Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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“धनरव-घोषा
जैन पुराणकोश : ११७ (२) धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व मेरु से उत्तर की ओर विद्यमान बीस तथा प्रकीर्णक बिल उन्तीस लाख पंचानवें हजार पाँच सौ सड़सठ अरिष्ट नगर के राजा पद्मरथ का पुत्र । राजा पदमरथ ने इसे राज्य हैं। इस प्रकार कुल (इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक) बिल तीस देकर संयम धारण कर लिया था। मपु० ६०.२-११
लाख हैं । हपु० ४.४६, ७१-७७, ८६-१०४ इनमें छ: लाख बिल (३) राजा हेमांगद और रानी मेघमालिनी का पुत्र । मपु० ६३. संख्यात योजन और चौबीस लाख बिल असंख्यात योजन विस्तार से १८१
युक्त हैं। इन्द्रक बिलों को मोटाई एक कोस श्रेणिबद्ध बिलों की (४) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुण्डरी- १३ कोस तथा प्रकीर्णक बिलों को २७ कोस है। हपु० ४.१६१, किणी नगरी का राजा। इसकी दो रानियाँ थीं-मनोहरा और २१८ इस पृथिवी के उत्पत्ति स्थानों में उत्पन्न नारकी जन्मकाल में मनोरमा । मनोहरा के मेघरथ नामक पुत्र हुआ था। सांसारिक क्षण- सात योजन सवा तोन कोस ऊपर आकाश में उछलकर पुनः नीचे भंगुरता का विचार कर इसने राज्य मेघरथ को सौंप दिया और गिरते हैं। इस पृथिवी से निकला सम्यक्त्वी जीव तीर्थकर पद पा संयमी हो गया । तपश्चर्या से घातिया कर्मों को नाश कर यह केवली सकता है । असैनी पंचेन्द्रिय जीव इसी पृथ्वी तक जाते हैं । मपु० १०. हो गया । मपु० ६३.१४२-१४४, २३१-२३५, पपु० २०.१६४-१६५, २९, हपु० ४.३५५, ३८१ पापु० ५.५३-६०
घाट-वंशा नामक दूसरी पृथिवी के ग्यारह इन्द्रक बिलों में एक इन्द्रक घनरव-अठारहवें तीर्थकर अरनाथ के पूर्वभव का पिता । पपु० २०.९, बिल । इस बिल की चारों दिशाओं में एक सौ अट्ठाईस और विदि२९-३०
शाओं में एक सौ चौबीस कुल दो सौ बावन श्रेणिबद्ध बिल हैं । हपु० घनवात-लोक को वेष्टित करनेवाले तीन वातवलयों में द्वितीय वात
४.७८-७९, १०९ वलय । यह मूंग के वर्ण का, दण्डाकार, धनीभूत, उपर-नीचे चारों ओर
घातिकर्म-जीव के उपयोग गुण के घातक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, स्थित, चंचलाकृति और लोक के अन्त तक वेष्टित है। अधोलोक के
मोहनीय और अन्तराय कर्म । इन कर्मों के विनास से केवलज्ञान की नीचे इसका विस्तार बीस हजार योजन और लोक के ऊपर कुछ कम उपलब्धि होती है । मपु० १.१२, ३३.१३०, ५४.२२६-२२८ एक योजन है । अधोलोक के नीचे यह दण्डाकार है किन्तु ऊपर पाँच घातिसंघात-घाति कर्मों का समूह । हपु०२.५९ दे० घातिकम योजन विस्तत है । मध्यलोक में इसका विस्तार चार योजन रह जाता घुटुक-पाण्डव भीम और हिडिम्बा का पुत्र । युद्ध में यह अश्वत्थामा के है । पाँचवें स्वर्ग के अन्त में यह पाँच योजन विस्तृत हो जाता है और
