Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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वार्ण-दिक्कुमारी
जैन पुराणकोश : १६३
आरूढ़ होकर लक्ष्मी का उपभोग करे, पर यह मान वश ऐंठता रहा । अन्त में लक्ष्मण ने इसे चक्र चलाकर मार डाला था। पपु० ७६.१७१९, २८-३४ मरकर यह नरक गया । सोतेन्द्र ने इसे नरक में जाकर समझाया था। मपु० ६८.६३०, पपु० १२३.१६,तीसरे पूर्वभव में यह सारसमुच्चय देश में नरदेव नाम का नृप था । दूसरे पूर्वभव में सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से च्युत होकर राजा विनमि विद्याधर के वंश में रावण नाम से प्रसिद्ध हुआ। मपु० ६८.७२८ दशास्य और दशकन्धर नामों से भी इसे सम्बोधित किया गया है। मपु० ६८.
९३, ४२५ दशार्ण-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में ऋक्ष पर्वत का एक देश, वृषभदेव की
विहारभूमि । इसे भरतेश ने जीता था । मपु० १६.१५३, २५.२८७२८८, २९.४२, ७५.१०
(२) मृगावती देश का एक नगर । मपु० ७१.२९१, पापु० ११.
बशार्णक-(१) भरतक्षेत्र में विंध्याचल का एक प्रदेश । हपु० ११.७३
(२) भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का एक वन । यह हाथियों के लिए प्रसिद्ध है। मपु० २९.४४ दशा-भरतक्षेत्र को एक नदी। इसे भरतेश की सेना ने पार किया
था। मपु० २९.६० दशाह-(१) यादव । हपु० ४१.४९
(२) श्रीकृष्ण का पक्षधर एक नृप । हपु० ५०.६८ वशावतार भगवान् वृषभदेव के महाबल आदि दस पूर्व भव । मपु०
२५.२२३ वशावतारचरम-महाबल आदि पूर्व के दस भवों में अन्तिम शरीरी
नाभिराज के पुत्र वृषभदेव । मपु० १४.५१ दशेरुक-भरतक्षेत्र के उत्तर आर्यखण्ड का एक देश । यहाँ भी महावीर
का विहार हुआ था । हपु० ११.६७, ३.५ बाण्डीक-भरतक्षेत्र के दक्षिण आर्यखण्ड का भरतेश के भाई के अधीन
एक देश । हपु० ११.७० दान-(१) चतुर्विध राजनीति का एक अंग । हपु० ५०.१८
(२) सातावेदनीय का आस्रव । यह गृहस्थ के चतुर्विध धर्म में प्रथम धर्म है । इसमें स्व और पर के उपकार हेतु अपने स्व अर्थात् धन या अपनी वस्तु का त्याग किया जाता है । मपु०८.१७७-१७८, ४१.१०४, ५६.८८-८९, ६३.२७०, हपु० ५८.९४, पापु० १.१२३, वीवच० ६.१२ महापुराण में इसके तोन भेद बताये हैं-शास्त्रदान (ज्ञानदान), अभयदान और आहारदान । सत्पुरुषों का उपकार करने की इच्छा से सर्वज्ञ भाषित शास्त्र का दान शास्त्रदान, कर्मबन्ध के कारणों को छोड़ने के हेतु प्राणिपीड़ा का त्याग करना अभयदान और निर्ग्रन्थ साधुओं को उनके शरीर आदि की रक्षार्थ शुद्ध आहार देना आहारदान कहा है। ज्ञानदान सबमें श्रेष्ठ है क्योंकि वह पाप कार्यों से रहित तथा देने और लेने वाले दोनों के लिए निजानन्द रूप मोक्षप्राप्ति का कारण है । आरम्भ जन्य पाप का कारण होने से आहारदान की अपेक्षा अभयदान श्रेष्ठ है। मपु० ५६.६७-७७ औषधिदान को
