Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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कौसला-क्रौंचपुर
(२) पूर्व आर्यखण्ड की एक नदी । यहाँ भरतेश की सेना ने विश्राम किया था। मपु० २९.५०, ६५
(३) कौतुकमंगल नगर के निवासी व्योमबिन्दु और उसको भार्या नन्दवती की ज्येष्ठ पुत्री, केकसी की बड़ी बहिन । यह यक्षपुर के निवासी विधवा को दी गयी थी। वैश्रवण इसी का पुत्र था । पपु०
७.१२६-१२८ 'कौसला-एक नगरी । यहाँ का राजा भेषज था। शिशुपाल इसका ही
पुत्र था। मपु०७१.३४२ कौस्तुभ-(१) लक्ष्मण के सात रत्नों में एक रत्न । चक्रवर्ती भरत
तथा कृष्ण के पास भी यह रत्न था। मपु० २६.६५, ६८.६७६-६७७, हपु० ४१.३३
(२) लवणसमुद्र में पूर्व दिशा के पाताल-विवर के एक ओर स्थित अर्धकुम्भाकार रजत-पर्वत । हपु० ५.४६० कौस्तुभाभास-लवणसमुद्र में पूर्व दिशा के पाताल-विवर के एक ओर
स्थित अर्धकुम्भाकार रजत-पर्वत । उदवास यहाँ का अधिष्ठाता देव
है। हपु० ५.४६०-४६१ क्रकच-मर्मस्थल और अस्थिसन्धियों का विदारक एक शस्त्र। मपु० __ १०.५९, पपु० ५८.३४ ऋतु-यज्ञ। यह देवपूजा-विधि का पर्यायवाची शब्द है। मपु०
६७.१९३ क्रमण-मानुषोत्तर पर्वत के कनककूट का निवासी एक देव । हपु०
५.६०४-६०५ क्रमुक-सुपारी, पूजा-सामग्री में व्यवहृत एक फल । मपु० १७.२५२,
६३.३४३ क्रव्याव-मांसाहारी । मपु० ३९.१३७ 'क्रिया-श्रावकों का संस्कार । इसके तीन भेद हैं-गर्भान्वय, दीक्षान्वय
और कर्ज़न्वय । गर्भान्वय की गर्भ से लेकर निर्वाण-पर्यन्त श्रेपन, दीक्षान्वय की अड़तालीस और कन्वय की सात, इस तरह कुल एक सौ आठ क्रियाएं होती हैं। साम्परायिक आस्रव की भी पच्चीस क्रियाएँ होती हैं। मपु० ३८.४७-६९, हपु० ५८.६०-८२, पापु०
५.८७-९० ‘क्रियावृष्टि-दृष्टिप्रवाद नामक बारहवें अंग में निर्दिष्ट तीन सौ श्रेसठ
दृष्टियों के चार विभागों में एक विभाग । इसके एक सौ अस्सी भेद इस प्रकार होते हैं-नियति, स्वभाव, काल, देव और पौरुष इन पाँच को स्वतः परतः तथा नित्य और अनित्य से गुणित करने से बीस भेद तथा जीव आदि नौ पदार्थों को उक्त बीस भेदों से गुणित करने पर
एक सौ अस्सी भेद । हपु० १०.४६-५१ क्रियाधिकारिणी-आस्रवकारी पच्चीस-क्रियाओं में एक क्रिया। यह हिंसा के शस्त्र आदि उपकरणों के ग्रहण करने से होती है। हपु०
५८.६०, ६७ क्रियामन्त्र-गर्भाधान आदि क्रियाओं में सिद्धपूजन के लिए व्यवहृत सात
पीठिकामन्त्र । मपु० ४०.११-२३, ७७-७८
जैन पुराणकोश : १०१ क्रियावादी-अन्योपदेशज मिथ्यादर्शन के चार भेदों में प्रथम भेद । हपु०
५८.१९३-१९४ क्रियाविशाल-चौदह पूर्वो में तेरहवां पूर्व । इसके नौ करोड़ पदों में
छन्द : शास्त्र, व्याकरणशास्त्र तथा शिल्पकला आदि के अनेक गुणों का
वर्णन है । पु० २.९७-१००, १०.१२० क्रीडव-जम्बद्वीप के कुरुजांगल देश में स्थित हस्तिनापुर नगर के राजा
अर्हद्दास और उनकी पत्नी काश्यपा का द्वितीय पुत्र । यह मधु का अनुज था । पिता ने इसे युवराज बनाया था। इसने विमलवाहन मुनिराज से संयम ग्रहण किया। मरकर यह महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्र हुआ। मपु० ७२.३८-३९, ४३-४५ क्रीडा-शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के वर्धक खेल। इसके चेष्टा, उपकरण, वाणी और कलाव्यासंग ये चार भेद हैं। इनमें शरीर से की जानेवाली क्रीडा को चेष्टा, गेंद आदि के द्वारा की जानेवाली क्रीडा उपकरण, सुभाषित आदि से की जानेवाली क्रीडा वाणी और जुआ आदि से की जानेवाली क्रीडा कलाव्यासंग होती है । पपु०
२४.६७-६९ क्रुष्ट-राम-रावण युद्ध में आया हुआ राम का एक सिंहरथासीन सामन्त ।
पपु० ५८.१० क्रूर-(१) सोंग एवं दंष्ट्रावाले दुष्ट स्वभावी जीव । मपु० ३.१०१
(२) वसुदेव और उनकी रानी विजयसेना का द्वितीय पुत्र, अक्रूर का अनुज । हपु० ४८.५४
(३) अंजना की सास केतुमती का सेवक । यही गर्भावस्था में अंजना को उसके पिता के नगर के पास छोड़ने गया था। पपु० १७.१२-२०
(४) रावण का सिंहरथासोन एक योद्धा । पपु० १२.१९७, ५७.४७
(५) विद्याधरों का स्वामी। यह राम का सहायक था। पपु० ५४.३५ क्रूरकर्मा-खरदूषण का मित्र एक विद्याधर । पपु० ४५.८६-८७ करनक्र-दशानन का अनुयायी एक विद्याधर । पपु० ८.२६९ ऋ रामर-धातकीखण्ड द्वीप के पश्चिम विदेहक्षेत्र के निवासी अरिंजय
और उसकी पत्नी जयावती का पुत्र । यह धनश्रुति का अग्रज था और सहस्रशीर्ष राजा का सेवक । इसने महामुनि केवली से दीक्षा धारण कर ली तथा अन्त में शतार स्वर्ग में देव और वहाँ से चयकर मेघवाहन हुआ। पपु० ५.१२८-१३३ क्रोध-(१) चार कषायों में प्रथम कषाय । यह संसार का कारण है
और क्षमा से यह शान्त होता है। मपु० ३६.१२९, पपु० १४. ११०-१११
(२) रत्नत्रय रूपी धन का तस्कर । सत्य व्रत की पाँच भावनाओं में प्रथम भावना-क्रोध का त्याग । मपु० २०.१६२, ३६.१३९
(३) भरत के साथ दीक्षित एक नृप । पपु०८८.१-५ क्रोषध्वनि-रावण का व्याघ्ररथासीन एक सामन्त । पपु० ५७.५० क्रौंचपुर-इस नाम का एक नगर । यहाँ का राजा यक्ष था। पपु०
४८.३६
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