Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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गन्धसमृद्ध - विजयार्ध की
दक्षिण श्रेणी के गान्धार देश में स्थित एक नगर । हपु० २२.९४, ३०.६, ५४ गन्धा - विदेह क्षेत्र का एक देश
पुरी इस देश की राजधानी थी। यह पश्चिम विदेह में नील पर्वत और सीतोदा नदी के मध्य में स्थित है की यहाँ निवास करते हैं। मपु० ६१.२०८-२१७, पु० ५. २५१-२५२
गन्धार - (१) विजयार्घ की दक्षिणश्रेणी में स्थित गान्धार देश के गन्धसमृद्ध नगर का राजा। यह पृथ्वी का पति और प्रभावती का पिता था । इसने प्रभावती का विवाह वसुदेव से किया था । पु० ३.६-७ ३७, ५५
(२) वसुदेव तथा प्रभावती का ज्येष्ठ पुत्र । यह पिंगल का अग्रज था । हपु० ४८.६३
गन्धारपन्नग - नागकुमार देवों की एक जाति । मपु० ६७.४४७ गन्धावती - गंगा नदी में मिली गन्धमादन पर्वत के पास की एक नदी । इन्हीं नदियों की संगमस्थली में जठरकौशिक तापसों के आश्रम थे । मपु० ७०.३२२, हपु० ६०.१६ गन्धावत्सुगन्धा - विदेह क्षेत्र का इस नाम का एक देश । मपु० ६३. २१२
गति (१) जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से पश्चिम की ओर विदेहक्षेत्रस्थित एक देश । इसकी पूर्व दिशा में मेरु पर्वत, पश्चिम में उर्मिमालिनी विभंगा नदी, दक्षिण में सीतोदा नदी और उत्तर में नीलगिरि है। रजतमय विजयार्ध पर्वत इसी के मध्य में है तथा इसी पर्वत पर दस-दस योजन चौड़ी उत्तर और दक्षिण नाम की दो श्रेणियाँ हैं । सिंहपुर तथा अयोध्या इसी देश में हैं। मपु० ४.५१-५२, ८१, ८५, ५.२३०, ५९.२७६-२७७
(२) पुष्करार्धं द्वीप के पश्चिम सुमेरु की पश्चिम दिशा में प्रवाहित महानदी के उत्तरी तट पर स्थित एक देश । मपु० ७०.२६-२७ गविला - घातकीखण्ड द्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में नील पर्वत और सीतोदा नदी के मध्य स्थित आठ देशों में सातवाँ देश । इसकी प्रमुख नगरी अयोध्या है मपु० ५९.२७६-२७७, ५० ५.२५१-२५२, २६३, २७.१११, अपरनाम गन्धिल गन्धोत्कट - हेमांगद देश में राजपुर नगर का निवासी एक राजमान्य सेठ । अपने मृत पुत्र को श्मसान ले जाने पर वहाँ इसे एक जीवित बालक पड़ा हुआ मिला। वह उसे अपने घर ले आया । इसकी पत्नी नन्दा ने इसे प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर इसका नाम जीवन्धर रखा । राजा सत्यन्धर की भामारति और अनंगपताका नाम की दो छोटी रानियों के दीक्षित होने पर उनके पुत्रों का भी इसीने पालन किया था । जीवन्धर के आने के पश्चात् इसके एक पुत्र और हुआ । उसका नाम नन्दादद्य था । मपु० ७५.१९८, २४२-२७९
गम्भीर – कृष्ण का पुत्र । यह युद्धवीर था । हपु० ४८.७०, ५०.१३१ - गम्भीरनिनद- रावण का पक्षधर एक सामन्त । पपु० ५७.४५ यम्भीरशासन सौपर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम मपु० २५.
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न पुराणकोश : १०९
गम्भीरा पूर्व आर्यवस्य एक नदी मपु० २९.५० गम्भीरावर्त - भरत चक्रवर्ती के गम्भीर ध्वनिकारी चौबीस शंख । मपु० ३७.१८४
गम्यात्मा - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १८८
गरिमा - अष्ट सिद्धियों में एक सिद्धि । मपु० ३८.१९३ गरिमामय भरतेषा द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २४.४३ गरिष्ठ - सौधर्मेन्द्र और भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४३, २५.१२२
गरिष्ठगी -सीधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १२२
गरीयसामागुर सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १७६
गरुड -- सानत्कुमार और माहेन्द्रकल्प का चौथा इन्द्रक विमान । हपु० ६.४८
गरुडकान्त - धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व भरतक्षेत्र में विजयार्घ पर्वत की दक्षिणश्रेणी में नित्यालोक नगर के राजा चित्रचूल और उनकी रानी मनोहरा का एक पुत्र । यह सेनकान्त के साथ युगलरूप में उत्पन्न हुआ था । हपु० ३३.१३१-१३३ गरुडकेतन - श्री कृष्ण । हपु० ५१.१० गरुडण्ड [सिंहपुर का गारeिe
यह महागावकि विद्या (सर्प विष दूर करनेवाली विद्या) का जानकार था । मपु० ५९.१९३-१९६, हपु० ० २७.४९-५२ गरुडध्वज - ( १ ) विजया की दक्षिणश्रेणी के पचास नगरों में एक नगर । मपु० १९.३९, ५३ (२) चन्द्र और मनोहरी का पुत्र यह गरुडवान के साथ युगलरूप में उत्पन्न हुआ था । मपु० ७१.२५१, हपु० ३३. १३१-१३३
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गरुडयन्त्र - आकाशगामी एक वाहन । मपु० ७५.२२४ गरुडवाहन - विजयार्धं पर्वत की दक्षिणश्रेणी के नित्यालोक नगर के
राजा चन्द्रचूल चित्रचूल और मनोहरी रानी का पुत्र । यह गरुडध्वज के साथ युगल रूप में उत्पन्न हुआ था । मपु० ७१.२४९ - २५१, ० २२.१२१-११३
गरुडवाहिनी - - एक विद्या । इससे आकाश में गमन होता है । मपु० ६२. १११-११२, ७१.३८१, पपु० ६०.१२०-१३५, पापृ० ४.५४, वीवच० ३ ९५-९६ गरुड (१) भरतयक्षेत्र के विजयाय पर्वत की उत्तरणी के कनकपुर नगर का राजा । धृतिषेणा इसकी रानी थी। मपु० ६३.१६४-१६५ (२) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के गगनवल्लभ नगर का राजा । धारिणो इसकी रानी और गन्धर्वदत्ता पुत्री थी । मपु० ७५.
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३०१-३०४
यह एक विशिष्ट सैन्य-क्यूह मपु० ४४.११२ सेना की ऐसी रचना चक्रव्यूह को भंग करने के लिए की जाती थी। इसमें वसुदेव निष्णात थे । हपु० ५०. ११२-१२९
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