द्वारा मारा गया था। पापु० १४.६३-६६, २०.२१८-२१९ मोक्ष-स्थान के समीप यह चार योजन विस्तृत रह जाता है । लोक के घृतवर-(१) मध्यलोक का छठा द्वीप । हपु० ५.६१५ ऊपर इसका विस्तार एक कोस है। हपु० ४.३३-४१
. (२) इस द्वीप को घेरे हुए इसी नाम का एक सागर । इसका जल 'धनवाहन-(१) भरतक्षेत्र के विजयाध पर्वत पर स्थित अरुण नगर के घततल्य है । प० ५६१५
घृततुल्य है । हपु० ५.६१५, ६२८ राजा सिंहवाहन का पुत्र । इसका पिता इसे ही राज्य देकर विरक्त घृतस्त्रावो-एक रस ऋद्धि । इससे भोजन में घी की कमी नहीं रहती। हुआ था। पपु० १७.१५४-१५८
मपु० २.७२ (२) विजया को दक्षिणश्रेणी में स्थित रथनपुर नगर के राजा घोर–इन्द्र-रावण युद्ध में रावण के पक्ष का एक पराक्रमी राक्षस । पपु० मेघवाहन और रानी प्रीतिमती का पुत्र । इसने अपने शत्रुओं को
१२.१९६ हराया और अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए विंध्याचल पर साधना की घोरद्धि-घोर तपश्चरण में सहायक ऋद्धि । वजनाभि को यह ऋद्धि जिससे उसे एक गदा प्राप्त हुई थी । पापु० १५.६-१०
प्राप्त थी । इसी की सहायता से वह घोर तप करता था। मपु० 'धनोदषि-सब ओर से लोक को घेर कर स्थित प्रथम वलय। यह गोमूत्र- ११.८२
वर्णधारी, दण्डाकार, लम्बा, घनीभूत, ऊपर नीचे चारों ओर स्थित घोरा-इस नाम की एक महाविद्या । यह रावण को प्राप्त थी। पपु० और लोक के अन्त तक वेष्टित है। अधोलोक के नीचे बीस हजार ७.३२९ योजन और लोक के ऊपर कुछ कम एक योजन विस्तृत है। अधोलोक घोष-(१) अहीरों की बस्ती। मपु०१६.१७६, हपु० २.३ के नीचे यह दण्डाकार है । मध्यलोक में यह पाँच योजन विस्तृत है। (२) असुरकुमार आदि दस जाति के भवनवासी देवों के बीस यह ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर नामक पाँचवें स्वर्ग के अन्त में सात योजन और इन्द्रों में सत्रहवाँ इन्द्र । वीवच० १४.५४-५७ मोक्षस्थान के समीप पाँच योजन विस्तृत है। लोक के ऊपर इसका ___घोषणा-पारिव्राज्यक्रिया के सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्रपद । जो मुनि विस्तार अर्ध योजन है । हपु० ४.३३-४१
नगाड़े तथा संगीत आदि की घोषणा का त्याग करके तपस्या करता धर्मा-नरक की प्रथम रत्नप्रभा भूमि । इस पृथिवी में तेरह प्रस्तार है और है उसकी तपस्या सफल होने पर दुन्दुभिघोष होता है। मपु० ३९. उनमें क्रयशः निम्नलिखित तेरह ही इन्द्रक बिल है-सीमन्तक, नरक, १६४, १८३ रौरुक, भ्रान्त, उदभ्रान्त, संभ्रान्त, असंभ्रान्त, विभ्रान्त, अस्त, त्रसित, घोषसेन-दत्त नारायण के पूर्वभव के दीक्षागुरु । पपु० २०.२१६ वक्रान्त, अवक्रान्त और विक्रान्त । इन इन्द्रक बिलों की चारों दिशाओं घोषा-देवों के द्वारा विद्याधरों को दी गयी एक वीणा। मपु० ७०. और विदिशाओं में विद्यमान श्रेणिबद्ध बिल चार हजार चार सौ २९५-२९६, हपु० २०.६१
(२) अमरक
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