Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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दशलक्षण - दशानन
सारथि का
उसकी रानी पृथुश्री की पुत्री केकया और सुप्रभा अपरनाम सुप्रजा ये चार इसकी रानियाँ थीं । पपु० २२.१७०-१७६, नारद से यह जानकर कि रावण ने उसका वध कराने का निर्णय ले लिया है यह समुद्रहृदय मंत्री को कोष, देश, नगर तथा प्रजा को सौंपकर नगर के बाहर निकल गया था । इधर मंत्री ने इसकी मूर्ति बनवाकर सिंहासन पर विराजमान की थी। विद्यद्विलसित विद्याधर ने इसकी कृत्रिम प्रतिमा का सिर काटकर विभीषण को दिया था। सिर प्राप्त कर विभीषण अत्यन्त हर्षित हुआ । इसने सिर को समुद्र में फिकवा दिया और स्वयं लंका चला गया था । पपु० २३.२६-५७ केकया के स्वयंवर में दशरथ का वरण करने से वहाँ आये हुए दूसरे राजा क्रुद्ध हुए और संग्राम छिड़ गया। उस समय केकया ने कार्य अत्यन्त कुशलतापूर्वक किया जिससे प्रसन्न होकर उसने उसे अपनी मनीषित वस्तु माँगने के लिए कहा। उसने इसे धरोहर के रूप में दशरथ के पास ही छोड़ दिया । पपु० २४.९४ - १३० रानी अपराजिता (कौशल्या से पद्म (राम) कैकयी (सुमित्रा) से लक्ष्मण, केकया से भरत तथा सुप्रभा से शत्रुघ्न ये इसके चार पुत्र हुए। पपु० २५.२२-२३, ३५-३६ आचार्य जिनसेन के अनुसार यह मूलतः वाराणसी का निवासी था । पद्म अपरनाम राम ( बलभद्र ) और लक्ष्मण (नारायण) यहीं हुए थे । राजा सगर को अयोध्या में समूल नष्ट हुआ जानकर ये राम और लक्ष्मण को लेकर साकेत (अयोध्या) आ गये थे । भरत और शत्रुघ्न साकेत में ही जन्मे थे । मपु० ६७. १४८-१५२, १५७-१६५ मुनिराज सर्वभूतहित से अपने पूर्व जन्म के वृत्तान्त सुनकर दशरथ को संसार से विरक्ति हो गयी थी। वह राम को राज्य देकर दीक्षित होना चाहता था । पिता की विरक्ति से भरत भी विरक्त हो गया था । भरत को रोकने के लिए केकया ने दशरथ से धरोहर में रखे हुए वर के द्वारा भरत के लिए राज्य माँगा था जिसे देना उसने सहर्ष स्वीकार किया था। पपु० ३१.९५, १०११०२, ११२ ११४ भरत यह नहीं चाहता था पर दशरथ, राम और केकया के आदेश और अनुरोध से उसे मौन हो जाना पड़ा । भरत का राज्याभिषेक कर राम के वन में जाने पर उनके वियोग से सन्तप्त दशरथ नगर से निकलकर सर्वभूतहित नामक गुरु के निकट बहत्तर राजाओं के साथ दीक्षित हो गया। दीक्षा के पश्चात् उसने विजित देशों में विहार किया । अन्त में यह आनत स्वर्ग में देव हुआ । इसी स्वर्ग में इसकी चारों रानियाँ तथा जनक और कनक भी देव हुए थे । पपु० ३२.७८-१०१, १२३.८०-८१
दशलक्षण -- उत्तम क्षमा आदि दस चिह्नों से युक्त धर्म । मपु० ६१.१, हपु० २.१३०
वशवेकालिक — अंगबाह्य श्रुत का सातवाँ प्रकीर्णक । इसमें मुनियों को गोचरी आदि वृत्तियों का वर्णन किया गया है । पु० २.१०३,
१०.१३४ दशांगभोग — दस प्रकार के भोग भाजन, भोजन, शय्या, सेना, यान, आसन, निधि, रत्न, नगर और नादय । मपु० ६६.७९
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चैनपुराणकोश १६१