मिलाकर इसके चार भेद भी किये गये हैं। ये विविध पात्रों को नवधा भक्तिपूर्वक दिये जाते जाते हैं। पपु० १४.५६-५९, ७६, पापु० १.१२६ पात्र के लिए दान देने अथवा अनुमोदना करने से जीव भोगभूमि में उत्पन्न होकर जीवन पर्यन्त निरोग एवं सुखी रहते हैं । मपु० ९.८५-८६, हपु० ७.१०७-११८ दाता की विशुद्धता-देय वस्तु और लेने वाले पात्र को, देय वस्तु की पवित्रता-देने और लेनेवाले दोनों को एवं पात्र की विशुद्धि-दाता और देय वस्तु इन दोनों को पवित्र करती है। मपु० २०.१३६-१३७ यह भोग सम्पदा का प्रदाता तथा स्वर्ग और मोक्ष का हेतु है । पपु० १२३.१०७-१०८ आहारदान नवधा भक्तिपूर्वक दिया जाता है। दाता के लिए सर्वप्रथम पात्र को पड़गाहकर उसे उच्च स्थान देना, उसके पाद-प्रक्षालन करना, पूजा करना, नमस्कार करना, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और आहारशुद्धि प्रकट करनी पड़ती है । हपु० ९.१९९-२०० श्रावक की एक क्रिया दत्ति है। इसके चार भेद कहे है-दयादत्ति, पात्रदत्ति,
समददत्ति और अन्वयदत्ति । मपु० ३८.३५-४० दानधर्म-वृषभदेव द्वारा प्रवृत्त आहारदान को प्रवृत्ति । पपु० ४.१, २१ दानवीर्य-तीर्थकर सुपार्श्वनाथ का मुख्य प्रश्नकर्ता । मपु० ७६.५३० वान्त-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८९ दान्तमति-एक आर्यिका । यह रानी रामदत्ता को सम्बोधने के लिए
सिंहपुर आयी थी । मपु० ५९.१९९, २१२ बान्तात्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६४ दामदेव-शामली नगर का एक ब्राह्मण । पपु० १०८.४० दारु-(१) वसुदेव तथा रानी पद्मावती का पुत्र, वृद्धार्थ और दारुक का सहोदर । हपु० ४८.५६
(२) भरतखण्ड के पश्चिम का एक देश । इसे वृषभदेव की आज्ञा से इन्द्र ने रचा था । मपु० १६.१५५ दारुक-(१) राजा बसुदेव तथा रानी पद्मावती का पुत्र । हपु० ४८. ५६ दे० दारु
(२) सर्वसमृद्ध नामक वैश्य की दासी का पुत्र । मपु० ७६.१६८ वारुण-छत्रपुर नगर का एक भील । मपु० ५९.२७३ हपु० २७.१०७ वारवेणा-भरतक्षेत्र स्थित आर्यखण्ड की एक महानदी । भरतेश की
सेना ने इस नदी को पार किया था। मपु० ३०.५५ दासीदासप्रमाणातिक्रम-परिग्रहपरिमाणाणुव्रत का एक अतिचार-किये
हुए दास-दासियों के प्रमाण का उल्लंघन करना । हपु० ५८.१७६ दिक्कुमार-भवनवासी देवों की एक जाति । यह पाताल लोक में रहती
है। इसको उत्कृष्ट आयु डेढ़ पल्य और शारीरिक अवगाहना दस
धनुष प्रमाण होतो है हपु० ४.६४, ६७-६८ विक्कुमार-दिक्कुमारी देवों की देवियाँ । ये छप्पन हैं और मेरु तथा रुचकार पर्वत के कूटों पर निवास करती हैं। पूर्व दिशा के आठ कूटों पर विजया, वैजयन्ती, जयन्ती, अपराजिता, नन्दा, नन्दोत्तरा, आनन्दा और नन्दीवर्धना देवियाँ रहती हैं। ये तीर्थंकरों के जन्मकाल में पूजा के निमित्त हाथ में दैदीप्यमान झारियाँ लिये हुए तीर्थकर की माता के समीप रहती हैं । दक्षिण दिशा के आठ कूटों पर स्वस्थिता,
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