ धान्यपुर-मगध देश का एक नगर । शिखिभूधर पर्वत इस नगर के समीप स्थित है। आठवें चक्रवर्ती सुभूम के पूर्वभव के जीव राजा कनकाभ का यही नगर था। मपु० ८.२३०, ४७.१४६, ७६.२४२,
३२२, पपु० २०.१७० धारण-(१) यादववंशी राजा अन्धकवृष्णि और सुभद्रा का सातवाँ पुत्र ।
महापुराण के अनुसार यह इन दोनों का छठा पुत्र था। कुन्ती और माद्री इसकी बहिनें थीं। इसके पाँच पुत्र थे । मपु० ७०.९४-९७, हपु० १८.१२-१५, ४८.५०, ५०.११८
(२) लक्ष्मण का पुत्र । पपु० ९४.२७-२८
(३) अन्द्रकपुर नगर के मद्र गृहस्थ का पुत्र, नयसुन्दरी का पति । पूर्वभव में यह हस्तिनापुर का उपास्ति गृहस्थ था। तब इसने दान देने का अधिक अभ्यास किया था और दान के प्रभाव से ही उसे यह पर्याय प्राप्त हुई थी । पपु० ३१.२२, २६-२७ दे० उपास्ति ।
(४) समवसरण में सभागृह के आगे आकाशस्फटिकमणि से निर्मित तीसरे कोट के दक्षिणी द्वार के आठ नामों में छठा नाम । हपु० ५७. ५६, ५८
(५) कुरुवंशो एक नृप । यह धृत का पुत्र और महासर का पिता था । हपु० ४५.२९
(६) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३७ धारणयुग्म-एक नगर। यहाँ के राजा अयोध्य (अयोधन) और उसको
रानी दिति की पुत्री सुलसा का स्वयंवर इसी नगर में हुआ था। इस स्वयंवर में सुलसा ने चक्रवर्ती सगर को वरा था। हसु० २३.४६
४९, ११० धारणा-(१) मतिज्ञान के अवग्रह आदि चार भेदों में चौथा भेद । इससे
धर्माराम-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३७ धर्मास्तिकाय-पंचास्तिकायों में जीवों एवं पुद्गलों की गति में सहायक
एक द्रव्य । यह अमूर्त, नित्य और निष्क्रिय होता है । अलोकाकाश में इस द्रव्य का अभाव है । यही कारण है कि वहाँ जीव नहीं पाये जाते हैं । हपु० ४.२-३ वीवच० १६.१२९ धर्मोपदेष्टा-धर्मोपदेशक । इसमें निम्न गुण वांछनीय हैं-विद्वत्ता,
सच्चरित्रता, दयालुता, बुद्धिसम्पन्नता, वाक्-चातुर्य, इंगितज्ञता, लोक-
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