दशांगभोग नगर - एक नगर । यहाँ राजा वज्रकर्ण राज्य करता था । पपु० ८०.१०९, ८२.१५
दशानन - लंका का स्वामी, आठवाँ प्रतिनारायण । यह अलंकारपुर नगर के निवासी सुमाली का पौत्र तथा रत्नश्रवा और रानी केकसी का पुत्र था । पपु० ७.१३३, १६४-१६५, २०९, ८.३७-४०, २०.२४२ - २४४ आचार्य जिनसेन के अनुसार विजयार्ध की दक्षिणश्रेणी में मेघकूट नगर के राजा पुलस्त्य और रानी मेघश्री इसके पिता-माता थे । मपु० ६८.११-१२ इसके गर्भ में आते ही इसकी माता की चेष्टाएँ क्रूर हो गयी थीं। वह खून की कीचड़ से लिप्त तथा छटपटाते हुए शत्रुओं के मस्तकों पर पैर रखने की इच्छा करने लगी थी । इन्द्र को भी आधीन करने का दोहद होने लगा था, वाणी कर्कश तथा घर्घर स्वर से युक्त हो गयी थी और दर्पण में मुख न देखकर कृपाण में मुख देखती थी । वह गुरुजनों की बड़ी ही कठिनाई से वन्दना करती थी । हजार नागकुमारों से रक्षित राक्षसेन्द्र भीम से प्राप्त मेघवाहन के हार को इसने बाल्यावस्था में सहज में ही हाथ से खींच लिया था । हार पहिनाये जाने पर उसमें गुथे रत्नों में मुख्य मुख के सिवाय नौ मुख और भी प्रतिबिम्बित होने लगे थे। इस प्रकार दश मुख दिखाई देने से इस नाम से सम्बोधित किया गया। भानुकर्ण और विभीषण इसके दो भाई तथा चन्द्रनखा एक बहिन थी । इसने चोटी धारण कर रखी थी। इसके बाबा के भाई माली को मारकर तथा बाबा को लंका से हटाकर इन्द्र विद्याधर ने लंका इसके मौसेरे भाई वैश्रवण को दे दी थी । वैश्रवण को जीतने के लिए इन तीनों भाइयों ने कामानन्दा-आठ • अक्षरों वाली विद्या की एक लाख जप करके सिद्धि की थी। इसे अन्य जो दिवाएँ प्राप्त हुई थीं वे नमःसंचारिणो कामदायिनी कामगामिनी, निवारा, जगत्कम्पा, प्रज्ञप्ति भानुमालिनी अणिमा, लघिमा, क्षोभ्या, मनः स्तम्भनकारिणी, संवाहिनी, सुरध्वंसी, कौमारी, वधकारिणी, सुविधाना, तपोरूपा, दहनी, विपुलोदरी, शुभप्रदा, रजोरूपा, दिनरात चोरी, समष्टि अदांनी अजरा, अमरा, जलस्तम्भिनी तोपस्तम्भनी, गिरिवारणी, अवलोकिनी, अरिवंसी, घोरा, भीरा, भुजनिनी, वारणी, भुवना, अवध्या दाणा, मदनाशिनी, भास्करी, भयसंभूति, ऐशानी, विजया, जया, बन्धनी, मोचनी, वाराही, कुटिलाकृति, विनोद्भवकारी, शान्ति, कौबेरी, बशकारिणी, योगेश्वरी, बलोत्सादी, चण्डा, भीति और प्रषिणो इन विधान के प्रभाव से इसने स्वयंप्रभ नामक एक नगर बसाया था । जम्बूद्वीप के अधिपति अनावृत यक्ष ने जम्बूद्वीप में इच्छानुसार रहने का इसे वर दिया था । पपु० ७. २०४-३४३ इसे चन्द्रहास खड्ग की सिद्धि थी । विजयार्ध को दक्षिणश्रेणी में असुरसंगीत नगर के राजा मय (देव्य) विद्याधर की पुत्री मन्दोदरी से इसने विवाह किया था। इसके अतिरिक्त इसने राजा बुध की पुत्री अशोकलता, राजा सुरसुन्दर की कन्या पद्मवती, राजा कनक की पुत्री विद्युत्प्रभा तथा अन्य अनेक कन्याओं को गन्धर्व विधि से विवाहा था। पपु० ८.१-३, १०३-१०८ वैश्रवण को जीतकर इसने उसका पुष्पक विमान प्राप्त किया। सम्मेदाचल के पास संस्थलि नामक पर्वत पर इसने त्रिलोक
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